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2008 की मंदी में सहारा बनी थी मनरेगा, क्या कोरोना महामारी में फिर बनेगी खेवनहार?

2008 की मंदी में मनरेगा की बड़ी भूमिका थी, मनरेगा की सक्रियता की वजह से करीब 6 महीने में ही अर्थव्यवस्था पटरी पर लौट आई थी.

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कोरोना की वजह से मजदूरों की रोजी-रोटी पर संकट (Photo: File)
कोरोना की वजह से मजदूरों की रोजी-रोटी पर संकट (Photo: File)

  • कोरोना संकट के बीच बेरोजगारी दर बढ़कर करीब 24 फीसदी हो गई है
  • 2008 में मनरेगा की वजह से 6 महीने में अर्थव्यवस्था पटरी पर लौट आई थी
  • फिलहाल कोरोना की वजह से देश में आर्थिक और स्वास्थ्य दोनों समस्याएं हैं

लॉकडाउन के दूसरे चरण में कुछ शर्तों के साथ मनरेगा के मजदूरों को काम करने की इजाजत दी गई है. उन्हें न सिर्फ सोशल डिस्टेंसिंग बल्कि स्वच्छता के नियमों का भी पालन करना होगा.

दरअसल, लॉकडाउन के बाद मनरेगा ही गांवों में रोजगार का एक माध्यम बचा है. क्योंकि लॉकडाउन की वजह से देशभर में सभी तरह के काम-धंधे बंद हैं. अर्थव्यवस्था बेहद बुरी स्थिति में पहुंच गई है. बड़ी आर्थिक एजेंसियां कह रही हैं कि कोरोना की वजह से आर्थिक मंदी गहरा सकती है.

अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) प्रमुख क्रिस्टालिना जॉर्जीवा ने भी साफ कर दिया है कि कोरोना के कारण वैश्विक मंदी की शुरुआत हो चुकी है. उन्होंने यह भी कहा कि 2020 की मंदी 2008 में आए वित्तीय संकट से ज्यादा गंभीर है. क्योंकि आर्थिक और स्वास्थ्य दोनों समस्याएं हैं.

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ऐसे में सरकार के सामने रोजगार बड़ी समस्या बन सकती है, क्योंकि कोरोना संकट के बीच बेरोजगारी दर बढ़कर करीब 24 फीसदी हो गई है. फिलहाल सरकार के पास मनरेगा विकल्प के तौर पर है. क्योंकि 2008 की मंदी में मनरेगा ने अर्थव्यवस्था को सहारा दिया था. कुछ हदतक मनरेगा की सक्रियता की वजह से करीब 6 महीने में ही अर्थव्यवस्था पटरी पर लौट आई थी.

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क्या एक बार फिर मनरेगा पर सरकार दांव लगा सकती है? मनरेगा एक जरिया है, जिसके माध्यम से ग्रामीण क्षेत्रों के जल संसाधनों, कृषि मार्ग संसाधनों और कृषि उपयोगी खाद्य भंडारों एवं कचरा निस्तारण समेत दर्जन भर काम किए जा सकते हैं.

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वहीं कोरोना संकट के बीच सरकार ने मनरेगा के तहत काम करने वालों की मजदूरी बढ़ा दी है. मजदूरों के वेतन में 20 रुपये की औसत बढ़ोतरी की गई है. मनरेगा मजदूरों को रोज की ​मजदूरी के तौर पर 182 रुपये मिलते हैं, जो अब बढ़कर 202 रुपये हो गए हैं.

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इस बीच उत्तर प्रदेश सरकार ने सभी जिलों को निर्देश जारी किए हैं कि ऐसे जो भी लोग जो शहरों से अपने परिवारों के साथ गांव लौट आए हैं और ये लोग अगर मनरेगा के तहत काम करना चाहते हैं तो तत्काल इनके जॉबकार्ड बनाए जाएं.

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मौजूदा हालात पर इंडिया टुडे हिंदी के एडिटर अंशुमान तिवारी का कहना है कि 2008 की मंदी और अभी की स्थिति में काफी फर्क है. 2008 में मंदी की वजह से ग्रामीण अर्थव्यवस्था प्रभावित नहीं हुई थी, इसलिए मनरेगा की अर्थव्यवस्था की रिकवरी में बड़ी भूमिका थी. लेकिन अभी तो कोरोना वायरस की वजह से लोग एकजुट होकर काम ही नहीं कर सकते.

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उन्होंने कहा कि फिलहाल लॉकडाउन की वजह से बड़े शहरों से बड़ी संख्या में मजदूर गांव पहुंच चुके हैं. लेकिन सोशल डिस्टेंसिंग की वजह से गांव में भी कामकाज ठप है. रबी फसल की कटाई में जितने मजदूर चाहिए, उससे ज्यादा गांवों में उपलब्धता हो चुकी है. वहीं मनरेगा के तहत केवल 180 दिनों तक रोजगार की गारंटी है. तो फिर बाकी दिन लोग क्या करेंगे, क्योंकि बड़े शहरों में काम बिल्कुल बंद है.

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इसके अलावा मजदूरों को रोजगार तुरंत मिलना संभव नहीं लग रहा है, क्योंकि ज्यादातर इंडस्ट्रियल एरिया कोरोना हॉटस्पॉट घोषित हैं. वहीं मौजूदा समय की 2008 से तुलना करें तो उस समय सरकार ने अर्थव्यवस्था में तेजी लाने के लिए राहत पैकेज की घोषणा की थी. लेकिन इस समय सभी तरह की आर्थिक गतिविधियां ही बंद हैं तो फिर अर्थव्यवस्था की गाड़ी कब पटरी पर लौटेगी, ये कहना फिलहाल मुश्किल है. इसलिए हालात फिलहाल 2008 से ज्यादा गंभीर है.

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