घुप्प अंधेरे के बीच शंख ध्वनि सुनाई देती है और इसी के साथ मंच पर हल्की पीली रौशनी की झलक दिखाई देती है. ये पीली रौशनी सिर्फ लाइट की चमक नहीं है, ये वो जादू है जो दर्शकों की आंखों को 5000 साल पुराने युग की ओर ले चलने और उस समय के दृश्यों को देखने के लिए अभ्यस्त बनाने के लिए जरूरी है. क्षण भर की इस तैयारी के साथ ही मंच करुण संगीत से गूंज उठता है और धीमे कदमों से चलते हुए मंगलाचरण गाते हुए नट समूहों का कथा प्रवेश होता है.
नारायणं नमस्कृत्यं, नरं चैव नरोत्तमम्:,
देवीं सरस्वतीं व्यासम् ततो जयमुदीरयेत्.
इस मंगलाचरण के गान के साथ ही मंच पर महाभारत के महायुद्ध की आखिरी 18वीं सांझ का दृश्य स्थापित हो जाता है, जिसमें चारों ओर अंधकार ही अंधकार है. दृश्य में अंधकार, विचारों में अंधकार, अंधकारमय भविष्य और अंधकार से भरा हुआ वर्तमान. धृतराष्ट्र की आंखें नहीं हैं, गांधारी की आंखों पर पट्टी है, लेकिन परिस्थिति ऐसी है कि अब न तो विदुर को कुछ दीख-सूझ रहा है और न ही दिव्य दृष्टि वाले संजय को. अश्वत्थामा अपनी पाशविक हिंसा में अंधा है, कृपाचार्य निष्ठा में अंधे हैं और कृतवर्मा जबरन थोप दिए गए युद्ध के विषाद में अंधा है. ये सब जीवित हैं, लेकिन पल-पल मृत्यु मांग रहे हैं और इनकी देखने-समझने की बुद्धि चुक चुकी है. इस फैले हुए और सर्वव्यापी अंधेपन के कारण ही लेखक धर्मवीर भारती ने अपनी नाट्यकृति को 'अंधा युग' का नाम दिया था.

महाभारत के 18वें दिन की कथा
मौका था, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय रेपर्टरी कंपनी के समर थिएटर फेस्टिवल का, जिसके अंतर्गत, बुधवार को कालजयी नाटक अंधा युग का मंचन किया गया. प्रख्यात रंगनिर्देशक प्रो. राम गोपाल बजाज द्वारा निर्देशित यह काव्यात्मक और दार्शनिक नाटक महाभारत युद्ध के अंतिम दिन की घटनाओं को कहानी बनाकर सामने रखता है और घटनाओं के इन्हीं पदचिह्नों पर चलते हुए कहानी प्रभास क्षेत्र के उस तीर्थ पर जाकर समापन लेती है, जहां व्याध के तीर से आहत श्रीकृष्ण ने वैकुंठ गमन किया. यह नाटक नैतिक पतन, प्रतिशोध और हिंसा की कीमत किन मानव मूल्यों को देकर चुकानी पड़ती है, इस ओर न सिर्फ इशारा करता है बल्कि उदाहरणों के साथ बताता भी है कि शांति कितनी अनमोल है.
कलाकारों ने किया जीवंत अभिनय
एनएसडी रेपर्टरी के कलाकारों ने इस कथानक को अपने जीवंत अभिनय के जरिए मंच पर प्रस्तुत किया. बिक्रम लेप्चा ने अश्वत्थामा की भूमिका निभाई, सतीश कुमार, ने धृतराष्ट्र का किरदार निभाया, जबकि गांधारी की भूमिका में पोटशंगबम रीता देवी नजर आईं. मजीबुर रहमान, अनंत शर्मा, ताबिश खान, अंकुर, आलोक कुमार सहित कई अन्य कलाकारों ने भी सशक्त प्रस्तुतियां दीं, मंच पर गाए जा रहे कोरस के जरिए इन सभी ने नाटक को भावपूर्ण बनाया.
मणिपुर की हैं गांधारी का किरदार निभाने वाली रीता
यहां इस बात का खास जिक्र करना होगा कि इस नाटक के मंचन में दो प्रमुख किरदार अश्वत्थामा और गांधारी दोनों ही पूर्वोत्तर राज्यों के हैं, लेकिन मंच पर उनकी संवाद अदायगी देख आप विश्वास नहीं करेंगे कि यह दोनों कलाकार उत्तर भारतीय नहीं है. गांधारी का किरदार निभाने वाली पोटशंगबम रीता देवी ने इस बारे में बात की और बताया कि वह मूलरूप से मणिपुर की हैं. नाट्य विधा में उनका रुझान उन्हें NSD तक ले आया है. हालांकि सामान्य तौर पर बातचीत करते हुए यह पूरी तरह दिख रहा था कि वह मणिपुर की हैं, क्योंकि तब उनकी बातचीत में वहीं की झलक थी.
हिंदी उच्चारण सीखे, कई बार की प्रैक्टिस
मंच पर भाषा को लेकर आने वाली कठिनाई के सवाल पर रीता देवी कहती हैं कि 'शुरुआत में तो बहुत डर लगता था, कहीं कोई गड़बड़ न हो जाए, मैं इस नाटक के एक-एक शब्द को बहुत-बहुत बार बोलकर प्रैक्टिस करती रही हूं. बहुत सारे कठिन शब्द इस नाटक के संवाद में हैं, जैसे पश्चाताप, संधान, निश्चित, युयुत्सु, युधिष्ठिर, अश्वत्थामा, मैंने इन्हें सही उच्चारण में बोलना सीखा और फिर इनके रिदम और भाव को भी समझा.

मंच पर बंद रहती है आंखें, सिर्फ सिचुएशन को महसूस करके निभाती हैं किरदार
नाटक के शुरुआती दृश्य में एक सिचुएशन आती है, मेरी आंखों पर पट्टी बंधी है, मैं सिंहासन पर बैठी हूं, विदुर युद्ध के बारे में कुछ बता रहे हैं और उनकी आधी ही बात सुनकर मुझे गुस्सा होना है, ये सीन सबसे मुश्किल होता है मेरे लिए. मुश्किल इसलिए क्योंकि मेरा डॉयलॉग कुछ देर बाद आने वाला है, लेकिन मुझे विदुर के संवाद के कुछ देर बाद से ऐसी भाव भंगिमा बनानी शुरू कर देनी होती है, ताकि उससे दर्शकों को लगे कि मैं असहज हो रही हूं, मुझे गुस्सा आ रहा है. फिर अपना संवाद बोलते-बोलते विदुर के मुंह से जैसे ही 'माता' शब्द निकलता है, मैं लगभग फट पड़ने के अंदाज में चीखती हुई कहती हूं कि माता मत कहो मुझे विदुर, तुम्हारा वह प्रभु भी मुझे माता कहता है.
याद रह जाता है गांधारी का किरदार
गांधारी के किरदार के बारे में बताते हुए रीता कहती हैं कि अंधा युग में गांधारी के पास केवल दो-चार ही प्रमुख संवाद हैं, लेकिन ये किरदार अपने गम, गुस्से, ममता और प्रतिशोध के कारण सबसे जरूरी और सबसे खास बन जाता है और ऐसा लगता है कि ये लीड कैरेक्टर है. ऐसा इसलिए क्योंकि गांधारी के हिस्से वो काम आया है, जिसे कोई और नहीं करता है. वह कृष्ण से लोहा लेने की बात करती है और उन्हें श्राप भी देती हैं. आप इस नाटक के पुराने मंचनों को देखेंगे तो पाएंगे कि सफेद बालों को बिखेरे हुए और हाथ उठाकर कृष्ण को श्राप देने की मुद्रा में खड़ी गांधारी इस नाटक की आइकॉनिक तस्वीर है और इस किरदार को थिएटर की कई बड़ी हस्तियों ने अमर बनाया है.
हालांकि रीता थोड़ा अफसोस भी जाहिर करती हैं और कहती हैं कि काश! मैं इसी तरह का नाट्य प्रदर्शन अपने राज्य-अपने गांव में भी कर पाती, मेरे अपने लोग यहां नहीं होते हैं तो उनकी भी याद आती है.
आज भी क्यों प्रासंगिक है अंधा युग
नाटक को लिखे हुए दशकों का समय बीत चुका है. सदी बदल चुकी है, डिजिटल दौर आ चुका है, लेकिन जब भी आप आज के दौर को देखें और इसकी घटनाओं का नाटक के कथानक से मिलान करें तो सोचिए कि आखिर क्या बदल गया है? हम हैं तो अभी भी वहीं के वहीं. मानव के भीतर बसने वाले अहंकार के पशु से जूझते और संघर्ष करते हुए. बस तरीका ही तो थोड़ा बदला है.
मौजूदा दौर में जब दुनिया युद्ध के माहौल से गुजर रही है. एक तरफ रूस-यूक्रेन का युद्ध जारी है, हाल ही में इजरायल-ईरान के बीच संघर्ष रुका है और परमाणु शक्ति को लेकर विश्व के तमाम देशों के बीच टकराव की स्थिति बनी हुई है तो अंधा युग के नेपथ्य से महामुनि व्यास की जो आवाज आती है कितनी सार्थक लगती है.
परमाणु युद्ध और ब्रह्मास्त्र के विनाश में समानता
वह ब्रह्मास्त्र का संधान करने वाले अश्वत्थामा पर चीखते हैं और कहते हैं कि... 'ज्ञात क्या तुम्हें है परिणाम इस ब्रह्मास्त्र का? इस लक्ष्य से सदियों तक पृथ्वी पर रसमय वनस्पति नहीं होगी. शिशु होंगे पैदा विकलांग और कुष्ठग्रस्त, सारी मनुष्य जाति बौनी हो जायेगी. सारा ज्ञान विलीन हो जाएगा, गेहूं की बालों में सर्प फुफकारेंगे और नदियों में बहेगा केवल लावा पिघली आग.'
व्यास का यह वचन भले ही 5000 साल पहले का हो, लेकिन द्वितीय विश्व युद्ध में नागासाकी और हिरोशिमा पर जो परमामु बम गिरे और उससे जो विनाश हुआ, महामुनि व्यास की कही हुई एक-एक पंक्तियां सच साबित हुईं.

आज के दौर का दर्पण है अंधा युग
अंधा युग आज के इसी दौर का आईना है. इसी तरह इस नाटक में एक समय धृतराष्ट्र कहते हैं, 'लौट गए सारे सैनिक अपने-अपने शिविर को, जीता कौन और हारा कौन?' यह संवाद आज के युद्धों की विडंबना को उजागर करता है. संयमित दृश्य डिज़ाइन, प्रभावशाली संगीत और प्रतीकात्मक कथा शैली के साथ यह मंचन समकालीन दर्शकों के लिए बेहद प्रासंगिक साबित होता है. पूरे नाटक में कृष्ण की मौन उपस्थिति और सिर्फ नेपथ्य से ही उनकी मौजूदगी एक अलग ही देवत्व का अहसास कराती है. नेपथ्य से ही बोला गया श्रीकृष्ण का संवाद, जो क्षुब्ध गांधारी के शोक को कम करता है, वह दिव्य और अतुलनीय है, साथ ही किसी गीता ज्ञान से कम नहीं है.
गीता के एक अध्याय में श्रीकृष्ण अर्जुन को बताते हैं कि वह विश्व में किस-किस रूप में शामिल हैं और क्या-क्या हैं, अंधा युग में वही कृष्ण गांधारी से शापित कृष्ण और युद्ध के महानायक कृष्ण यहां नत भाव लिए गांधारी को बताते हैं कि वह क्या हैं और उन्हें किस रूप में देखना चाहिए.
शापित कृष्ण अपनी उसी मुरली मनोहर आवाज में कहते हैं...
'माता !
प्रभु हूं या परात्पर
पर पुत्र हूं तुम्हारा, तुम माता हो !
मैंने अर्जुन से कहा
सारे तुम्हारे कर्मों का पाप-पुण्य, योग-क्षेम
मैं वहन करूंगा अपने कंधों पर
अट्ठारह दिनों के इस भीषण संग्राम में
कोई नहीं केवल मैं ही मरा हूं करोड़ों बार
जितनी बार जो भी सैनिक भूमिशायी हुआ
कोई नहीं था, वह मैं ही था
गिरता था घायल होकर जो रणभूमि में
अश्वथामा के अंगों से
रक्त, पीप, स्वेद बनकर बहूंगा
मैं ही युग-युगांतर तक
जीवन हूं मैं, तो मृत्यु भी तो मैं ही हूं मां !
शाप यह तुम्हारा स्वीकार है...
प्रभु हूं या परात्पर, पर पुत्र हूं तुम्हारा, जब तक जीवित हूं मैं पुत्रहीना नहीं हो तुम माता.
श्रीकृष्ण की यह वाणी अंतःकरण को भेदती है और नैतिक कर्तव्य की याद दिलाती है, वह भी ऐसे समय में जब संसार अंधकार से घिरा हुआ लग रहा है. युद्धों में फंसा हुआ है और जहां द्वेष ही मनुष्य का स्थायी स्वभाव है तो यह सवाल करता है कि आखिर यह 'अंधा युग' कब समाप्त होगा? क्या कभी होगा भी या नहीं... पर्दा गिरता है.