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प्राचीनकाल की लिखावट में शामिल, शासकों की राजभाषा... भारत की खरोष्ठि लिपि का ईरान से क्या है कनेक्शन

खरोष्ठि लिपि प्राचीन भारत की एक प्रमुख लिपि रही है और खास तौर पर उत्तर-पश्चिमी भारत (आज पाकिस्तान और अफगानिस्तान में) में तीसरी सदी ईसा पूर्व से तीसरी सदी ईस्वी तक प्रयोग में लाई जाती रही थी. दाएं से बाएं लिखी जाने वाली यह लिपि गांधार क्षेत्र की प्रमुख लिपियों में से एक मानी जाती थी.

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नई दिल्ली स्थित राष्ट्रीय संग्रहालय में काष्ठ पट्टिका पर लिखी खरोष्ठि लिपि
नई दिल्ली स्थित राष्ट्रीय संग्रहालय में काष्ठ पट्टिका पर लिखी खरोष्ठि लिपि

इस वक्त दुनिया के मिडिल ईस्ट में जंग का माहौल बना हुआ है. इजरायल-ईरान का संघर्ष अब ईरान और यूएस का भी संघर्ष हो चला है. जंग के इस माहौल के बीच जब ईरान पर नजर जाती है तो अनायास ही इस भू-भाग का 4000 साल का संरक्षित इतिहास भी सामने आ जाता है. इस इतिहास में दर्ज है, ईरान की समृद्ध संस्कृत, खान-पान, पहनावा और इसके साथ ही लिखावट.

मनुष्य ने जब बोलना सीख लिया तब अपने भावों को और अधिक पुष्ट करने के लिए उसने संकेत गढ़ने शुरू किया. उन संकेतों में कई तरह के चित्र बने और इन्हीं चित्रों और संकेतों से लिपियां विकसित हुईं. आदिमानव के भाषा विज्ञान के विकास ये एक मोटा-मोटा खाका है. भारत के प्राचीन इतिहास कई लिपियों का नाम दर्ज मिलता है, जिनमें ब्राह्मी लिपि, शंख लिपि, शारदा लिपि, देवनागरी आदि शामिल हैं. लिपियों की ये शृंखला इतने तक सीमित नहीं हैं. इसमें पाली, प्राकृत, गुप्त जैसे कई नाम भी आगे चलकर जुड़ते हैं, लेकिन अभी जिस खास लिपि के महत्व पर बात करने की जरूरत है, वह है खरोष्ठि लिपि.

विश्व की प्राचीन लिखावटों में शामिल है खरोष्ठि
खरोष्ठि लिपि की बात इसलिए क्योंकि यह लिपि जहां एक ओर बेहद प्राचीन लिपि है, वहीं इस लिपि के तार विश्व सभ्यता से जुड़ते हैं, जिनमें प्राचीन ईरान का खास रोल है. इस तरह एक लिपि ढाई से तीन हजार साल पहले के दो अलग-अलग भौगोलिक क्षेत्रों को कहीं न कहीं एक तार में जोड़ती दिखती है. भारतीय उपमहाद्वीप और प्राचीन ईरान (फारस) के बीच सांस्कृतिक, व्यापारिक और ऐतिहासिक संबंध सदियों पुराने हैं. इन संबंधों का एक महत्वपूर्ण पहलू है प्राचीन लिपियों का विकास और प्रसार, जिनमें खरोष्ठी लिपि एक प्रमुख उदाहरण है. खरोष्ठि लिपि, जो प्राचीन भारत के उत्तर-पश्चिमी क्षेत्रों में प्रचलित थी, का उद्भव और विकास ईरान की सांस्कृतिक और प्रशासनिक प्रणालियों से गहराई से जुड़ा हुआ है. 

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खरोष्ठि लिपि प्राचीन भारत की एक प्रमुख लिपि रही है और खास तौर पर उत्तर-पश्चिमी भारत (आज पाकिस्तान और अफगानिस्तान में) में तीसरी सदी ईसा पूर्व से तीसरी सदी ईस्वी तक प्रयोग में लाई जाती रही थी. दाएं से बाएं लिखी जाने वाली यह लिपि गांधार क्षेत्र की प्रमुख लिपियों में से एक मानी जाती थी. खरोष्ठि का उपयोग प्रशासनिक दस्तावेजों, शिलालेखों, सिक्कों, और बौद्ध ग्रंथों को लिखने के लिए किया जाता था. इसकी उत्पत्ति को अरमाइक लिपि से जोड़ा जाता है, जो प्राचीन ईरान के अखमेनी साम्राज्य की ऑफिशियल स्क्रिप्ट (आधिकारिक लिपि)थी.

कैसे बने हैं खरोष्ठि के अक्षर?
इस बारे में विस्तार से बताते हुए प्राचीन इतिहास एवं पुरातत्व के शोधार्थी डॉ. अंकित जायसवाल कहते हैं कि, खरोष्ठि लिपि का ब्राह्मी के अक्षरों से कोई कनेक्श नहीं है. खरोष्ठी के अक्षर अरामाइक लिपि के अक्षरों के आधार पर बने हैं. ईरान के हखामनी शासकों के आरामी (अरामाइक) लिपि का व्यवहार पूरे पश्चिमी एशिया में होता था. सिर्फ़ इसी आरामी लिपि से खरोष्ठी लिपि आई है. हखामनी शासकों ने हालांकि आरामी भाषा के लिए कानूनी रूप से आरामी लिपि के आधार पर एक नई लिपि बना ली थी, फिर भी पूरे पश्चिमी एशिया में आरामी भाषा व लिपि ही अधिक से अधिक प्रयोग में लाई जाती रही. ऐसा इसलिए क्योंकि  हखामनी शासकों ने राजकाज के लिए इसी लिपि का इस्तेमाल किया था. 

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हखामनी शासन के पूर्व भी, जबकि हखामनी साम्राज्य नहीं बना था, ईरान में गंधार देश का पूरा भाग था. राजकाज की लिपि होने से गंधार देश की जनता भी इस आरामी लिपि से रूबरू हुई. तक्षशिला और अफ़ग़ानिस्तान से आरामी लिपि के कुछ लेख भी मिले हैं. आरामी लिपि मूलतः एक सेमेटिक लिपि है, इसलिए सभी सेमेटिक लिपियों (फिनीशियन, हिब्रू, अरबी आदि) की तरह यह लिपि भी दायें ओर से बायें ओर लिखी जाती थी.

सेमेटिक लिपियां सेमेटिक परिवार की भाषाओं को लिखने के लिए ही ठीक हैं. इनमें स्वरध्वनि के लिए चिह्न नहीं होते. फिर भी सेमेटिक लिपियों के आधार पर भारत-यूरोपीय परिवार की भाषाओं के लिए अक्षरात्मक लिपि का निर्माण हुआ है. प्राचीन ईरान की पहलेवाली लिपि का निर्माण आरामी लिपि के आधार पर हुआ था. फिर इसी पहलेवाली लिपि के आधार पर अवेस्तकीय लिपि भी बनी. ब्राह्मी के प्रयोग से पहले और उसके समकालीन ईरानी लिपियों का निर्माण भी आरामी (अरामाइक) लिपि के आधार पर हुआ है, 500 ई॰ पू॰ के लगभग. दर्यवुश (559-530 ई॰ पू॰) एक प्रमुख हखामनी सम्राट थे. बिसिटून के शिलालेखों की उत्पत्ति के बारे में एक मत यह है कि यह ‘खरोष्ठी’ में ही लिखे गए हैं. 

वह बताते हैं कि एक मत के अनुसार, खरोष्ठी शब्द ‘खश-पोस्त’ शब्द से बना है. ‘खश’ का अर्थ है ‘शाह’ और यह शब्द संस्कृत ‘क्षितीश’ या ईरानी भाषा में भी मिलता है. ‘पोस्त’ शब्द का अर्थ है ‘पत्र’, और यह शब्द केवल प्राचीन ईरानी लिपियों में मिलता है. इससे यह स्पष्ट है कि यह शब्द मूल रूप से ‘राजाज्ञापत्र पुस्तक’ शब्द भी इसी लिपि से बना है. 

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बौद्ध ग्रंथों में भी दर्ज है खरोष्ठि
शुरुआत में इसे यूरोपीय विद्वानों ने बैक्ट्रियन, इंडो-बैक्ट्रो-पालि या एरियनो-पालि जैसे नाम दिए थे. खरोष्ठी नाम ललितविस्तर (महायान बौद्ध संप्रदाय का ग्रंथ)  में दर्ज 64 लिपियों की सूची में है. खरोष्ठी का मूल खरपोस्त (ऊखरपोस्त ऊखरोष्ठ) है. पोस्त ईरानी भाषा का वह शब्द है जिसका अर्थ 'खाल' होता है. महामायूरी में उत्तरपश्चिम भारत के एक नगरदेता का नाम खरपोस्त भी दर्ज है. चीनी परंपरा के अनुसार इसका आविष्कार ऋषि खरोष्ठ ने किया था. हालांकि इस नाम के पीछे की कहानी अस्पष्ट है. कुछ विद्वानों का मानना है कि यह नाम ईरानी या मध्य एशियाई मूल का हो सकता है, जो इस क्षेत्र के बहुसांस्कृतिक चरित्र को दर्शाता है.

खरोष्ठि लिपि का उपयोग गांधार और आसपास के क्षेत्रों में व्यापक रूप से हुआ. मौर्य सम्राट अशोक (268-232 ईसा पूर्व) के शिलालेखों में खरोष्ठि का उपयोग उत्तर-पश्चिमी क्षेत्रों में देखा जाता है, जैसे शाहबाजगढ़ी और मानसेहरा के शिलालेख. ये शिलालेख अशोक के बौद्ध धर्म प्रचार के साक्ष्य हैं और खरोष्ठि लिपि की प्रशासनिक महत्व को दर्शाते हैं.

खरोष्ठि का उपयोग केवल प्रशासनिक कार्यों तक सीमित नहीं था. बौद्ध धर्म के प्रसार के साथ, इस लिपि में कई बौद्ध ग्रंथ लिखे गए. गांधारी प्राकृत में लिखे गए ये ग्रंथ मध्य एशिया और चीन तक पहुंचे, जहां बौद्ध धर्म का प्रचार हुआ. खरोष्ठि में लिखे गए बर्च पत्र (birch bark manuscripts) आज भी पुरातात्विक खोजों में मिलते हैं, जो इस लिपि की साहित्यिक और धार्मिक महत्व को दर्शाते हैं.

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कहां-कहां से हुआ प्रसार?
प्राचीन ईरान और भारत के बीच व्यापारिक मार्ग, जैसे रेशम मार्ग, सांस्कृतिक आदान-प्रदान के प्रमुख साधन थे. इन मार्गों के माध्यम से न केवल वस्तुओं, बल्कि विचारों, कला, और लिपियों का भी आदान-प्रदान हुआ. खरोष्ठि लिपि का प्रसार मध्य एशिया के क्षेत्रों, जैसे बख्त्रिया (वर्तमान अफगानिस्तान) और सोग्दियाना, तक हुआ, जो प्राचीन ईरान के प्रभाव क्षेत्र में थे. कुषाण साम्राज्य (पहली से तीसरी शताब्दी ईस्वी) के उदय के साथ खरोष्ठि लिपि का महत्व और बढ़ा.

कुषाण शासकों, जो मध्य एशियाई और ईरानी मूल के थे, ने खरोष्ठि को अपने सिक्कों और शिलालेखों में उपयोग किया. कुषाण सिक्कों पर खरोष्ठि और यूनानी लिपि का एक साथ उपयोग इस क्षेत्र के बहुसांस्कृतिक चरित्र को दर्शाता है. कुषाण साम्राज्य ने ईरान, भारत, और मध्य एशिया के बीच सांस्कृतिक सेतु का काम किया, जिसमें खरोष्ठि लिपि ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.

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