कहते हैं न कि जब संसार आपके लिए सारे दरवाजे बंद कर देता है तो संसार का स्वामी आपके लिए दूसरा ही दरवाजा खोल देता है. इस अध्यात्मिक पंक्ति को चरितार्थ करता है कर्नाटक के उडुपी में मौजूद प्राचीन श्रीकृष्ण मठ.
जनश्रुति है कि जब भक्त को दर्शन के लिए मुख्य द्वार से प्रवेश नहीं मिला तो भगवान खुद एक झरोखा बनाकर उससे झांककर भक्त को देखने के लिए मुड़ गए. मंदिर में आज भी वह झरोखा मौजूद है, जिसे बेहद पवित्र माना जाता है और कोई भी बिना मंदिर में प्रवेश किए किसी भी स्थिति में उस झरोखे से पतित पावन प्रभु की सुंदर झलक को देख सकता है. इस मंदिर में दर्शन करने वालों का अनुभव बताता है कि गर्भगृह में दर्शन करने में, श्रीकृष्ण को देखने में वह सुख नहीं मिलता जो इस किंदी यानी खिड़की से उनकी एक झलक पाकर मिलता है. तिरछा मुंह किए हुए, झांकती हुई, फैली निहारती आंखों से बाहर की ओर देखते भगवान ऐसे लगते हैं कि जैसे सारा साज-शृंगार करके वह अपने भक्त को ही निहार रहे हैं.
वैसे कौन था वह भक्त, जिसके लिए खुद श्रीकृष्ण ने इतनी जद्दोजहद की?
इस प्रश्न का उत्तर लगभग 600 साल पुरानी एक लोककथा में छिपा है. कनाकना किंडी या कनकदास का झरोखा कर्नाटक के उडुपी स्थित प्रसिद्ध उडुपी श्रीकृष्ण मठ का एक पवित्र हिस्सा है. यह मुख्य मंदिर कक्ष की पश्चिमी दीवार में बना एक छोटा-सा छिद्र (झरोखा) है, जहां से भक्त भगवान कृष्ण के विग्रह का दर्शन कर सकते हैं. इस किंडी का संबंध हरिदास परंपरा के महान संत कनकदास से है.

'आगम शास्त्र' के अनुसार लगभग सभी दक्षिण भारतीय मंदिरों में मुख्य विग्रह पूर्व दिशा की ओर स्थापित होता है. लेकिन उडुपी के श्रीकृष्ण मठ में विग्रह पश्चिम की ओर है, और लोकप्रिय मान्यता के अनुसार यह चमत्कार भक्त कनकदास के कारण हुआ.
कथा कुछ ऐसी है कि भक्त कनकदास गैर ब्राह्मण थे. जीवन के एक दौर में श्रीकृष्ण से लगन लग गई तो रम गए. इसी धुन में हरि-हरि गाते हुए वह पहुंचे उडुपी. लेकिन उस वक्त मंदिर के पुजारियों ने उन्हें उनकी जाति का हवाला देकर गर्भगृह में प्रवेश नहीं करने दिया. कनकदास ने कहा- जैसी हरि की इच्छा और अपना तानपुरा लेकर वहीं मंदिर की पश्चिमी दीवार के पास बैठ गए जो उस समय मंदिर का पिछला हिस्सा था. मधुर स्वर, सुंदर गीत और तानपुरे की रागमाला... कनकदास भक्ति–गीत गाकर भगवान कृष्ण की आराधना करने लगे. इसी दौरान उन्होंने प्रसिद्ध भक्ति-गीत 'बागिलानु तेरेदु, सेवेनु कोडो हरिये' रचा. यानि 'मैं तो बैठा हूं तेरे द्वार, तू कब करेगा मेरी पूजा स्वीकार'
मूल रूप से यह कन्नड़ भजन है, जिसका हिंदी भावानुवाद आप यहां देखिए...
दरवाजा खोलो, मेरी सेवा स्वीकार करो हे हरि।
मैं पुकार रहा हूं—क्या मेरी आवाज तुम्हें सुनाई नहीं देती, हे नरहरि?
(1)
तुम तो परमपद में, शेषनाग की शैय्या पर
लक्ष्मी संग क्षीरसागर में विराजमान हो।।
किन्तु जब गजराज संकट में पड़ा,
और उसने “आदि-मूल” कहकर तुम्हें पुकारा—
तब क्या तुम तुरंत नहीं पहुंचे थे उसकी रक्षा को, हे नरहरि?
(2)
जब दुष्ट ने क्रोध में तलवार उठाई
और कहा—आज मैं इस बच्चे का अंत कर दूंगा,
तब उस बाल भक्त ने अटूट श्रद्धा से
तुम्हारे नाम का सहारा लिया
और तुम, हर्ष से भरकर,
स्तंभ को फाड़कर प्रकट हुए—हे नरहरि!
गीत सुनकर जागृत हो गया भगवान का विग्रह
कहते हैं कि गीत में इतना प्रभाव था और गायन इतना मधुर कि मंदिर के भीतर श्रीविग्रह में जागृति आ गई और कनकदास की गहन भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान कृष्ण ने अपना मुख 180 डिग्री घुमाकर पश्चिम दिशा की ओर कर लिया. उसी क्षण दीवार में एक दरार उभरी और ईंटें टूटकर गिर पड़ीं. जहां दीवार थी, वहां झरोखा बन गया और भक्त कनकदास को पहली बार विग्रह का दर्शन हुआ. बाद में इसे स्थायी रूप देकर 'कनकना किंडी' यानी कनकदास का झरोखा कहा गया.
इसी झरोखे से होते हैं विग्रह दर्शन
यह पवित्र झरोखा मुख्य गर्भगृह की 'पश्चिमी दीवार' में बना है. कृष्ण का बालरूप पश्चिम की ओर इसी किंडी की तरफ देखता है. झरोखे में तीन लंबवत स्लिट (छिद्र) बने हैं, जो एक चौखटे में जड़े हुए हैं. परंपरा यह है कि मंदिर आने वाला हर भक्त सबसे पहले इसी किंडी से भगवान के दर्शन करता है, फिर मंदिर के मुख्य सभामंडप में प्रवेश करता है.
जर्मन विद्वान ने लोक कथा को दिया लिखित दस्तावेज का रूप
जर्मन विद्वान फ़्रीडरिख मॉगलिंग ने साल 1860 के दशक में कनकदास से जुड़ी मौखिक परंपराओं को दस्तावेज के तौर पर संकलित किया था. वे विवरण आज प्रचलित किंवदंती से कुछ अलग हैं. इसके मुताबिक कनकदास का वास्तविक नाम 'वीर नायक' था. वे विजयनगर साम्राज्य के कुरुबा समुदाय से संबंध रखते थे और सेना के एक सरदार थे. युद्ध में पराजय के बाद उन्होंने सांसारिक जीवन त्याग दिया और ‘दास’ बनकर कृष्ण भक्ति में लीन हो गए.
जब वीर नायक उडुपी पहुंचे, तब मंदिर के तत्कालीन प्रमुख 'श्री वादिराज तीर्थस्वामी' ने उनके लिए मंदिर के पीछे एक झोपड़ी बनवाई, क्योंकि उस समय गैर-ब्राह्मणों को मंदिर में प्रवेश की अनुमति नहीं थी. वीर नायक वहीं बैठकर तंबूरा बजाते और कृष्ण-भक्ति गीत गाते थे. उनके और भगवान के बीच केवल दीवार थी. मॉगलिंग के अनुसार, एक रात आए भूकंप के दौरान गर्भगृह की दीवार में एक दरार पड़ी और उसी से वीर नायक को विग्रह का दर्शन हुआ. वादिराज तीर्थ ने इसे दिव्य संकेत मानते हुए उस दरार को बंद करने के बजाय उसे चौड़ा करके झरोखा बना दिया—वही आज की 'कनकना किंडी' है.

मॉगलिंग एक और कथा भी बताते हैं. भूकंप की घटना के बाद कृष्ण की माला के कुछ रत्न गायब होने लगे. श्रीवादिराज ने जांच की तो पता चला कि वे रत्न कनकदास के पास थे. कनकदास ने बताया कि भगवान ने स्वयं उन्हें रत्न देकर उनके भोजन की व्यवस्था की है. एक सुनार ने भी रत्न खरीदने की बात स्वीकार की. वादिराज ने कनकदास की दिव्य कृपा परखने के लिए स्वयं मुट्ठियां बंद कर गर्भगृह में प्रवेश किया और पुजारियों से पूछा कि उनके हाथ में क्या है. कोई नहीं बता सका. जब कनकदास ने भक्ति-गीत 'ईतनेगा वासुदेवोनो” गाया, तब वादिराज ने हाथ खोला और उसमें 'शालिग्राम' निकला. इससे प्रभावित होकर उन्होंने वीर नायक को औपचारिक रूप से नया नाम दिया 'कनकदास'. क्योंकि भगवान खुद उन्हें अपना कनक यानी स्वर्ण दिया था.
ईतनेगा वासुदेव का हिंदी भावानुवाद
आप वही वासुदेव हैं—
संसार के स्वामी, सबके पालनहार।
आप वही वासुदेव हैं,
यह सम्पूर्ण जगत जिनके अधीन है।
दासों को अपनाकर, रथ पर चढ़ाकर,
शौर्य के साथ जिन्हें वे दिशा दिखाते हैं।।
(1)
जिसने धेनुकासुर का संहार किया,
जिसने अपने पिता और बड़े भाई के सामने
कौरवों की शक्ति को चुनौती दी।
जिसने अपने छोटे भक्त की रक्षा हेतु
दुष्ट का सिर काट दिया।
और अपने अन्य शिष्य को —
रुक्मी के प्रज्वलित अग्नि–दंड से बचाया,
उस देव की दिव्य मूर्ति का दर्शन करो।।
पीएम मोदी पहुंचे हैं उडुपी श्रीकृष्ण मठ
कनकना किंडी के इसी दिव्य धाम में शुक्रवार को पीएम मोदी पहुंचे हैं. यहां वह कनकना किंडी के लिए कनक कवच दान कर रहे हैं और लक्षकोटि गीता पाठ पारायण में हिस्सा ले रहे हैं. श्रीकृष्ण मठ में नवलकिशोर श्रीकृ्ष्ण का भुवन मोहिनी विग्रह स्थापित है. भगवान के दर्शन कर यहां अलग ही सुकून और शांति मिलती है. पीएम मोदी यहां एक स्वर्ण मंडप का भी उद्घाटन करेंगे. कनकदास भक्त की इस भक्ति पर आधारित ब्लैक एंड वाइट एरा में एक फिल्म भी बनी थी, जिसे कन्नड़ समाज में काफी पसंद किया गया था. कन्नड़ भक्ति परंपरा में भक्त कनकदास की कथा निस्वार्थ भक्ति का उदाहरण है और आज भी चर्चित-प्रचलित है.