पर्यावरण एक्टिविस्ट आरोप लग रहे हैं कि सरकार की नई परिभाषा से अरावली के बड़ा हिस्सा खनन और निर्माण के लिए खुल जाएगा. पहले जानते हैं इन सवालों और चुनौतियों को...
अब इन सवालों पर सरकार की तरफ से पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव ने स्पष्टीकरण देने की कोशिश की, लेकिन कुछ सवालों पर उनके जवाब संतोषजनक रहे, तो कुछ पर अधूरे.
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मंत्री ने कहा कि जब तक साइंटिस्ट अपना प्लान नहीं बना लेते हैं, तब तक अरावली में कोई नई खनन लीज नहीं दी जाएगी. कुल 1.44 लाख वर्ग किमी अरावली में सिर्फ 0.19% हिस्सा ही खनन के लायक है. उसमें भी सिर्फ विशेष और वैज्ञानिक कारणों से अनुमति मिलेगी, जैसे रणनीतिक खनिज या परमाणु ऊर्जा की जरूरत. रियल एस्टेट के लिए कोई छूट नहीं. यहां मंत्री का जवाब संतोषजनक था. खनन की आशंकाओं को काफी हद तक दूर किया.
नया नियम अवैध खनन रोकने और कानूनी रूप से सतत खनन की अनुमति देने के लिए हैं. ड्रोन से सख्त निगरानी होगी. यहां मंत्री का जवाब अधूरा था. अवैध खनन कैसे रोका जाएगा, इस पर सीधा जवाब नहीं दिया. इसके बजाय कांग्रेस पर आरोप लगाया कि राजस्थान में पहले की सरकार ने अवैध खनन होने दिया जा रहा है.
अभी सिर्फ 217 वर्ग किमी में ही खनन संभव है. नई परिभाषा में पहाड़ी का आधार, ढलान और जुड़े इलाके भी संरक्षित होंगे, सिर्फ ऊंचाई ही नहीं देखी जाएगी. असल में यह सही जवाब नहीं है. कितनी पहाड़ियां संरक्षित रहेंगी और कितनी प्रभावित होंगी, इस पर कोई स्पष्ट संख्या नहीं दी मंत्री ने. 2010 की फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया रिपोर्ट के मुताबिक, करीब 12,000 पहाड़ियों में सिर्फ 8% ही 100 मीटर से ऊंची हैं. बाकी 92% का क्या होगा?
अरावली में लंबे समय से अवैध खनन की समस्या रही है. 1990 के दशक से पर्यावरण मंत्रालय ने खनन पर सख्त नियम बनाए. सिर्फ मंजूर परियोजनाओं को ही अनुमति दी, लेकिन इन नियमों का खुलेआम उल्लंघन होता रहा. 2009 में सुप्रीम कोर्ट ने हरियाणा के फरीदाबाद, गुरुग्राम और मेवात जिलों में खनन पर पूरी तरह रोक लगा दी.
मई 2024 में कोर्ट ने अरावली रेंज में नए खनन लीज या पुराने परमिट को रिन्यू करने को मना कर दिया. सेंट्रल एम्पावर्ड कमिटी (CEC) को पूरा अध्ययन करने को कहा. CEC ने मार्च 2024 में अपनी सिफारिशें दीं.
सभी राज्यों में अरावली की पूरा वैज्ञानिक मैपिंग हो. खनन से पर्यावरण पर होने वाले प्रभाव की जांच हो. संवेदनशील इलाकों में खनन पर पूरी रोक – जैसे संरक्षित जंगल, जल स्रोत, टाइगर कॉरिडोर, एक्विफर रिचार्ज जोन और दिल्ली-एनसीआर क्षेत्र. स्टोन क्रशिंग यूनिट्स पर सख्त नियंत्रण होना चाहिए. सही मैपिंग और अध्ययन पूरा होने तक कोई नई लीज या रिन्यूअल नहीं होगा.
नवंबर 2025 में सुप्रीम कोर्ट ने इन सिफारिशों को आदेश में शामिल किया. जून 2025 में केंद्र सरकार ने अरावली ग्रीन वॉल परियोजना शुरू की. इसका लक्ष्य गुजरात, राजस्थान, हरियाणा और दिल्ली के 29 जिलों में अरावली के 5 किमी बफर जोन में ग्रीनरी बढ़ाना है. इससे 2030 तक 2.6 करोड़ हेक्टेयर खराब जमीन को ग्रीन करने में मदद मिलेगी.
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चारों राज्य यानी गुजरात, राजस्थान, दिल्ली और हरियाणा सभी अरावली की पहचान के लिए अलग-अलग नियम का इस्तेमाल कर रहे थे. यानी अपने हिसाब से परिभाषा गढ़ रखी थी. फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया (FSI) ने 2010 में कहा था कि ढलान 3 डिग्री से ज्यादा होनी चाहिए. पहाड़ी के आधार से 100 मीटर का इलाका बफर जोना होना चाहिए. पहाड़ियों के बीच 500 मीटर दूरी और चारों तरफ से घिरा इलाका ही अरावली कहलाएगा.
इसे सुलझाने के लिए कोर्ट ने एक कमिटी बनाई, जिसमें पर्यावरण मंत्रालय, राज्य वन विभाग, जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया, FSI और CEC के सदस्य थे. कमेटी ने अक्टूबर 2025 में रिपोर्ट दी और कहा कि स्थानीय जमीन से 100 मीटर ऊंची पहाड़ियां ही अरावली मानी जाएंगी. अगर दो या ज्यादा ऐसी पहाड़ियां 500 मीटर के दायरे में हों, तो उनके बीच की जमीन भी अरावली में मानी जाएगी.
अमिकस क्यूरी के. परमेश्वर ने इसका विरोध किया. उनका कहना था कि यह परिभाषा बहुत अधकचरी है. 100 मीटर से नीची पहाड़ियां खनन के लिए खुल जाएंगी, जिससे अरावली की कॉन्टीन्यूटी खतरे में पड़ जाएगी. लेकिन अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल ऐश्वर्या भाटी ने कहा कि FSI वाली ढलान-बफर वाली परिभाषा तो और भी बड़े इलाके को अरावली से बाहर कर देगी. 100 मीटर वाली परिभाषा ज्यादा समावेशी है.
कोर्ट ने पूरे अरावली के लिए सस्टेनेबल माइनिंग मैनेजमेंट प्लान (MPSM) बनाने को कहा. इस प्लान में...
यह आदेश अरावली की सुरक्षा और लगातार हो रहे विकास के बीच संतुलन बनाने की कोशिश है. अब सबकी नजर इस बात पर है कि राज्य और केंद्र इन निर्देशों को कितनी ईमानदारी से लागू करते हैं.
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वैज्ञानिक ए. सिकरवार कहना है कि अरावली वाले चारों राज्यों में माइनिंग क्लियरेंस होती है. सबकी अलग-अलग गाइडलांइस है. वो एक होनी चाहिए. जो अभी तक नहीं है. ये काम पर्यावरण मंत्रालय करेगा. अब देखिए राम मंदिर जिन लाल पत्थरों से बना है, ये वहीं से आए हैं. जितने भी लाल पत्थर आते हैं, अरावली से आते हैं.
उन्होंने कहा कि अनलिमिटेड अवैध खनन हो रहा है. कम से कम एक साल में इसमें खनन नहीं होना चाहिए. 100 मीटर की परिभाषा बदलनी चाहिए. 30 मीटर के नीचे खनन होना चाहिए, उससे ऊपर एकदम नहीं. जो 1048 चोटियां 100 मीटर के ऊपर हैं, उन्हें इकोसेंसिटिव जोन बनाना चाहिए.
आगे जोड़ते हुए उन्होंने कहा कि समझ ये नहीं आता कि ऊंचाई जमीन से कैसे जोड़ी जा रही है. हमारे यहां शहर, रेलवे स्टेशन समेत पूरी दुनिया पहाड़ों और पहाड़ियों की ऊंचाई समुद्र तल से नापी जाती है. अरावली की ऊंचाई भी समुद्र तल से नापी जानी चाहिए. जमीन से नहीं. क्योंकि जमीन की सतह बदलती रहती है.
हर पहाड़ी के नीचे ऊंचाई, लैटीट्यूड-लॉन्गीट्यूड और जियोग्राफिकल पोजिशन वाला बोर्ड लगा होना चाहिए. ताकि लोगों में जागरुकता फैले. टोपोलॉजी के लिए सैटेलाइट इमेजरी होनी चाहिए. ये इमेजरी इसरो (ISRO) के निसार सैटेलाइट से हो सकती है. वो इमेजरी सरकार के पास रिजर्व होनी चाहिए. ताकि ये पता चल सके कि क्या स्टेटस है पूरे अरावली की.
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भूगर्भशास्त्री और प्रो. नितीश प्रियदर्शी ने कहा कि 250-300 करोड़ साल पुराने अरावली का कई जगहों पर अब सिर्फ अवशेष बचा है. यह एक रेसीड्युल माउंटेन रेंज है. इसने भारत और भारतीय महाद्वीप के कई साक्ष्य अपने में बचाकर रखा है. इसमें करोड़ों साल का इतिहास है. अगर ये नहीं रहा तो थार रेगिस्तान फैलेगा. ये एक प्राकृतिक बैरियर है.
ये खत्म हुआ तो वाटर क्राइसिस होगा. जैसे हिमालय बर्फ और सर्दी रोकता है, वैसे ही ये रेगिस्तान को रोकता है. इसे बचाकर रखना जरूरी है. नेचर में हर चीज का महत्व है. यहां बायोडायवर्सिटी के बड़ा इलाका है. गर्म हवा आएगी. अगर सब समतल होगा तो दूसरी पहाड़ी भी गिरेगी. ब्लास्ट करेंगे तो नींव हिलेगी. वह जर्जर होगा. फिर ढह जाएगा. मतलब पूरी पर्वतमाला खत्म हो जाएगी. उसे कौन मॉनीटर कौन करेगा?
ऋचीक मिश्रा