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भारत के परिवर्तन की पचीसी

पच्चीसवें वर्ष में प्रवेश कर गई है इंडिया टुडे हिंदी. इस करीब चौथाई सदी में देश ने  लंबा दूरी तय कर ली है. इन वर्षों में जो भारी बदलाव आए हैं उनका  सबसे सटीक प्रतीक प्रयाग में लगे पिछले कुंभ मेले के दौरान खींची गई फोटो है, जो दुनिया भर में खूब प्रसारित हुई. साधुओं के एक समूह की इस फोटो में हरेक साधु को कान से मोबाइल लगाए देखा जा सकता है.

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पच्चीसवें वर्ष में प्रवेश कर गई है इंडिया टुडे हिंदी. इस करीब चौथाई सदी में देश ने लंबा दूरी तय कर ली है. इन वर्षों में जो भारी बदलाव आए हैं उनका सबसे सटीक प्रतीक प्रयाग में लगे पिछले कुंभ मेले के दौरान खींची गई फोटो है, जो दुनिया भर में खूब प्रसारित हुई. साधुओं के एक समूह की इस फोटो में हरेक साधु को कान से मोबाइल लगाए देखा जा सकता है. यह फोटो 1985 के बाद से भारत में आए व्यापक परिवर्तनों को उजागर करती है.

करीब 25 साल पहले देश के एक युवा प्रधानमंत्री ने अमेरिकी सीनेट और कांग्रेस की संयुक्त बैठक में कहा था, ''मैं युवा हूं और मेरा भी एक सपना है. मैं सपना देखता हूं शक्तिशाली, स्वतंत्र, स्वावलंबी भारत का, जो मानवता की सेवा में दुनिया में सबसे अग्रणी हो.'

अफसोस की बात है कि राजीव गांधी अपना यह सपना पूरा करने के लिए जीवित न रह पाए, वे असामयिक, असामान्य मौत के शिकार हो गए. लेकिन केरल के मिथकीय शासक रहे महाबली की तरह अगर आज वे इस देश में, जिस पर उन्होंने कभी राज किया था, फिर लौटें तो चकित और स्तब्ध रह जाएंगे. दुनिया का यह सबसे बड़ा लोकतंत्र सबसे अराजक भी है, जहां उपरोक्त फोटो के मुताबिक मध्ययुगीनता और आधुनिकता, दोनों साथ-साथ चल रही है.{mospagebreak} सामाजिक-आर्थिक, कानूनी, और राजनीतिक व्यवस्था पर आज भी पुरुषों का वर्चस्व है और औरतों के खिलाफ हिंसा के मामले निरंतर सामने आते रहते हैं. दहेज के लिए युवा दुलहनों को जलाया जाना जारी है. और हाल के दिनों में खाप पंचायतों के फैसलों के तहत उन युवा प्रेमियों की हत्या हो रही हैं, जो रूढ़ सामाजिक परंपराओं का उल्लंघन करते हैं. गांवों में ही नहीं, कुछ शहरों में भी कन्या भ्रूण हत्या के मामले आम हैं, क्योंकि लड़कियों को बोझ माना जाता है.

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राजनीति के मोर्चे पर दास प्रथा जैसी स्थिति है क्योंकि सत्ता चंद राजनीतिक परिवारों के हाथ में केंद्रित हो रही है. जो लोग कांग्रेस पर देश में वंशवाद को आगे बढ़ाने के लिए कोसते रहे हैं, वे ही आज अपनी संतानों या परिजनों को जनता के कंधे पर सवार करने की जुगत में भिड़े नजर आ रहे हैं. उत्तर भारत में शुरू हुई यह प्रवृत्ति अब दक्षिण भारत में फैल रही है. तमिलनाडु में करुणानिधि की विरासत संभालने के लिए स्टालिन खड़े हैं, तो कर्नाटक में येद्दियुरप्पा के पुत्र उनके उत्तराधिकारी बनने को तैयार हैं और हैदराबाद में जगनमोहन रेड्डी दिवंगत पिता की गद्दी पर दावेदारी कर रहे हैं.

आजादी के बाद से विभाजनों को झेलती रही कांग्रेस पार्टी 1978 के बाद से तीन बार बंट चुकी है. हालांकि तृणमूल कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का बनना उसे राष्ट्रीय स्तर पर ज्‍यादा प्रभावित नहीं करता मगर यह तो जताता ही है कि कांग्रेस अब वह कांग्रेस नहीं रही. टूट-फूट का रोग विपक्ष को भी लग गया है. 1989 में सत्ता में आया जनता दल तब से इतनी बार टूट चुका है कि उसकी गिनती भी याद नहीं.{mospagebreak}

जनता दल (यू), जनता दल (एस), राष्ट्रीय जनता दल, समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता पार्टी वगैरह सब एक ही पेड़ से टूटी हुई डालियों जैसी हैं. और मार्के की बात यह है कि इनमें से अधिकतर पार्टियां किसी-न-किसी पारिवार की मुट्ठी में हैं. यही नहीं, चाहे ये पार्टियां जितने भी टुकड़ों में बंट जाएं, उनकी विचारधारा या उनकी कार्यशैली में शायद ही कोई फर्क नजर आता है.

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कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी (भाजपा), क्षेत्रीय क्षत्रपों के कब्जे वाली तमाम पार्टियों के बीच सैद्धांतिक अंतर इतना धुंधला हो चुका है कि उनमें अंतर उनके झुंडों के कारण ही पहचाना जा सकता है. इनके सभी नेता चुनाव के दौरान रोटी, कपड़ा, मकान के वादे करते हैं और जब सत्ता में आ जाते हैं तब अपनी-अपनी जातियों के साथियों का हित आगे बढ़ाने में जुट जाते हैं.

एक दौर था जब वे अपने राजनीतिक मतभेद परे रख देते थे और अपने विरोधियों से सामाजिक और बौद्धिक स्तर पर मेलजोल रखते थे. एक-दूसरे पर व्यक्तिगत स्तर पर हमला शायद ही किया जाता था. लेकिन आज असहिष्णुता का बोलबाला है. राजनीतिक विमर्श का स्तर इस कदर नीचे गिर गया है कि शरद यादव राहुल गांधी को गंगा में बहा देने की बात करते हैं, तो वरुण गांधी अपने राजनीतिक विरोधियों के हाथ काट देने की धमकी देते हैं.

इस निराशाजनक परिदृश्य में उत्साह बढ़ाने वाली कुछ बातें भी हैं. आज अर्थव्यवस्था के वार्षिक विकास की दर 9 प्रतिशत को छू रही है, जबकि '80 वाले दशक के उत्तरार्ध में यह मात्र 5 प्रतिशत के करीब थी. यह दर दुनिया में चीन के बाद दूसरी सबसे तेज दर है. तब विदेशी मुद्रा का हमारा कोष 30 करोड़ डॉलर का था, आज यह करीब 1,000 गुना यानी 300 अरब डॉलर का है. एक दौर वह भी था जब फोन के कनेक्शन के लिए दो-तीन साल इंतजार करना पड़ता था और फोन एक विलासिता की चीज थी. केवल 40 लाख भारतीयों के पास फोन की सुविधा थी.{mospagebreak}

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आज 50 करोड़ मोबाइल और लैंडलाइन फोन कनेक्शन के साथ भारत दुनिया में इस मामले में चीन के बाद दूसरे नंबर पर है. '80 के दशक में अगर आप अपनी बेटी को जन्मदिन पर कार उपहार में देना चाहते थे तो उसकी बुकिंग उसके जन्म के समय ही करवानी पड़ती थी क्योंकि कारों के तीन मॉडल ही उपलब्ध थे. आज कार बाजार की अगुआ मारुति ही अकेले 70 तरह के वाहन बेचती है. तीन साल पहले भारत के सकल घरेलू उत्पाद का मूल्य 45 लाख करोड़ रु. से ऊपर पहुंच गया. यह आंकड़ा अब तक दुनिया के केवल 12 देशों ने पार किया है. जाहिर है, इस आर्थिक प्रगति ने उपभोक्ताओं के एक नए वर्ग को जन्म दिया है जो युवा है, समृद्ध है, जिसके पास खर्च करने के लिए पर्याप्त पैसे हैं और जो अच्छी जीवन शैली का मुरीद है. एक रिपोर्ट बताती हैं कि 2005 में भारतीय करोड़पतियों की संख्या में 20 प्रतिशत की वृद्धि हो गई. यानी उनकी संख्या 70,000 से बढ़कर 85,000 हो गई. यह ऐसी वृद्धि दर है जो दुनिया के किसी देश में इस दर का मुकाबला कर सकती है. {mospagebreak}

पिछले तीन वर्षों में भारत का शेयर मूल्य सूचकांक तीन गुना ऊपर चढ़ गया है. मौजूदा वृद्धि दर को देखते हुए एक रिपोर्ट का अनुमान है कि अगले 50 वर्षों में भारत की अर्थव्यवस्था दुनिया में तमाम देशों के मुकाबले सबसे तेजी से विकास कर रही होगी. यह रिपोर्ट कहती है कि 15 साल में भारत ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था को पीछे छोड़ देगा और सन्‌ 2040 तक उसका जीडीपी दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा जीडीपी होगा. और फिर, भारत की आबादी किसी भी बड़े देश की आबादी के मुकाबले सबसे युवा है. दस साल के भीतर 12.5 करोड़ भारतीय कार्यबल में आकर जुड़ जाएंगे. इस वजह से भारतीय पेशेवरों की मांग काफी रहेगी. इस तरह प्रति व्यक्ति ऊंची आय वाले तबके की आबादी में खासा इजाफा होगा जो उपभोक्ता वस्तुओं पर खर्च करने को तैयार होगी. भारतीय उद्यमी दुनिया भर में अपना परचम लहरा रहे हैं. टाटा से लेकर आनंद महिंद्रा और अनुराधा देसाई तक भारतीय उद्योगपति इस्पात कारखाने से लेकर कार कंपनी और फुटबॉल क्लब तक के अधिग्रहण में लगे हैं. '80 के दशक में नेता लोग कॉर्पोरव्ट लोगों के साथ दिखने से हिचकते थे, आज प्रधानमंत्री का प्रतिनिधिमंडल इन लोगों से भरा होता है.

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लेकिन इन सबका दूसरा पहलू भी है. देश भारत और इंडिया में विभाजित होता जा रहा है. शहरों की चमकदमक बढ़ रही है जबकि 70 फीसदी आबादी के घर, गांवों में गरीबी बढ़ी है. भारत में आज भी दुनिया के 44 फीसदी गरीब बसते हैं और संयुक्त राष्ट्र के आकलन के मुताबिक वह 177 देशों में 124वें नंबर पर है.{mospagebreak}

आजादी के साठ साल बाद भी हम विरोधाभासों में जी रहे हैं. 1990 में आर्थिक उदारीकरण की शुरुआत ने देश को समृद्धि की राह पर तो चलाया मगर असली चुनौती उस समृद्धि के समतामूलक वितरण की, लोकतांत्रिक संस्थानों को मजबूत करने की, सामाजिक तनावों को मिटाने और सबसे ऊपर, विपक्ष के प्रति सहिष्णुता की भावना को आगे बढ़ाने की है.

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