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सिर्फ पूजा नहीं सत्याग्रह भी हैं मीरा के भजन... मीरायतन में झलका भक्ति और नारी चेतना का संगम

मीरा के चरित्र को सिर्फ एक भक्त और कवि के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए, उन्हें यह भी नहीं मानना चाहिए कि वह केवल कृष्ण पुजारिन थी. मीरा अपने जमाने की रूढ़ियों और रीतियों का विरोध कर रही थीं और बड़े ही सुरीले अंदाज में कर रही थीं. मीरा की भक्ति मीरा का अबोला सत्याग्रह था, जिसे बाद में भारतीय इतिहास में हुई क्रांति का प्रथम बीज मानना चाहिए. 

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मीरा के जीवन दर्शन की झलक है मीरायतन
मीरा के जीवन दर्शन की झलक है मीरायतन

बात जब भक्तिकाल की कवि परंपरा की होती है तो, सूर, तुलसी समेत अष्टछाप के कवियों के नाम खास तौर पर लिए जाते हैं. नामों की इसी बड़ी भीड़ के बीच भक्ति की ऐसी भी कमलिनी खिलती और सुवासित होती दिखाई देती है, जिसकी लीक भी अलग और राह भी. वह अपनी ही बनाई पगडंडी पर केसरिया चीवर पहने, हाथ में इकतारा थामे चली जा रही है. कान लगाकर सुनिए तो सिर्फ एक ही आवाज सुनाई देगी...

'मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई...'

वीरभूमि राजस्थान का आंगन सरीखा है मेवाड़, जहां की ललनाओं ने कई वीरों को अपनी कोख से जाया तो उसी कोख से नवधा भक्ति की ऐसी धारा भी जन्मी, जिसके अमृत तुल्य जल से सारे भारत की धरती सिंचित है. मेवाड़ की इस भक्ति रत्न प्रभा का नाम है मीरा, और भक्तिकाल के महत्वपूर्ण व्यक्तित्वों और रचनाकारों में मीरा का नाम गर्व और आदर के साथ लेना स्वाभाविक ही है.

कमानी ऑडिटोरियम में मीरायतन की प्रस्तुति
मीराबाई की इसी रचना धर्मिता को बीते दिनों आवाज दी मेवाड़ विश्वविद्यालय की नई उभरती प्रतिभाओं ने, जिन्होंने अपनी गुरु कुंजलता मिश्रा के सान्निध्य में ' नृत्य नाटिकाः मीरायतन' का मंचन किया. मीरायतन, केवल मीरा के जीवन चरित्र की प्रस्तुति का माध्यम नहीं था, बल्कि ये उस दौर की महिला सशक्तिकरण और सच्चे नारीवाद की परिकल्पना का एक दृश्य-सजीव हस्ताक्षर भी था. जहां भक्ति की स्वतंत्रता, स्त्रीत्व की स्वतंत्रता, वैचारिक स्वतंत्रता और राजघराने की मजबूरियों से परे एक व्यक्ति की स्वतंत्रता को आवाज भी मिली, स्वर भी मिले, कंठ भी और आखिर में ही सही, लेकिन मान्यता भी मिली. 

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Meera

मीरा को उस श्रृंखला के सभी नामी व्यक्तित्वों में अलग भी खड़ा पाया जाता है. ऐसा इसलिए कि पहले–पहल तो वह एक स्त्री थीं जबकि उस समय के बाकी सभी कवि पुरुष थे और दूसरा कारण यह है कि मीरा एक साधन–संपन्न, राजकीय वर्ग में जन्मीं और पली–बढ़ीं थी, जिस दुनिया को त्याग कर उन्होंने भक्ति मार्ग को चुना. यह त्याग न ही उन्हें बाकी सबसे अधिक महान बनाता है और न ही उनकी पृष्ठभूमि उन्हें किसी से कम बनाती है. उनकी कहानी इसलिए खास है कि वह एक राजकुमारी थीं जिसने ठान लिया तो वह एक जोगन बनके ही मानी. 

कमानी ऑडिटोरियम उनकी इसी आस्था, भक्ति, दृढ़ संकल्प और कृष्ण प्रेम में डूबे रसीले भजनों की प्रस्तुति का गवाह बना. लोकसंस्कृति की परम्परा में बंधी हुई इस नृत्य नाटिका के मंचन ने दर्शकों को मोह लिया. 

नृत्य नाटिका, में भाव, कला और कल्पनाशीलता का अनूठा प्रयोग
इस नृत्य नाटिका का निर्देशन किया था कुंजलता मिश्रा ने और इसमें अन्य कलाकारों ने भी अपनी भूमिकाएं बहुत खूबसूरती से मंच पर उकेरी. शुरुआत से लेकर अंत तक एक रिकॉर्डिंग में चले इस नाटक में गीत–संगीत से लेकर नृत्य और संवाद तक सभी निरंतर एक पूर्व रिकॉर्ड किये गए ट्रैक पर चलाए गए जिन पर सभी कलाकारों ने लिप–सिंक (यानी उन गीतों और संवादों के साथ तारतम्य में होंठ चलाना) किया. बिना रुके चलने वाली लगभग डेढ़ घंटे की इस प्रस्तुति में बिना रुके और बिना गलती किए अभिनय एवं नृत्य करना बेहद चुनौतीपूर्ण रहा होगा, लेकिन सभी कलाकारों ने इसमें परिपक्वता और कौशल का परिचय दिया.
 
नृत्य नाटिका का आयोजन अपनेआप में एक चुनौती है और उस पर एक शासकीय वर्ग की कहानी को प्रस्तुत करना और भी कठिन हो जाता है. इसमें न सिर्फ कुशल नृत्य निर्देशन की, बल्कि साथ ही भव्यता का ध्यान रखने की भी जरूरत होती है. मंच परिकल्पना से लेकर प्रकाश परिकल्पना तक, कलाकारों की संख्या से लेकर उनकी पोशाकों तक और छोटे–बड़े सभी वस्तुओं यानी प्रॉप्स के जरिए भव्यता का एहसास देना, मंच का एक अलग ही कला कौशल है, और उसकी सराहना अलग से ही होनी चाहिए.

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लोककथाओं में एक अहम भूमिका होती है कथावाचक की जो कहानी को एक ऐतिहासिक किंवदंती के रूप में दर्शकों को सुनाता है. इस भूमिका में थीं,  प्राची और अदिति अग्रवाल.
जिन्होंने इसे अपने नृत्य और अभिनय द्वारा कुशलतापूर्वक निभाया और पूरी प्रस्तुति को एक सूत्र में पिरोये रखा. अभिनय से अधिक इस प्रस्तुति में नृत्य की भूमिका थी. पारंपरिक नृत्यों से भरपूर इस प्रस्तुति में सभी कलाकारों का एक-दूसरे के साथ समन्वय और संयोजन बहुत रोचक था.

बदले हुए प्रारूप में मीरा की प्रसिद्ध कहानी 

मीरा की भूमिका में खुद ही कुंजलता मिश्रा थीं. ओडिसी नृत्य में प्रशिक्षित कुंजलता ने शुरू से अंत तक कभी अकेले तो कभी पूरे समूह के साथ निरंतर अभिनय किया जिसमें नृत्य की मात्रा अधिक थी. इस प्रकार लगातार इतनी देर तक नृत्य करते रहना और फिर भी विशेष अवसरों पर सटीक अभिनय भी करना उनकी बड़ी उपलब्धि थी जिसे दर्शकों ने तालियों से खूब सराहा. निर्देशन की खास बात थी कि सभी प्रकारों से, फिर चाहे कलाकारों के माध्यम से या फिर संगीत द्वारा, मंच पर फैले नृत्य प्रस्तुतियों द्वारा या फिर रंगारंग प्रकाश के द्वारा, मंच को भर दिया गया था.
 
मीराबाई की कहानी बचपन से लेकर बड़े तक वैसे तो सभी ने सुनी है. इस कहानी का रूप और प्रारूप भी कहने वाले के अनुसार बदल जाता है. कोई मीरा के आध्यात्मिक पक्ष को उजागर करता है तो कोई उनके परंपराओं और रूढ़ियों के विरुद्ध चलने वाले रूप को उभारता है. इस प्रस्तुति में उनके कई रूपों का समावेश था. भक्तिकाल के सभी व्यक्तित्वों की यही खास बात है कि वे ईश्वर को मानते हुए समाज की कई परंपराओं का खंडन करते हैं. कुंजलता बताती भी हैं, मीरा के चरित्र को सिर्फ एक भक्त और कवि के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए, उन्हें यह भी नहीं मानना चाहिए कि वह केवल कृष्ण पुजारिन थी. मीरा अपने जमाने की रूढ़ियों और रीतियों का विरोध कर रही थीं और बड़े ही सुरीले अंदाज में कर रही थीं. मीरा की भक्ति मीरा का अबोला सत्याग्रह था, जिसे बाद में भारतीय इतिहास में हुई क्रांति का प्रथम बीज मानना चाहिए. 

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नृत्य नाटिका में सास की भूमिका रोचना शर्मा ने, ननद की भूमिका दिव्यांजलि मिश्रा ने, राणा, भोजराज और जीव गोस्वामी की भूमिका जय सिंह ने, दासी की भूमिका पावनी सिंह ने, शिष्य और दयाराम की भूमिका प्राची ने, उदा बाई की भूमिका नीतू सिंह ने, कृष्ण की भूमिका आनंदिनी सिंह ने और बालिका मीरा की भूमिका श्रीप्रिया गोस्वामी ने निभाई.

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