उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के जन्मदिन के अवसर पर अक्सर एक विशेष चीज़ लोगों का ध्यान आकर्षित करती है, वो हैं उनके कानों में पहनी गई बालियां. ये सिर्फ सजावटी आभूषण नहीं बल्कि भारतीय योग परंपरा से गहराई से जुड़े आध्यात्मिक प्रतीक हैं जिनका संबंध अमरता, सुरक्षा और आंतरिक ऊर्जा के संचालन से है.
योगी आदित्यनाथ न केवल एक राजनीतिक नेता हैं बल्कि एक समर्पित योग साधक और गोरक्षपीठ के महंत भी हैं. उनके कानों में पहने गए छल्ले उनकी योगी पहचान का प्रतीक हैं और उन परंपराओं से जुड़े हैं जहां माना जाता है कि कानों में पहने गए आभूषण न केवल चेतना को जाग्रत करते हैं बल्कि साधक को नकारात्मक ऊर्जा से भी सुरक्षित रखते हैं. यह परंपरा विशेष रूप से 'कनफटा योगी संप्रदाय' से संबंधित है. इस परंपरा में दीक्षा के अंतिम चरण में गुरु एक विशेष दोधारी चाकू या उस्तरे से शिष्य के कान के बीच के हिस्से को चीरता है. फिर उस स्थान पर बड़े छल्ले पहनाए जाते हैं यही 'कनफटा' शब्द की व्युत्पत्ति है ‘कन’ यानी कान और ‘फटा’ यानी छिदा हुआ.
बालियों में छुपा है आध्यात्मिक संदेश
जॉर्ज वेस्टन ब्रिग्स अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'गोरखनाथ एंड द कनफटा योगीज़' में लिखते हैं कि कनफटा संप्रदाय की विशिष्ट पहचान उनके फटे हुए कान और उनमें पहने गए बड़े छल्ले हैं जो उनकी दीक्षा और योगपथ पर चलने की गवाही देते हैं. इस परंपरा के अनुसार ये छल्ले साधक की ऊर्जा को स्थिर रखने, ध्यान केंद्रित करने और आत्मिक जागरण में सहायक माने जाते हैं.
पहले छल्ले अक्सर मिट्टी के बने होते थे. एक किंवदंती के अनुसार गोरखनाथ ने भर्तृ के कानों में तीन इंच लंबे छेद किए और मिट्टी के झुमके डाले. कुछ योगी आज भी मिट्टी के छल्ले पहनते हैं लेकिन, चूंकि ये आसानी से टूट जाते हैं. इसलिए आमतौर पर अधिक टिकाऊ पदार्थों का उपयोग किया जाता है. अधिक टिकाऊ छल्लों का उपयोग मूल्य के तत्व को भी दर्शाता है. कान फटने और छल्ले पहनने की परंपरा की उत्पत्ति अलग-अलग किंवदंतियों में बताई गई है. एक परंपरा के अनुसार, यह प्रथा गोरखनाथ से शुरू हुई.
भगवान शिव ने दिया था पार्वती को गोरखनाथ के कान फाड़ने का आदेश
ब्रिग्स के अनुसार, 'कहा जाता है कि भगवान शिव ने माता पार्वती को गोरखनाथ के कान फाड़ने का आदेश दिया, जिससे यह परंपरा शुरू हुई. इसके अलावा दो अनुयायियों 'करकाई और भुस्काई' को गोरखनाथ से एक-दूसरे के कान फाड़ने की अनुमति मिलीजो उनके आध्यात्मिक समर्पण का प्रतीक था. यह समझौता राजा लाज के रास्ते में एक पवित्र तीर्थस्थल पर हुआ जहां हर पूर्ण योगी को जाना चाहिए. गोरखनाथ ने भर्तृ के कान भी फाड़े जिससे इस रिवाज के साथ उनका संबंध और मजबूत हुआ.
एक अन्य संस्करण में इस परंपरा का श्रेय गोरखनाथ के गुरु मच्छेंद्रनाथ को दिया जाता है. ब्रिग्स लिखते हैं कि हरिद्वार के ऐपंथी कहते हैं कि जब मच्छेंद्रनाथ ने महादेव के आदेश पर योग का प्रचार शुरू किया तो उन्होंने देखा कि शिव के कान फटे हुए थे और उन्होंने (शिव ने) बड़े कुंडल पहने थे. मच्छेंद्रनाथ ने भी ऐसे ही छल्लेनुमा कुंडल पहनने की इच्छा की. उन्होंने शिव की पूजा शुरू की और भगवान को इतना प्रसन्न किया कि उनकी इच्छा पूरी हुई. मच्छेंद्रनाथ को तब आदेश दिया गया कि वे अपने सभी शिष्यों के कान फाड़े.
क्या कहती हैं किवदंतियां
एक अलग किंवदंती के अनुसार मच्छेंद्रनाथ के मछली अवतार के दौरान उनके कानों में पहले से ही छल्ले थे. पुरी में माना जाता है कि कान फाड़ने का आदेश स्वयं मच्छेंद्रनाथ से आया था. यह प्रथा औघड़ों से भी जुड़ी है जो गोरखनाथ के अनुयायी हैं लेकिन पूर्ण दीक्षा नहीं ली. ब्रिग्स बताते हैं कि औघड़ गोरखनाथ के अनुयायी हैं जिन्होंने कान फाड़ने की अंतिम रस्म पूरी नहीं की. एक किंवदंती प्रचलित है जो इस बात को उचित ठहराती है कि उन्होंने दीक्षा पूरी क्यों नहीं की. एक बार, दो सिद्ध (पूर्ण योगी) ने हिंग लाज में एक उम्मीदवार के कान फाड़ने की कोशिश की. लेकिन उन्होंने पाया कि जितनी जल्दी वो छेद करते, उतनी ही जल्दी वे बंद हो जाते. इसलिए उन्होंने यह प्रयास छोड़ दिया. तब से औघड़ों ने भी इस रिवाज को छोड़ दिया.