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कब बंद होगी गजेंद्र की मौत पर राजनीति?

मरनेवाले तो खैर बेबस हैं, जीनेवाले कमाल करते हैं. हालात से हारे गजेंद्र ने तो खैर हजारों आंखों के सामने दुनिया को अलविदा कह दिया. लेकिन उसके जाने के बाद उसी की चिता की आंच में सियासत की रोटियां कुछ यूं सिकेंगी, ये उसने सोचा भी ना होगा.

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गजेंद्र की मौत पर नेताओं की राजनीति
गजेंद्र की मौत पर नेताओं की राजनीति

मरनेवाले तो खैर बेबस हैं, जीनेवाले कमाल करते हैं. हालात से हारे गजेंद्र ने तो खैर हजारों आंखों के सामने दुनिया को अलविदा कह दिया. लेकिन उसके जाने के बाद उसी की चिता की आंच में सियासत की रोटियां कुछ यूं सिकेंगी, ये उसने सोचा भी ना होगा. मगर हमारे नेता हैं कि वो जो ना करें, वो कम है. गजेंद्र के जाने से लेकर अब तक इन नेताओं ने अपने हर रंग दिखाएं हैं. मगर एक भी रंग ऐसा नहीं, जो दिल को सुकून दे सके.

अब यही सियासतदान हैं जो कह रहे हैं कि गजेंद्र की मौत एक संवेदनशील मुद्दा है. लिहाजा, इस पर कोई भी राजनीति नहीं होनी चाहिए. लेकिन पिछले तीन दिनों का हर गुजरता लम्हा इस बात का गवाह है कि हर कोई इस मामले को ज्यादा से ज्यादा भुना लेना चाहता है. हर कोई है जो खुद के सिवाय बाकी सभी को इस मौत का कुसूरवार बना देना चाहता है. और हर कोई है जो सामनेवाले को आईना दिखा देना चाहता है. लेकिन कीचड़ उछालने के इस गंदे खेल में सचमुच के आम इंसान की हालत कुछ ऐसी हो गई है कि उसे ये समझ ही नहीं आ रहा कि कौन उसका असली हमदर्द है और कौन हमदर्दी का दिखावा कर रहा है. फिर क्या जनता और क्या गजेंद्र के घरवाले.

जवान बेटे की मौत ने गजेंद्र के बुजुर्ग माता-पिता को दिल और दिमाग़ के एक अजीब से कश्मकश में उलझा दिया है. दिल कह रहा है कि जो हुआ, वो हो नहीं सकता. और दिमाग है कि कह रहा है कि जो हुआ, उसे झुठलाना नामुमकिन है. लेकिन हजारों लोगों के सामने हुई इस वाकये की सबसे दर्दनाक हकीकत यही है कि अब दौसा के इस परिवार का ये बेटा कभी लौट कर घर नहीं आएगा. अपने हाथों से अपने जवान बेटे की चिता को अग्नि दे कर घर लौटे इस पिता की तकलीफ क्या है, उसे महसूस करने के लिए जिस दिल की दरकार है, वो दिल किसी और का हो नहीं सकता. बिल्कुल नहीं. फिर चाहे वो दिल किसी पड़ोसी का हो, किसी हमदर्द का या फिर किसी सूबे के सीएम का.

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गजेंद्र के जाने का गम अकेले इस बदनसीब बाप का गम नहीं, बल्कि इस पूरे कुनबे का गम है. गजेंद्र की मां को देखिए. दिल और दिमाग के बीच एक अजीब कश्मकश में उलझी है. बेटे को गए अब तीन दिन गुजर चुके हैं. लेकिन आंसू है कि रुकने का नाम ही नहीं ले रहे. उसे तो कुछ भी नहीं चाहिए, वो तो बस इतना चाहती है कि कोई कहीं से भी उसके जवान बेटे को उसे वापस लौटा दे. लेकिन ये दिमाग है कि ये कह रहा है कि ये मुमकिन नहीं. और ये दिल है कि ये कह रहा है कि इससे नीचे कुछ मंजूर नहीं.

हजारों लोगों के सामने खुदकुशी करनेवाले गजेंद्र की मौत एक खुली पहेली बन कर रह गई है. जिसका जवाब हर किसी के पास है और किसी के पास नहीं. गरज ये कि गजेंद्र ने खुदकुशी की, ये तो सबने देखा. लेकिन गजेंद्र को खुदकुशी के लिए मोहरे के तरह किसने इस्तेमाल किया, ये किसी ने नहीं. और अब पुलिस को बस इसी पहेली का जवाब ढूंढना है.

अब इस मामले की तफ्तीश कुछ इन्हीं सवालों के इर्द-गिर्द घूम रही है. पुलिस ये जानना चाहती है कि गजेंद्र को यहां किसने बुलाया था? लेकिन रैली में भाग लेने के लिए किसी को बुलाना और खुदकुशी के लिए उसे उकसाना दोनों अलग-अलग चीजें हैं. लिहाजा, पुलिस ने वहां कवरेज के लिए पहुंचे 31 अलग-अलग न्यूज चैनलों से उनके फुटेज भी मांगे हैं ताकि वाकये के हरेक पहलू को समझा जा सके. खुद गजेंद्र के घरवाले ये नहीं मानते की उनका बेटा यूं जान दे सकता है. उन्हें तो यहां तक लगता है कि वो पर्ची गजेंद्र के हाथों लिखी है ही नहीं, जो उसने पेड़ से नीचे फेंकी थी. लिहाज़ा, पुलिस पर्ची की जांच भी हैंडराइटिंग एक्सपर्ट से करवा रही है.

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