मगही नाम सुनते ही जेहन में एक तस्वीर उभरती है, पान की. बिहार कोकिला शारदा सिन्हा को मगही पान इतने पसंद थे कि एक बार उन्होंने पान खाकर गाया था- '...पान खाए सैयां हमार'. चटख हरे रंग की मगही पान की पत्ती में रेशे कम होते हैं और ये इतनी घुलनशील होती है कि मुंह में रखे-रखे ही घुल जाए. कुछ ऐसी ही तासीर है मगही पॉलिटिक्स की भी.
मगध के लोग जिस राजनीतिक दल के साथ हो लें, समझिए उसका रंग बिहार की सियासत में चटख हो जाए. कभी राष्ट्रीय जनता दल का गढ़ रहा ये इलाका 'सुशासन बाबू' नीतीश कुमार के उभार के बाद उनकी अगुवाई वाले जनता दल (यूनाइटेड) और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) का मजबूत गढ़ बन गया. बिहार सीरीज में आज बात करते हैं इसी मगध क्षेत्र की, मगही भाषा बोलने वाले क्षेत्र की राजनीति की.
मगध क्षेत्र में ये इलाके
बिहार के मगध क्षेत्र की बात करें तो इस नाम से एक प्रमंडल भी है. मगध प्रमंडल में पांच जिले आते हैं गया, अरवल, जहानबाद, औरंगाबाद और नवादा. मगध प्रमंडल के इन पांच जिलों के साथ ही नालंदा, पटना, शेखपुरा, लखीसराय और जमुई में भी मगही बोली जाती है. बांका जिले के कुछ हिस्से भी मगध क्षेत्र में रखे जाते हैं. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार खुद भी नालंदा जिले से ही आते हैं. सूबे के पहले मुख्यमंत्री श्री बाबू (बाबू श्रीकृष्ण सिंह) का शेखपुरा और पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी का गया जिला भी मगध में ही आता है. मगध प्रमंडल के पांच जिलों की ही बात करें तो यहां विधानसभा की 26 सीटें हैं.
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एनडीए ने 2010 में भेद दिया था आरजेडी का किला
मगध की बात करें तो ये इलाका कभी लालू यादव की अगुवाई वाले राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) का गढ़ हुआ करता था. आरजेडी की सत्ता से विदाई के बाद इस इलाके में एनडीए जड़ें जमाने में कामयाब रहा. साल 2010 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी-एनडीए की लहर इस कदर चली कि मगध प्रमंडल में आरजेडी महज एक सीट पर सिमट गई थी. तब बेलागंज से जीते सुरेंद्र प्रसाद यादव मगध प्रमंडल के इकलौते आरजेडी विधायक थे. एक सीट से निर्दलीय उम्मीदवार को जीत मिली थी और बाकी 24 सीटें एनडीए के खाते में गई थीं.
गठबंधनों के गणित के साथ बदली आरजेडी की किस्मत
साल 2015 के विधानसभा चुनाव में गठबंधनों का गणित बदला. नीतीश कुमार की जेडीयू और आरजेडी गठबंधन कर चुनाव मैदान में उतरे. नतीजा ये हुआ कि मगध प्रमंडल की 26 सीटों में से 10 पर आरजेडी, छह पर जेडीयू और चार पर कांग्रेस को जीत मिली. बीजेपी पांच और जीतनराम मांझी की पार्टी एक ही सीट जीत सकी थी. 2020 में गठबंधनों का गणित फिर बदला लेकिन आरजेडी ने मगध की राजनीति पर अपनी पकड़ बरकरार रखी.
2020 में भी आरजेडी ने बचाया मगध का किला
बिहार के पिछले चुनाव (2020) में नीतीश कुमार के फिर से एनडीए के साथ जाने से फिर सीन बदला लेकिन आरजेडी ने मगध का किला बचा लिया था. औरंगाबाद, जहानाबाद, अरवल में तो एनडीए का खाता भी नहीं खुल सका और महागठबंधन ने सभी 11 सीटें जीत लीं. 10 सीटों वाले गया में जीतनराम मांझी की पार्टी ने तीन सीटें जीतीं और दो सीटों पर कमल खिला.
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पांच सीटें एनडीए को मिलीं तो पांच सीटें जीतकर महागठबंधन ने भी बराबरी की टक्कर दी. नवादा की वारिसलीगंज सीट पर कमल खिला था और बाकी चार सीटें महागठबंधन के खाते में गई थीं. कुल मिलाकर मगध प्रमंडल की 26 में से 20 सीटें जीतकर महागठबंधन ने मगध का किला बचा लिया था. एनडीए को छह सीटों पर जीत मिली लेकिन नीतीश कुमार की जेडीयू इस बेल्ट में खाली हाथ रह गई थी.
मगध की सियासत पर झारखंड और बंगाल का भी असर
मगध की सियासत पर झारखंड और पश्चिम बंगाल की सियासत का भी असर नजर आता है. झारखंड में हजारीबाग, पलामू, चतरा, कोडरमा, जामताड़ा, बोकारो, धनबाद, गिरीडीह, देवघर, गढ़वा, लातेहार और पश्चिम बंगाल के मालदा जिले में भी मगही बोलने वालों की तादाद अच्छी खासी है. झारखंड और पश्चिम बंगाल से भाषायी जुड़ाव है ही, मगध क्षेत्र का आर्थिक और सांस्कृतिक जुड़ाव भी गहरा है.
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पलायन और पहचान जैसे मुद्दों की वजह से भी इन दोनों राज्यों के राजनीतिक घटनाक्रमों की छाप मगही पॉलिटिक्स पर देखने को मिलती है. झारखंड सरकार की ओर से भोजपुरी और मगही को क्षेत्रीय भाषाओं की सूची से बाहर निकालने के फैसले के बाद हेमंत सोरेन के बयान को आधार बनाकर नीतीश कुमार की पार्टी आरजेडी पर हमलावर हो गई थी. इसे भी मगही पॉलिटिक्स से जोड़कर ही देखा गया.
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