भारत का वर्तमान जब पीछे मुड़ कर देखता है तो इतिहास एक से बढ़कर एक नगीनों-हीरों और जवाहरातों से भरा मिलता है. इतने चमकदार कि उनकी मौजूदगी के कारण इतिहास की किताबों के पीले पुराने पड़ चुके पन्ने भी जगमगाते नजर आते हैं. लेकिन ज्यादा पीछे नहीं जाएं केवल सवा सौ साल पहले के पन्ने पलट दें तो यह पन्ने रंग-बिरंगे मिलेंगे, इंद्रधनुषी छटा से रंगे हुए, कारण, इन पन्नों में राजा रवि वर्मा का इतिहास दर्ज है. वह जो नव भारत के चितेरा थे और जिनकी कूची ने आध्यात्म को कर्णप्रिय से दर्शनीय बना दिया था.
राजा रवि वर्मा बचपन से लेने लगे थे चित्रकारी में रुचि
केरल में एक जगह है किलिमानूर, 29 अप्रैल 1848 को यहीं एक बालक का जन्म हुआ. बालक के चाचा चित्रकार थे और नन्हें बालक से प्रेमवश हमेशा उसे साथ रखते थे. प्रभाव ऐसा पड़ा कि बालक भी नन्ही उम्र में ही आड़ी-तिरछी रेखाएं खींचने लगा. ऐसे ही देखते-देखते सात वर्ष गुजर गए. एक बार चाचा किसी राजभवन की दीवारों को चित्रकारी से सजा रहे थे, किसी कारण वहां से कुछ देर के लिए हटना पड़ा, इतने में सात साल के बालक ने दीवार के चित्र को पूरा कर उसमें रंग भी भर दिए थे. चाचा लौट कर आए, देखा तो दंग रह गए. चित्रकारी की पहली शिक्षा चाचा से शुरू हुई. राजा रविवर्मा ने एक बार जो रंगों को हाथ लगाया तो प्रकृति के हर रूप को कागज पर उकेरते चले गए.
एक दिन किसी प्रेरणावश उन्होंने पौराणिक चरित्रों के चित्रांकन का निर्णय लिया. इसके लिए उन्होंने एक युवती को तैयार कर लिया. वह पिछले कई घंटों से यूं ही मौन, एक ही मुद्रा में बैठी थी. इतनी अटल कि भवन के कोने की ओर लगातार देख रही उसकी आंखों की पुतलियां भी नहीं घूम रही थीं. किसी सामान्य स्त्री के लिए यह वाकई मुश्किलों भरा हो सकता था, लेकिन वह सामान्य नहीं थी. राजा रवि वर्मा ने उसमें ऐसा आत्मविश्वास भरा था कि वह दैवीय हो गई थी. इसी का प्रभाव था कि आंखों में दया के भाव थे.
चेहरे पर तेज था और हथेलियां खुद ही वरद हस्त में बदल गई थीं. वह युवक बारीकी से इन सारी भावनाओं को रंगों में घोलता जाता और कागज पर उकेरता जा रहा था. दोनों ही अपने काम में दृढ़ थे. इस दृढ़ता का ऐसा प्रभाव पड़ा कि करीब सवा सौ साल पहने बनी कागज पर उकेरी वह कृति आज हममें ज्ञान का प्रकाश भर रही है. जो चित्र बनकर तैयार हुआ वह मां सरस्वती का वरद चित्र था.
पौराणिक चरित्रों को चित्रो में उकेरा
राजा रविवर्मा को भारत की प्राचीनता का सबसे उत्कृष्ट चित्रकार माना जाता है. आज देवी-देवताओं के जिन पौराणिक स्वरूपों को हम इतने सहज तरीके से कागज पर जीवंत हुए देखते हैं, इसका पहला प्रयास उन्होंने ही किया था. प्रख्यात चित्र देवी सरस्वती उन्होंने तकरीबन 1896 में बनाया था, लेकिन यह इतना आसान नहीं था. कहा जाता है कि रवि वर्मा ने देवी के स्वरूप को उभारने के लिए जिस चेहरे व छवि को सामने रखा वह उनकी एक जानकार सुगंधा का था. कुछ जगहों पर सुगंधा उनकी प्रेयसी बताई गईं हैं. कहते हैं कि सुगंधा चित्र के लिए तैयार नहीं थीं. उनके लिए देवी का स्वरूप खुद बनना धर्म से इतर होना था, लेकिन रवि वर्मा के समझाने पर वह मान गई थीं.
राजा रवि वर्मा के जीवन पर आधारित फिल्म 'रंगरसिया' में निर्देशक केतन मेहता ने इसी तथ्य को फिल्माया था. अभिनेता रणदीप हुड्डा ने इस फिल्म में राजा रवि वर्मा की भूमिका निभाई है. फिल्म आने पर इसका भी विरोध हुआ था. वैसा ही विरोध, जो राजा रवि वर्मा को देवी-देवताओं के चित्र बनाने में झेलना पड़ा था.
जब चित्रांकन पर लगे थे अश्लीलता के आरोप
जब रविवर्मा की चित्रकला का तब के समाज में काफी विरोध किया गया. दरअसल उस समय केवल मंदिरों में ही देव प्रतिमाओं की स्थापना की अनुमति थी. यह प्रतिमाएं वेद-पुराणों व धार्मिक ग्रंथों में वर्णित संरचना के आधार पर गढ़ी जाती थीं. इनमें सभी प्रतीक चिह्नों का इस्तेमाल तो होता था, लेकिन कोई चेहरा नहीं होता था. कागज पर उकेरे गए चित्र को धार्मिक आधार पर मान्यता नहीं मिल रही थी, क्योंकि इसमें स्पष्ट चेहरा था. उनके चित्रांकन पर अश्लीलता के आरोप भी लगे.
मामला कोर्ट में चला गया. लंबी चली बहस के बाद बांबे हाईकोर्ट ने उन पर लगाए आरोप खारिज कर दिए. लेकिन धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने का आरोप लगाकर लोगों ने उनका छापाखाना जला दिया. इसमें रविवर्मा को काफी आर्थिक नुकसान पहुंचा. धीरे-धीरे समय बदला और आज रविवर्मा का बनाया चित्र कलाओं की देवी के तौर पर हर तबके में पूजा जाता है.
वाटर कलर पेंटिंग में थी महारत हासिल
वाटर कलर पेंटिंग में राजा रवि वर्मा को महारत हासिल थी. इसे उन्होंने तबके जानकार रामा स्वामी नायडू से सीखा था. नायडू उस समय त्रावणकोर महाराज के दरबार में थे. राजा रवि वर्मा नए प्रयोग के लिए हमेशा तैयार रहते थे. इसी धुन में उन्होंने ऑइल पेंटिंग की ओर भी रुख किया. ऑइल पेंटिंग की बारीकियां इन्होनें डच चित्रकार थेओडॉर जेंसन से सीखी थी. जेंसन उस समय पोर्ट्रेट बनाने वालों में उत्कृष्ट थे. रवि वर्मा ने इस क्षेत्र की बारीकियां सीख कर उनसे भी अव्वल दर्जा हासिल किया.
1904 में ब्रिटिश सरकार ने रवि वर्मा को ‘केसर-ए-हिंद’ का खिताब दिया था. यह भारतीय नागरिकों के लिए. उस समय का सबसे बड़ा सम्मान था. किसी कलाकार के तौर पर वो पहले थे. जिन्हें ये सम्मान मिला. अभिज्ञानशाकुंतलम की शकुंतला का चित्र, इनके बनाए हुए सबसे प्रसिद्ध चित्रों में से एक है. एक विदेशी लेखक मेनियर विलियंस ने अभिज्ञान शाकुंतलम् का अंग्रेजी अनुवाद किया था. उन्होंने अपनी किताब के कवर पेज में राजा रवि वर्मा की बनाई हुई शकुंतला की पेंटिंग ही लगवाई थी.
2 अक्टूबर 1906 को चित्रकारी के इस राजा ने अपना साम्राज्य समेट कर आंखें मूंद लीं, लेकिन इसके पहले भारतीय इतिहास को वह रंगीन बना चुका था, बेहद रंगीन.