
अफगानिस्तान दुनिया का चौथा सबसे खतरनाक देश है. माइनॉरिटी राइट्स ग्रुप इंटरनेशनल की ओर से जारी किए गए 'पीपल्स अंडर थ्रेट इंडेक्स' ने पिछले साल ये बात कही थी और इसकी वजह बताई थी- अफगान के वॉरलॉर्ड्स के नेतृत्व वाले विभिन्न जातीय और आदिवासी समूहों के बीच हिंसक प्रतिस्पर्धा. काबुल में सरकार कोई भी बने, उसमें वॉरलॉर्ड्स की भूमिका अहम होती है.
काबुल पर दो हफ्ते पहले कब्जा कर लेने के बावजूद तालिबान अफगानिस्तान में अभी तक सरकार नहीं बना पाया है. इस समस्या का एक कारण तालिबान खुद है. रिपोर्ट्स के अनुसार, तालिबान सरकार के गठन के बीच गुट प्रतिद्वंद्विता देखने को मिल रही है. वहीं, इस समस्या का एक कारण पाकिस्तान भी है जो तालिबान को प्रभावित करने की कोशिश कर रहा है और तालिबान को पंजशीर के लड़ाकों के खिलाफ मदद भी पहुंचा रहा है.
लेकिन इसके अलावा एक समस्या अफगानिस्तान के समाज और राजनीति की संरचना में भी है जिसमें क्षेत्रीय वॉरलॉर्ड्स का दबदबा है. 2001 में अमेरिका द्वारा तालिबान को सत्ता से बेदखल करने के बाद दुनिया को इन वॉरलॉर्ड्स की ताकत का एहसास हुआ. इसी के चलते अफगानिस्तान के राजनीतिक भविष्य को तय करने के लिए बॉन समझौते की शुरुआत हुई और अमेरिका समर्थित हामिद करजई को अफगान सरकार को बागडोर दी गई.
हामिद करजई और अमेरिका को इन वॉरलॉर्ड्स के प्रभाव को स्वीकार करना पड़ा और उन्हें या तो अफगानिस्तान की राष्ट्रीय सरकार या प्रांतों में राज्यपालों के तौर पर शामिल करना पड़ा. इनमें से कई वॉरलॉर्ड्स तो ऐसे हैं जो तालिबान के सत्ता में आने के बावजूद अपने पद पर काबिज हैं.
कौन हैं अफगान, कितने समुदायों में हैं बंटे?
अफगानिस्तान में कई समुदायों का दबदबा रहा है जो परंपरागत रूप से अपने सांस्कृतिक ढांचे के भीतर स्व-शासन और स्वायत्तता की लड़ाई लड़ते आए हैं. अफगान समाज में एथनिक आइडेंटिटी को बेहद महत्वपूर्ण माना जाता है.अफगानिस्तान में 14 प्रमुख समुदाय हैं जिनमें से छह-सात राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण हैं. ये हैं पश्तून, ताजिक, हजारा, उज्बेक्स, तुर्क, बलूच और नूरिस्तानी.







ये हैं अफगानिस्तान के वॉरलॉर्ड्स जो ले रहे तालिबान से लोहा







अफगानिस्तान के वॉरलॉर्ड्स दशकों से अफगानिस्तान की राजनीति की रीढ़ रहे हैं. सोवियत विरोधी ताकतों को उनके समर्थन ने उनकी शक्ति को फिर से स्थापित करने का काम किया था. 2001 में तालिबान को सत्ता से हटाने के बाद, अमेरिका समर्थित शासन ने इन वॉरलॉर्ड्स को नियंत्रित करने की कोशिश की थी.
अमेरिका द्वारा समर्थित अफगानिस्तान की सरकार ने इन वॉरलॉर्ड्स की मौजूदा क्षेत्रीय प्रणाली पर अपने अधिकार जमाने का प्रयास किया और साल 2002 में अफगानिस्तान सरकार ने क्षेत्रीय प्रणाली को समाप्त कर दिया. हालांकि, इन वॉरलॉर्ड्स के अधीन कुछ क्षेत्र बेहद ताकतवर थे. इनमें उदाहरण के तौर पर मार्शल फहीम के नेतृत्व वाले क्षेत्र का नाम लिया जा सकता है जिन्होंने साल 2001 में तालिबान से काबुल को छीन लिया था. वे इसके बाद अफगानिस्तान सरकार में रक्षा मंत्री भी बने थे.
2003 में इन वॉरलॉर्ड्स को कंट्रोल करने के लिए संयुक्त राष्ट्र द्वारा समर्थित निरस्त्रीकरण, विमुद्रीकरण और पुन: एकीकरण (डीडीआर) कार्यक्रम शुरू किया गया था. लेकिन इस कदम से तालिबान को मदद मिली. वॉरलॉर्ड्स के कमजोर पड़ने पर तालिबान का प्रभाव बढ़ा और उन्हें कई लड़ाके भी मिले. कंधार, बामियान, हेरात, मजार-ए-शरीफ, काबुल और कुंदुज के प्रमुख प्रांतों में लगभग 1 लाख लड़ाकों का बड़ा हिस्सा तालिबान ने कब्जा लिया.
तालिबान के बढ़ते दबदबे को देखते हुए अमेरिका समर्थित सरकार ने इन वॉरलॉर्ड्स को एक बार फिर से हथियार देने की अनुमति दे दी. अब जबकि अफगानिस्तान की राष्ट्रीय सेना बिना किसी लड़ाई के हार गई है, ये वॉरलॉर्ड्स ही हैं जो तालिबान को चुनौती दे रहे हैं.