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गंगा की धार में जीत लिया बिहार, मगर हुगली की गुगली से कैसे पार पाएगी बीजेपी

बिहार में मिली जीत के बाद बीजेपी उत्साहित है और पार्टी सोच रही है कि वो बंगाल में भी सफलता हासिल करेगी. लेकिन बिहार की तरह बंगाल जीतना आसान नहीं है. मुस्लिम वोट बैंक, टीएमसी की मजबूत संगठनात्मक पकड़ और ममता बनर्जी की करिश्माई छवि बीजेपी के लिए बड़ी चुनौतियां हैं.

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बंगाल का किला भेदना बीजेपी के लिए टेढ़ी खीर है (Photo: PTI/Aajtak Digital)
बंगाल का किला भेदना बीजेपी के लिए टेढ़ी खीर है (Photo: PTI/Aajtak Digital)

पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव अब बस कुछ ही महीनों दूर है. 2026 दस्तक दे रहा है और बिहार में नीतीश कुमार के सहारे मिली जीत के बाद बीजेपी मोर की तरह इठला रही है. पार्टी को पूरा भरोसा है कि वो इस बार ममता बनर्जी को सत्ता से बेदखल कर तृणमूल कांग्रेस (TMC) का किला भेद देगी.

नरेन्द्र मोदी ने कहा है कि जैसे गंगा बिहार से निकलकर बंगाल में प्रवेश करती है, वैसे ही बीजेपी की विजय यात्रा भी गंगा के पीछे-पीछे चलकर ‘दीदी’ को बहा ले जाएगी. अलंकार तो खूब अच्छा इस्तेमाल किया है पर हकीकत इतनी आसान नहीं है. राजनीतिक जमीन इससे कहीं ज्यादा कठोर है.

माना कि बीजेपी चुनाव लड़ना बखूबी जानती है- ताकत, पैसा, संगठन… सब कुछ मानो स्टेरॉयड पर चलने वाली सेना की तरह झोंक देती है. लेकिन क्या मामला वाकई इतना सीधा है? गंगा आगे बढ़ते-बढ़ते और गहरी होती जाती है, और उसकी धारा सतह पर दिखने वाले पानी से कहीं ज्यादा जोरदार होती है.

राजनीतिक ट्विस्ट के साथ बंगाल का भूगोल

पहले इसके भूगोल पर एक नजर डालते हैं, राजनीतिक ट्विस्ट के साथ- जब गंगा बिहार छोड़कर बंगाल में प्रवेश करती है, तो सबसे पहले झारखंड को छूती है- वही राज्य जहां बीजेपी ने सरकार बनाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया, पर हेमंत सोरेन की झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) से सत्ता नहीं छीन सकी. 

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अगर इसे हल्की-सी चपत न मानें तो याद रखिए, बंगाल में घुसते ही गंगा, गंगा नहीं रहती. वह पद्मा बनकर बांग्लादेश चली जाती है. इसके बाद भागीरथी की बची हुई कमजोर धारा फड़क्का बांध से मिलकर आगे हुगली बन जाती है. यही वो 'गुगली' है जिसे बीजेपी खेल नहीं पा रही. 2021 विधानसभा से लेकर 2024 लोकसभा और ताजा उपचुनाव तक, हर मैच में क्लीन बोल्ड. बंगाल एक अलग पिच है- चिपचिपी और घूमती हुई.

अब आते हैं डेमोग्राफी यानी गणित पर जो बीजेपी के लिए दूसरा झटका है. पश्चिम बंगाल में मुस्लिम आबादी लगभग 30% है. कम से कम 100 सीटें ऐसी हैं जहां मुस्लिम वोट तय करता है कि जीत किसकी होगी और ये वोट पहले की तुलना में कहीं ज्यादा मजबूती से TMC के पीछे खड़ा हो चुका है.

बीजेपी मुस्लिमों की ‘मित्र’ पार्टी नहीं मानी जाती और इसके कुछ नेता लगातार माहौल को और बिगाड़ते आए हैं. CAA, NRC, वक्फ बिल, UCC जैसी बातों को बहुसंख्यक आबादी भले पसंद करे, पर मुसलमानों के लिए ये सब ‘एंटी-मुस्लिम’ संकेत हैं. ऊपर से SIR यानी स्पेशल इंटेंसिव रिविजन ने बॉर्डर इलाकों में डर और बढ़ा दिया है.

ममता की छवि मां दुर्गा बनाम दिल्ली के दानव

ममता बनर्जी खुद को मां दुर्गा की तरह पेश करती हैं जो अपने बच्चों को दिल्ली के दानवों से बचाती है. धार्मिक ध्रुवीकरण हो तो भी बीजेपी को यहां बस बचे-खुचे वोट ही मिलते हैं. बंगाल का भद्रलोक हिंदू, पढ़ा-लिखा वर्ग, वामपंथी झुकाव वाला वर्ग कोलकाता के ट्रैफिक जाम से ज्यादा बीजेपी से नफरता करता है. कई लोग अब बंगाल में रहते भी नहीं, लेकिन दिल्ली-बेंगलुरु से व्हाट्सऐप वोट डालते हैं.

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इसके बाद बीजेपी के पास क्या बचता है? दलित, पिछड़े, आदिवासी, वो वर्ग जिन्हें पार्टी बार-बार साधने का दावा करती है लेकिन इन पर टिकाऊ पकड़ बना नहीं पाती. और जहां बनाती है, वहां भी ज्यादा दिन नहीं रहती.

गणित कहता है कि बीजेपी को बहुमत पाने के लिए 294 में से लगभग 150 सीटें जीतनी होंगी. ये बहुत मुश्किल है क्योंकि 100 मुस्लिम बहुल सीटें लगभग पहले ही हाथ से जा चुकी होंगी. यानी अब लड़ाई 194 सीटों में से 150 सीटें जीतने की है- यह स्ट्राइक रेट किसी सपने जैसा है जिसके सामने TMC के बूथ दादाओं की दीवार खड़ी है. गुड लक!

पक्ष-विपक्ष, दोनों खुद हैं ममता बनर्जी

फिर आती है खुद ममता बनर्जी. ममता ने 14 साल सत्ता में रहने के बाद भी अपने आपको जमी हुई नेता की तरह पेश नहीं किया बल्कि वो आज भी खुद को स्थायी विपक्ष की तरह दिखाती हैं.

ममता बंगाल की मुख्यमंत्री हैं, लेकिन व्यवहार ऐसा है जैसे हर दिन केंद्र सरकार से लड़ाई लड़ रही हों, मानो वही असली विपक्ष हों. राज्य में उनका गुस्सैल तेवर लोगों को विपक्ष वाला ही एहसास दिलाता है.

वो लगातार लड़ती दिखती हैं, चाहे MGNREGA के रुके हुए फंड हों या पीएम आवास योजना के पैसे, इन सबका दोष हमेशा 'बदले की भावना वाले मोदी-शाह' पर डालती हैं.

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मतदाता उलझ जाते हैं कि उनका असली हुक्मरान कौन है? दिल्ली या दीदी? यही भावनात्मक द्वंद्व ममता बनर्जी के लिए जादू की तरह काम करता है.

दिल्ली के 'बाहरी लोगों' के खिलाफ खड़ी होती हैं ममता

वो बंगाल की शेरनी हैं, वीरांगना... जो दिल्ली से आए 'बुरे हिंदुत्व वाले बाहरी लोगों' के खिलाफ खड़ी होती है. बंगाली अस्मिता तो सब-नेशनलिज्म का ओवरडोज है. 

पश्चिम बंगाल के प्रोफेसर और एक्टिविस्ट गर्ग चटर्जी कहते हैं कि 'आउटसाइडर्स' बंगालियों पर हिंदी-हिंदू-हिंदुस्तान थोप रहे हैं. उनकी ये बातें भले ज्यादा लोगों को न पसंद आए लेकिन इसे भद्रलोक (यानी ज्यादातर उच्च जाति के ब्राह्मण-कायस्थ) धीरे-धीरे फैला रहे हैं.

बीजेपी पर उत्तर भारतीय या गुजराती पार्टी होने का ठप्पा लग जाता है. वहीं, दीदी मंदिरों में मंत्र पढ़ती हैं, सॉफ्ट हिंदुत्व खेलती हैं, और साथ ही साड़ी को कान के पीछे खोंसकर हिजाब जैसा लुक लिए नमाज पढ़ने की एक्टिंग भी कर लेती हैं. और उनकी ये एक्टिंग असली से भी ज्यादा असली लगने लगती है.

ये सब उस राज्य में होता है जिसने 34 साल सत्ता में रहने वाले लेफ्ट को बाहर कर दिया लेकिन आज भी बगावत पसंद करता है.

पश्चिम बंगाल में नए झंडे तले पुराना सिस्टम कायम है

यहीं से बात आती है लाल बॉर्डर वाली साड़ी की या यूं कहें बड़ी बिंदी की. संगठन के स्तर पर टीएमसी असल में वही पुराना कम्युनिस्ट भूत है जो कभी गया ही नहीं. पाड़ा-अड्डा-दादा सिस्टम यानी लोकल इलाकों में पकड़, जमीनी दबदबा और मसल पावर- इसे CPM ने दशकों तक परफेक्ट किया. तृणमूल ने बस झंडा बदलकर यही सिस्टम अपना लिया है. जो चीज टूटी नहीं, उसे ठीक क्यों किया जाए?

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बीजेपी नेता ग्रामीण इलाकों में सुरक्षा के बिना कैंपेन नहीं कर सकते और शहरों में तो उनकी हालत गंगा से निकली मछली जैसी है जो पानी बिन छटपटाती है.

टीएमसी के पास बूथ एजेंटों की एक फौज है. दूसरी ओर बीजेपी है, वही पार्टी जिसने 'पन्ना प्रमुख' की अवधारणी गढ़ी और 'मेरा बूथ सबसे मजबूत' जैसा नारा दिया- बंगाल में कही नहीं टिकती. नेताओं की कमी, अंदरूनी लड़ाई, आधे-अधूरे सदस्यता अभियान बंगाल में बीजेपी की दिक्कत है.

उन्होंने टीएमसी नेताओं को पार्टी में मिलाने की कोशिश की, वो बड़े अहंकार के साथ आए लेकिन दीदी ने कान उमेठा तो आधे से ज्यादा की घर वापसी हो गई. उनके इमेज की पूरी की पूरी वाट लग गई! अब वे जमीनी स्तर पर शिकार कर रहे हैं लेकिन पश्चिम बंगाल की बीजेपी यूनिट खुद एक खिचड़ी है. पुराने बीजेपी नेता नए लोगों पर शक करते हैं और कैडर दिल्ली पर भरोसा नहीं करता.

दीदी की करिश्माई स्ट्रीट-फाइटर छवि के सामने कोई टिक नहीं पाता. वो रैलियों में नाचती हैं, बंगाल के लिए रोती हैं, साधारण घर में रहती हैं.

ममता सरकार और उनकी 'रेवड़ियां'

और अब आता है हालिया चुनावों का परम हथियार: रेवड़ियां, जिनका प्रधानमंत्री ने कभी बड़ी गंभीरता से मजाक उड़ाया था. सबको पता है कि बिहार में एनडीए की भारी जीत में जीविका दीदी जैसी योजनाओं की क्या भूमिका रही. ममता बनर्जी के पास भी अपनी लाड़ली बहना है. लक्ष्मी भंडार योजना हर महीने सीधे महिलाओं के खातों में 1,000–1,200 रुपये डाल देता है. यह पैसा हर घोटाले, हर भ्रष्टाचार आरोप, हर पंचायत चुनाव के बाद हुई हिंसा की कहानी को बैलेंस कर देता है.

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बीजेपी अपने विकास मॉडल का ढोल पीटती है, लेकिन जब केंद्र के फंड 'ब्लॉक' (इसे ऐसे पढ़ें- दुरुपयोग के कारण रोका जाना) कर दिए जाते हैं तो उनका नैरेटिव धड़ाम हो जाता है. टीएमसी तुरंत पीड़ित बन जाती है और दावा करती है कि गरीब बंगाल को अमीर दिल्ली तंग कर रही है.

यही है ममता बनर्जी की खूबसूरती. वह हमेशा 'जालिम दिल्ली' और 'मोदी-शाह' की पीड़ित नायिका बनकर उभरती हैं. एक अकेली योद्धा, जो बंगाली अस्मिता को हिंदुत्व से बचा रही है. 

'बाहरी' बीजेपी को उन्हीं के हथियार से मात देती है टीएमसी

बिहार जीतने के बाद मोदी जी कहते हैं- अगला नंबर बंगाल का. और टीएमसी तुरंत कहती है- बाहिरागोतो! (बाहरी). बिल्कुल. ऐसा होता है कि बीजेपी का कोई नेता टैगोर का गलत हवाला दे देगा, कोई पूजा पंडालों में नॉन-वेज स्टॉल पर आपत्ति कर देगा, कोई एकादशी पर मछली खाने को लेकर बयान दे देगा. ये छोटी-छोटी 'फिसलनें' टीएमसी के इको सिस्टम में ऐसे गूंजेंगी मानो बीजेपी बंगाल में खाने-पीने पर पाबंदियां लगाने आ रही हो.

पुराने वीडियो फिर से फैलाए जाएंगे, लोकल लोगों को फिर याद दिलाया जाएगा कि बीजेपी के खान-पान के संस्कार बंगालियों से अलग हैं. उम्मीद कीजिए कि ये क्लिप्स फिर से वायरल होंगी.

टीएमसी के सभी नेता, चाहे छोटे हों या बड़े, हर जनसभा में सड़क वाली ठेठ बंगाली बोलेंगे. जबकि बीजेपी के स्टार प्रचारक बंगालियों को अपने संघ-शाखा स्तर की हिंदी में संबोधित करेंगे और यही अपने आप में एक भारी नुकसान है. यह फासला साफ दिखेगा, और टीएमसी इसका पूरा फायदा उठाएगी.

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तृणमूल आरजेडी नहीं है...

गंगा बहती होगी, लेकिन बंगाल में उसकी धारा को कंट्रोल करती हैं दीदी, फरक्का बांध पर. बीजेपी चाहे सपने देख ले कि धान के खेतों के बीच पोखरों में कमल खिलेगा, लेकिन तृणमूल कोई आरजेडी नहीं है.
कांग्रेस न तब कहीं थी, न अब कहीं है.

जब तक अमित शाह अपनी टोपी से खरगोश निकालने जैसा कोई जादू नहीं सीख लेते, बंगाल तब तक अजेय ही है. कुल मिलाकर, मामला पूरा-का-पूरा माछेर झोल की तरह है.

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