महान फिल्मकार रहे सत्यजीत रे की फिल्म "पाथेर पांचाली" में एक अमर दृश्य है. 1955 में रिलीज हुई इस फिल्म को रे की उत्कृष्ट कृतियों में से एक माना जाता है. फिल्म में, बच्चे अपू और दुर्गा काश के फूलों के खेत में भागते हुए दिखाए गए हैं. खेत से ट्रेन गुजर रही है. विशाल फैले हुए मैदान में दूर तक कास उगी हुई है और इसके खिले हुए सफेद फूल किसी श्वेत महासागर सा कैनवस रच रहे हैं. अपू और दुर्गा को ट्रेन की सीटी सुनाई देती है, तो वे उस ओर दौड़ पड़ते हैं. अब आप ये सीन देखिए. सफेद फूलों से लदे कास का दूर तक फैला हुआ मैदान और ट्रेन के धुएं से काला होता उजला आसमान.
ब्लैक एंड व्हाइट सिनेमा में श्वेत और श्याम का ऐसा अनूठा संगम सत्यजीत रे की सिनेमैटिक सोच की पहचान है. काश के फूल, जो आमतौर पर वर्षा ऋतु के अंत और शरद ऋतु की शुरुआत का प्रतीक होते हैं, फिल्म में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. सत्यजीत रे ने इस दृश्य को इतनी खूबसूरती से फिल्माया कि यह फिल्म का एक प्रतिष्ठित हिस्सा बन गया है.

गोस्वामी तुलसीदास ने श्रीरामचरित मानस में लिखा है "फूले कास सकल मही छाई, जनु बरसा कृत प्रकट बुढ़ाई "! यानी कास नाम की घास में फूल आ जाएं तो समझ लेना चाहिए कि वर्षा ऋतु का बुढ़ापा आ गया. यानी अब वर्षा के दिन समाप्त ही होने वाले हैं. कास फूल कहते है बांग्ला में. कास एक तरह की घास है जो कुशा प्रजाति की ही है, लेकिन इसमें सफेद रुई के फाहे नुमा फूल आते हैं.
कास के फूल वर्षा की विदाई के गीत गाते हैं और शरद ऋतु के आगमन की चिट्ठी लाते हैं. हालांकि ये मौका न शरद के आगमन का है और न वर्षा की विदाई का. वर्षा तो अभी भादों और आगे आश्विन-कार्तिक में भी होगी, लेकिन अब ये पावन, मनभावन, जिया जलावन सावन नहीं होगा. इसलिए सावन का जाना भले ही वर्षा का जाना नहीं है, लेकिन उल्लास का जाना तो है ही.
सावन का महत्व, जो बीरबल ने बताया
अकबर-बीरबल का एक मशहूर किस्सा है. बादशाह अकबर ने दरबार-ए-खास में सवाल उछाला, 12 में से एक गया क्या बचा? सभी दरबारियों-मंत्रियों, इल्म के जानकारों ने कहा, हुजूर- 12 में से 1 गया 11 रहा. बादशाह संतुष्ट नहीं हुआ. यही सवाल बीरबल से हुआ तो, उन्होंने कहा- हुजूर! 12 में से एक गया तो यों समझिए कुछ न बचा, सब लुट गया. बरबाद हो गया. बादशान ने पूछा वो कैसे? बीरबल ने कहा- बारह महीनों में से एक सावन का महीना निकाल दें तो क्या ही रहा, न खेती रही-किसानी रही, लगान गया सो अलग. जनता भूख से लुट जाएगी और बादशाही भी कितने दिन चलेगी.
बीरबल के जवाब से बादशाह सलामत खुश हुए और दरबारियों ने पहचानी सावन की कीमत और ताकत...
सावन, जो प्रेमिकाओं का शृंगार, प्रेम का ईंधन है, विरही की पुकार है और विरह की आग भी है. सावन विरोधाभासों का मौसम है. आषाढ़ के लगते-लगते जब ज्य़ेष्ठ की तपिश से तप्त धरती कुछ सिक्त हो चुकी होती है तब इसी कुछ गर्म-कुछ नम धरा को पूरी तरह डुबोने-भिगोने आता है सावन और क्या झूमकर आता है. दादुर (मेढक) बोल-बोल कर अपनी ही आवाज में मेघ देवता से पानी मांगते हैं.
टर्रटर्र... टर्रर्रर्र.. टर्र.. टर्रटर्र..

ध्यान से सुनिए तो कहते हुए सुनाई देंगे, ए पानी दे, दे ना पानी दे, दे दे ना, पानी दे... फिर फिर जो बादलों की ओर से बूंदों के बाण छोड़े जाते हैं तो क्या धरा-क्या गगन और क्या तन-मन. सब भीग जाते हैं, खिल जाते हैं और डूब जाते हैं. फिर इस भीगे मन में पहले अनुराग पनपता है, वही प्रेम में बदलता है, एक दीप्त सी अगन उठती है. फिर भड़कती है प्रतीक्षा की आग और इसके बाद दो ही बातें हो सकती हैं. या तो प्रेमी या प्रेमिका का सानिध्य मिले या फिर विरह की वेदना. जहां साथ पूरा हुआ वहां शृंगार के गीत बने और जहां विरह की वेदना उठी वहीं सावन के सुरों ने विरही को वाणी दी. वह गा उठी और उसकी आवाज में संसार की हर आवाज खो गई.
तुलसीदास से जानिए विरह की वेदना
विरह की वेदना क्या होती है, तुलसीदास से ही पूछी जानी चाहिए. वह सावन की ही बरसती-भीगती और जलती हुई रात थी. साहित्य के पन्ने स्त्रियों के विरही आंसू से तो खूब भीगे हैं, लेकिन पुरुष का विरह कुछ कम ही पन्नों में दर्ज हो पाया है. तुलसीदास की पत्नी रत्नावली मायके गई थीं. बाहर सावन पूरे वेग से बरस रहा था. कामदेव अपना जो काम वसंत में पूरा नहीं कर पाए थे वर्षा में करने पहुंचे थे. नौजवान तुलसी से रहा न गया. वह उसी बारिश में अपनी ससुराल को निकल पड़े. नाले उफान पर थे. नदी बाढ़ ले आई थी, लेकिन तुलसी विरह के रथ पर सवार थे. आज प्रेम से मिलन के मार्ग में कोई बाधा नहीं आ सकती थी.
तुलसीदास किसी तरह आधी रात को ससुराल पहुंचे, लेकिन अब घर के भीतर कैसे जाएं. सामने से तो जा नहीं सकते. लाज भी आती है, लेकिन प्रेम ने लाज पर विजय पायी. देखते क्या हैं कि रत्नावली के कमरे की खिड़की से रस्सी लटक रही है. तुलसी ने लपक कर रस्सी पकड़ी और खिड़की से भीतर दाखिल हो गए. भीतर दाखिल हुए ही थे कि देखते हैं, जिसे रस्सी समझ कर हाथ में पकड़े हैं वह विषधर नाग है. लेकिन प्रेम है तो डर कैसा? कबीर भी तो कहते हैं न कि 'राजा-प्रजा जेहि रुचे, शीष देई ले जाय...' तो विरह के मारे तुलसी तो उस रात शीष देने पर आमादा थे ही.

लेकिन रत्नावली ये देखकर बड़ी नाराज हुईं. बोल पड़ीं, इस मर जाने वाली, हड्डी-मांस-चमड़ी की देह से इतना लगाव कि आप ऐसी मूसलाधार झड़ी में यहां आ पहुंचे. ऐसी लगन श्रीराम में होती तो हम दोनों तर जाते.
अस्थि चर्म मय देह यह, ता सों ऐसी प्रीति,
नेकु जो होती राम से, तो काहे भव-भीत
इतना सुनना था कि तुलसी की आंखें खुल गईं. सावन की बूंदें जिन्होंने तन और मन जलाया था वो प्रेम से तपकर कुंदन बन गया. उसी दिन से प्रेम संपूर्ण हो गया. संसार छूट गया. पत्नी पीछे रह गईं और तुलसी बन गए गोस्वामी बाबा तुलसी दास. और तब श्रीराम के भक्त और रामचरित मानस के रचयिता बाबा तुलसी ने इसी मानस में सावन की महिमा में लिखा...
'बरसा रितु रघुपति भगति, तुलसी सालि सुदास।
रामनाम बर बरत जुग, सावन-भादव मास॥"
यानी- जैसे वर्षा ऋतु के कारण खेतों में धान की खेती लहलहाती है, वैसे ही श्रीराम की भक्ति की "बरसात" में भक्तों का हृदय प्रेम, श्रद्धा और रामनाम रूपी फसल से भर जाता है. रामनाम का जाप एक ऐसा व्रत है जो सभी युगों में कल्याणकारी है, और यह जीवन में सावन-भादों जैसी सुखद, शीतल और हरी-भरी अनुभूति देता है.
ये प्रसंग सावन की विरोधाभासी प्रकृति को साबित करता है. यह बताता है कि सावन जहां प्रेम की अग्नि जलाने वाला ईंधन है तो यही सावन विरह की बड़वाग्नि (जंगल की भयंकर आग ) भड़काने का जरिया भी है. नहीं विश्वास हो रहा है तो आप हिंदी फिल्मों के तमाम गीत सुनिए. ये अपने आप में सावन की संदर्भ-प्रसंग सहित व्याख्या बताने वाले साहित्य हैं. याद कीजिए नायक कैसे अपनी नायिका के साथ सड़क पर मदमत्त दौड़ लगा रहा है और गा रहा है,
रिमझिम गिरे सावन, सुलग-सुलग जाए मन
भीगे आज इस मौसम में लगी कैसी ये अगन
रिमझिम गिरे सावन...
इसी तरह एक और गीत की ओर बढ़िए
लगी आज सावन की फिर वो झड़ी है,
लगी आज सावन की फिर वो झड़ी है.
वही आग सीने में फिर जल पड़ी है
लगी आज सावन की फिर वो घड़ी है.
इसी तरह एक नायिका जो पहले से ही ये जानती है कि इस बार सावन आएगा तो आग लगेगी ही लगेगी, देखिए वह क्या कहती है.
अब के, सजन, सावन में
अब के, सजन, सावन में आग लगेगी बदन में
घटा बरसेगी, मगर तरसेगी नज़र
मिल ना सकेंगे दो मन एक ही आंगन में...

हिंदी फिल्मों के ये गीत सावन की बदमाशी को बखूबी समझते हैं और इसीलिए बताते हैं कि सावन भले ही मौसम की ठंडक, गर्मी से राहत और तमाम तरह की खुशियां लाया है, लेकिन ये इसका सिर्फ एक रूप है. इसका असली काम तो आग भड़काना ही है.
हालांकि, जिनका प्रेम पास रहा, सावन उनके लिए उल्लास बन के आया. झूले और कजरी के गीतों की सौगात लेकर आया. उनके प्रेम का पारावार न रहा जो सावन में साथ रहे. सावन ने उनके प्रेम को उल्लास से भर दिया. जो खुश थे, उन्हें मस्त कर दिया और जो पहले से ही मस्त थे उन्हें मदमस्त कर दिया. इतना कि वे सावन को ही कहने लगे कि वह बहुत शोर करता है.
सावन का महीना पवन करे शोर...
जियरा के झूम अइसे, जइसे बन मा नाचे मोर
एक ने तो यहां तक कह दिया, उसे सावन ने ही बुलाया है.
सावन के झूलों ने मुझको बुलाया
मैं परदेसी घर वापस आया
कांटो ने फूलो ने मुझको बुलाया
मैं परदेसी घर वापस आया
...लेकिन इन सबकी बीच उस नायिका को कैसे भूल सकते हैं जिसकी आवाज तो देश-विदेश भर के कार्पोरेट मजदूर प्रेमियों तक को भी झकझोर डालने की ताकत आज भी रखती है. प्रेमी वर्कलोड का ऐसा मारा है कि उसके लिए क्या जेठ और क्या सावन? तब नायिका ही उसे सावन की असली कीमत समझाती है और कहती है कि नौकरी-वौकरी तो दो टके की चीज है, असली बात तो सावन की है.
हाय हाय ये मजबूरी,
ये मौसम और ये दूरी
मुझे पल पल है तड़पाये
तेरी दो टकिया दी नौकरी में
मेरा लाखों का सावन जाये
हाय जाए, हां जाए...
प्रकृति का शृंगार है सावन
सावन सिर्फ प्रेम की अगन तक ही नहीं सीमित है. ये प्रकृति का भी शृंगार है. हर तरफ हरियाली छा जाती है. पत्ते धुले हुए से नहाए-धोए से लगने लगने लगते हैं और ये सब संयोग देखकर मनुष्य का हृदय भी हर्षित होने लगता है. जो कोयलें वसंत और गर्मी में अमराई में कूका करती थीं वे अब कदंब की डालियों पर डेरा जमा लेती हैं. स्त्रियां हरी साड़ी, मेंहदी, हरी चूड़ी में सज जाती हैं और खुद देवी प्रकृति की रूप रचना बन जाती हैं. इसी बात को देखिए भारतेंदु हरिश्चंद्र कितनी खूबसूरती से कहते हैं.
कूकै लगीं कोइलैं कदंबन पै बैठि फेरि
धोए-धोए पात हिलि-हिलि सरसै लगे।
बोलै लगे दादुर मयूर लगे नाचै फेरि
देखि के संजोगी-जन हिय हरसै लगे॥
हरी भई भूमि सीरी पवन चलन लागी
लखि 'हरिचंद' फेरि प्रान तरसै लगे।
फेरि झूमि-झूमि बरषा की रितु आई फेरि
बादर निगोरे झुकि झुकि बरसै लगे॥
सावन की ये महिमा सिर्फ इतने तक ही सीमित नहीं रही है. लोक में तो सावन बहुत पूजा गया है. वह भजन-कीर्तन और लोकगीतों में भी है खूब सजा है. अवधी की एक ठुमरी है, जिसमें प्रसंग ऐसा है कि सावन की ऋतु आ गई है. माता कौसल्या जिनकी आंखें राम के वनगमन से पथरा गई हैं और जो अब वैधव्य की चादर ओढ़े यूं ही खिड़की पर बैठी हैं. सहसा बादलों की गरज सुनकर उनका ध्यान भंग होता है, लेकिन इस ध्यान भंग में भी उनकी चिंता का विषय राम-सीता और लक्ष्मण ही हैं. वह सीता को कई बार अलग-अलग ढंग से याद करती हैं. उनकी इस दशा को इस ठुमरी में कैसे पिरोया गया है, बानगी देखिए...
सावन गरजे, भादौं बरसे
चललि पवन पुरवाई
कौन वृक्षतर भीजत हुइहैं
सीय सहित दोऊ भाई.
आज मोहें रघुवर की सुध आई...
शास्त्रीय रागों में सावन
सावन सिर्फ एक महीना नहीं है, जिसमें वर्षा ऋतु होती है. सावन भारतीय शास्त्रीय संगीत का प्रथम स्वर है. यह 'सा' यानी षडज की ध्वनि है. सारी शुरुआत ही इससे है. यही वजह है कि राग परंपरा में अनगिनत राग इस महीने और इसकी मुख्य वर्षा ऋतु को समर्पित हैं. कहते हैं कि बादशाह अकबर ने तानसेन से राग दीपक गाने की जिद की. तानसेन ने बादशाह की बात मानकर उसे गाया भी. राग के मध्य तक आते-आते दरबार के सारे दीपक जल उठे और उच्च बिंदु तक पहुंचते-पहुंचते खुद तानसेन का शरीर जलने लगा. सारे दरबार में आग भड़कने लगी. तब उनकी बेटी सरस्वती ने राग मेघ गाया, जिससे वर्षा हुई और सबकी प्राण रक्षा भी.

आज राग मेघ अपने शुद्ध स्वरूप में तो नहीं मिलता, लेकिन इसकी सुर लहरियों से सजे और रागवंश से कई राग मौजूद हैं, जिनमें एक है राग मेघ मल्हार. इस राग को बिना गमक के नही गाया जा सकता है. गमक राग गायन में वो कलाकारी है, जिनमें बड़ी ही तेजी से सांसों को घुमाते हुए एक स्वर के साथ दूसरा स्वर लगाते हुए राग का गायन करते हैं. हाल ही में ओटीटी पर आई एक वेबसीरीज बंदिश बैंडिट में जो 'गरज-गरज' राग आधारित गीत था, वह मेघ मल्हार पर ही बुना गया है. इसके अलावा राग दुर्गा, राग आसावरी और राग बिहाग भी सावन के वर्षा गीतों पर आधारित राग हैं, जो इस महीने को न सिर्फ अर्थ देते है बल्कि पूर्णता भी प्रदान करते हैं.
सावन सिर्फ एक महीना नहीं है. यह एक अहसास है. भावना है. सावन शिव का महीना है इसलिए सावन पूजा भी है. सावन का जाना, जीवन से उल्लास का जाना है. उत्सव की विदाई है. शायद यही वजह रही होगी कि सावन में यात्राएं नहीं की जाती हैं. बहाने प्रेमियों और साजन को रोक लिया जाता है. तरह-तरह के अपशकुन का भय दिखाते हैं. चातुर्मास का हवाला देते हैं. सावन में बेटियां मायके तो आती हैं, पर विदा नहीं की जाती हैं. आखिर सावन के जाने का ही दुख इतना है, बेटियां भी विदा हो गईं तो नैनों में दुख की बाढ़ न आ जावेगी... इसलिए ओ सावन... जाना चाहते हो. जाओ, लेकिन अगले वर्ष फिर आना, वही उल्लास, वही गीत और वही झड़ी लेकर... तुम्हें विदा....