रंग-बिरंगी अल्पना सजी है. इन्हें चावल के आटे-हल्दी और टेसू-पलाश के फूलों से बने रंगों से रंगा गया है. एक टोकरी में धान भरा है. इस धान में चार छोटे-छोटे बांस गाड़कर मचान बनाया गया है और इसी मचान पर बैठे हैं सुआ, जो धान को चुग रहे हैं और घरैतिनें (घर की औरतें) उन्हें घेर कर नृत्य कर रही है. गा रही हैं, कोई खड़ताल बजा रही, कोई झांझ तो कोई ढोलक. वह गा-गाकर क्या कह रही हैं?
इसकी एक बानगी देखिए...
सुवा रे सुवा रे उड़ जा तै सुवा
तरी हरि ना ना मोर ना ना रे ना ना
सुवा ले जा न मोरो संदेश
मोर पिया गए हे परदेश 2
सुवा रे मोर ले जा न मोरो संदेश
सुवा रे सुवा रे उड जा तै सुवा 2
उड़ी उड़ी जबे सुवा पिया के नगरिया 2
पिया ला देबे रे संदेश
मन मोर बयाकुल हे, मिलहु मै कैसे रे
वो तो गए वो बिदेश
सुवा रे मोर ले जा न मोरो संदेश
महिलाएं, सुवा (या सुआ) को देवताओं का प्रतिनिधि मानती हैं और उससे अपनी दिल की जुड़ी बात कहती हैं. वह मानती हैं कि सुवा सब सुनता है, सब गुनता है और वो जैसा-जैसा बोलेंगी वैसा-वैसा रट लेगा और फिर वही बातें देवता के सामने जाकर दोहराएगा. बहुत आश्चर्यजनक ढंग से कई बार यही देवता कोई और नहीं उनका प्रियतम हो जाता है, जो चाकरी-मजदूरी के चक्कर में दूर देश गया है. छत्तीसगढ़ (राज्य बाद में बना) और बिहार-बंगाल के दूरस्थ गांवों में रहने वाले, और आदिवासी इलाकों से भी लोग दूर-दूर नौकरी के लिए जाते हैं. तब महिलाएं जो अक्सर घरों में अकेली पड़ जाती हैं.
उनके भीतर बहुत सी बातें रहती हैं, लेकिन कहें किससे. तो यही बातें सुवा गीत के जरिए विरह बनकर फूटती हैं. छत्तीसगढ़ की आदिवासी गोंड महिलाओं के द्वारा ये गीत तब गाया जाता है, जब बारिश का मौसम भी आकर रवाना हो जाता है, लेकिन उनके सूखे मन को ओस जितनी भी तरावट नसीब नहीं होती है. ये मौसम त्योहारों का होने लगता है. धान कटकर खलिहानों में आने लगती है, लेकिन दिन है कि कटते नहीं, तब इसी दौरान दर्द बनकर फूट पड़ते हैं सुवा गीत.

तोते को सुनाकर गीत गाती हैं महिलाएं
गीत के आगे बार-बार सुवा लग रहा है. सुवा होता है तोता. लेकिन तोता क्यों? तोता इसलिए, क्योंकि यह ऐसा पक्षी है जो आदमी के बीच रहकर उनकी बोली सीख सकता है और हूबहू बोल सकता है. दूसरा इसके पीछे एक लोककथा भी है. एक बार शिव-पार्वती तोता बनकर धरती पर लोगों का हालचाल जानने आए. वह लोगों के बीच खेत-खलिहानों में रहे और उनको करीब से देखा. लोककथाओं के अनुसार, महिलाएं तोते के जरिए संदेश देने वाले गीत गाती हैं, अपने दिल की भावनाओं को व्यक्त करती हैं, इस विश्वास के साथ कि तोता उनके दिल के दर्द को उनके प्रिय तक पहुंचाएगा.
इसे कभी-कभी 'वियोग' या 'विरह' गीत भी कहा जाता है. धान की कटाई के साथ उसका बोझा खलिहान में लाने तक और धान से चावल निकालने तक इस गीत के दिन रहते हैं, जिनका सिलसिला महीने भर चलता है. दीपावली के बादतक, गोंड महिलाएं इस गीत को दो महीने तक गाती रहती हैं.
इसके अलावा यह गीत शिव और पार्वती के विवाह का उत्सव मनाने के लिए गाया जाता है, जिसमें पारंपरिक नृत्य भी शामिल होते हैं. पहले इस गीत को गाने के लिए असली सुवा रखे जाते थे, लेकिन धीरे-धीरे उनकी जगह मिट्टी के सुआ (तोता) ने ले ली और अब तो लकड़ी के भी सुवा बनने लगे हैं.
ये है सुवा गीत की परंपरा
गीत के दौरान, महिलाएं बांस की टोकरी में धान भरकर उसमें तोते की मूर्ति रखती हैं और उसके चारों ओर गोलाकार नृत्य करती हैं, मूर्ति को अपने गीत से संबोधित करती हैं. सुआ नृत्य आमतौर पर शाम को शुरू होता है.महिलाएं गांव के एक निश्चित स्थान पर इकट्ठा होती हैं, जहां इस टोकरी को लाल कपड़े से ढक दिया जाता है. टोकरी को सिर पर उठाने के बाद, समूह की एक महिला इसे किसान के घर के आंगन के बीच में रखती है. टोकरी को सिर पर उठाने वाली महिला को सुग्गी कहा जाता है.
समूह की महिलाएं इसके चारों ओर घेरा बनाती हैं. टोकरी से कपड़ा हटाया जाता है, दीपक जलाया जाता है और नृत्य किया जाता है. छत्तीसगढ़ में इस गीत-नृत्य में कोई वाद्य यंत्र उपयोग नहीं किया जाता. गीत को महिलाएं ताली बजाकर गाती हैं तो कई बार आप उनके हाथ में लकड़ी के गिट्टक देखेंगे, जिन्हें आपस में लड़ाकर बजाते हुए महिलाएं पर नृत्य करती हैं. अब तो जमाना बदल रहा है तो आदिवासी गांवों में भी वाद्य यंत्र पहुंच रहे हैं. ऐसे में महिलाएं खड़ताली भी बजाती हैं और नृत्य करती हैं.
छत्तीसगढ़ से सौ साल पहले असम गए असमवासी छत्तीसगढ़िया भी इस नृत्य गीत परंपरा को अपनाए हुये हैं, हालाँकि वे सुवा नृत्य गीत में मांदर वाद्य का प्रयोग करते हैं जिसे पुरुष वादक बजाता है. सुवा गीत छत्तीसगढ़ी की आदिवासी परंपरा को खुद में जिंदा रखने वाली पिटारी की तरह है.