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मनोहर हर्डीकर: भारत का वो 'जर्मन' क्रिकेटर, जिसका करियर एक चोट और छूटी हुई फ़्लाइट ने खत्म कर दिया

दोस्तों के लिये 'मान्या हर्डीकर' और बेहद क़रीबी दोस्तों के बीच अपने बालों की वजह से 'जर्मन' नाम से मशहूर मनोहर हर्डीकर बॉम्बे के सबसे दिमाग़दार कप्तानों में गिने जाते हैं. कहते हैं कि मनोहर को अपने खिलाड़ियों के बारे में इतना कुछ मालूम होता था जितना उस खिलाड़ी को ख़ुद के बारे में नहीं मालूम होता था.

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मनोहर हार्डीकर (बैठी हुई पंक्ति में दाएं से दूसरे)
मनोहर हार्डीकर (बैठी हुई पंक्ति में दाएं से दूसरे)

नारी कॉन्ट्रैक्टर. ये नाम सुनते ही ज़हन में एक बात आती है- चार्ली ग्रिफ़िथ की एक पटकी हुई गेंद की वजह से उन्हें गंभीर चोट लगी और वो फिर कभी इंडिया के लिये खेल नहीं पाये. वो कई दिन अस्पताल में भर्ती रहे. रिकवरी के बाद क्रिकेट खेलना जारी रखा लेकिन मौत के मुंह से वापस आये कॉन्ट्रैक्टर को दोबारा भारतीय टीम का हिस्सा बनाने का ज़ोखिम किसी भी सेलेक्टर ने नहीं लिया.

मगर नारी कॉन्ट्रैक्टर से पहले एक और खिलाड़ी था जिसके अंतर्राष्ट्रीय करियर पर एक वेस्ट-इंडियन गेंदबाज़ की तेज़ गेंद ने पूर्ण विराम लगा दिया. ये थे मनोहर हर्डीकर. अफ़सोस इस बात का है कि उन्होंने अपनी बढ़िया बल्लेबाज़ी और शानदार क्रिकेटीय दिमाग़ के चलते भारतीय टेस्ट टीम में जगह बनायी, लेकिन अपने दूसरे ही मैच में उन्हें एक बीमर मिली जो जाकर उनकी कनपटी पर लगी और वो उनका आख़िरी टेस्ट मैच साबित हुआ. 1958 में वेस्ट इंडीज़ की टीम भारत के दौरे पर थी. इस सीरीज़ के लिये टीम में जगह मिली बम्बई के 'खड़ूस' बल्लेबाज़ मनोहर हर्डीकर को. पहली पारी में आते ही बगैर खाता खोले आउट हो गए. लेकिन फिर एक कमाल हुआ. गेंदबाज़ी करते हुए अपनी तीसरी ही गेंद पर उन्होंने रोहन कन्हाई को आउट किया. पूरी पारी में 7 ओवर फेंके जिसमें 5 मेडेन रहे. और फिर अगली पारी में बल्लेबाज़ी करते हुए मैच ड्रॉ करवाया. ये वही पारी थी जिसमें पंकज रॉय ने ऐतिहासी 'खूंटा गाड़' पारी खेली थी और 444 मिनट क्रीज़ में रहकर अनमोल 90 रन बनाये. आख़िरी दिन के आख़िरी 2 घंटे मनोहर और गुलाबराय रामचंद के नाम रहे. दोनों ने 85 रनों की पार्टनरशिप की. 

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दूसरा मैच कानपुर में था जहां हर्डीकर को चोट लगी और उसने उन्हें मानसिक रूप से बहुत प्रभावित किया. कहा जाता है कि वो ख़ुद में विश्वास खो बैठे और उसके बाद उन्हें कभी जगह नहीं मिली.

हालांकि परिस्थितियां ऐसी भी हुईं कि इसी सीरीज़ में उन्हें दोबारा खेलने का मौका मिला लेकिन संयोगों की साज़िशों ने उन्हें हरा दिया. उसके लिये अस्थिर नेतृत्व के उस दौर की पूरी कहानी सुननी/पढ़नी होगी. उन दिनों भारतीय क्रिकेट की लीडरशिप पर कोई भी स्थिर मत नहीं था. लाला अमरनाथ सेलेक्टर्स के चेयरमैन थे और वो चाहते थे कि ग़ुलाम अहमद को कप्तान बनाया जाये. लेकिन फिर ग़ुलाम अहमद सीरीज़ से पहले होने वाले कैम्प में नहीं आये और वॉर्म-अप मैच में चोटिल हो गए. सेलेक्टर्स उन्हें कप्तानी देने के लिये बहुत उत्साहित नहीं थे. लेकिन लाला जी ने अपनी वीटो ताक़त का इस्तेमाल किया और ग़ुलाम अहमद को कप्तान बना दिया. मामला फिर से पलटा और इस बार ख़ुद ग़ुलाम अहमद ने ही कप्तानी से मना कर दिया क्यूंकि मैच बॉम्बे में हो रहा था और उन्हें लगता था कि वहां की जनता हैदराबादी को पसंद नहीं करेगी. लिहाज़ा पॉली उमरीगर कप्तान बने और ग़ुलाम अहमद ने मैच ही नहीं खेला.

दूसरा मैच कानपुर में होना था. ग़ुलाम अहमद वापसी कर रहे थे. इसमें कोई संशय ही नहीं था कि क्या होने वाला था. लाला अमरनाथ जिसे चाह रहे थे, उसे ही कप्तानी मिली- ग़ुलाम अहमद. इस मैच में भारत की ख़राब बल्लेबाज़ी के चलते कानपुर के दर्शकों ने बवाल काट दिया था. मामला यहां तक पहुंच गया था कि भारतीय टीम को पुलिस की छत्रछाया में होटल ले जाया गया. 

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मनोहर हार्डीकर
मनोहर हर्डीकर

तीसरा मैच कलकत्ता में हुआ जहां भारतीय टीम को शर्मनाक हार मिली. साढ़े तीन दिन में ही मैच ख़तम हो गया और वेस्ट इंडीज़ एक पारी और 336 रनों से जीत गयी. यहां से कहानी मज़ेदार होना शुरू हुई. मैच ख़तम होते ही ग़ुलाम अहमद ने कप्तानी के पद से इस्तीफ़ा दे दिया. लेकिन दिन के अंत में सेलेक्टर्स मिले और ग़ुलाम अहमद से इस्तीफ़ा वापस लेने को कहा. सेलेक्टर्स ने कहा कि वो वीनू मांकड़ को वापस लायेंगे जिससे टीम में उन्हें मदद मिलेगी और चीज़ें सुधरने लगेंगी. ग़ुलाम अहमद ने इस्तीफ़ा वापस ले लिया और कप्तानी को राज़ी हो गए.

चौथे मैच के चार दिन पहले, ग़ुलाम अहमद ने नयी कहानी लिखनी शुरू कर दी. उन्होंने कप्तानी तो छोड़िये, टेस्ट क्रिकेट से ही संन्यास लेने की घोषणा कर दी. अब सेलेक्टर्स सकते में थे. उन्हें कप्तान चुनना था, ग़ुलाम अहमद की जगह एक स्पिनर लाना था. इतने में विजय मांजरेकर ने ख़ुद को अनफ़िट घोषित कर दिया. मुसीबत बढ़ रही थीं. सेलेक्टर्स में भी दो फाड़ होने लगी. लाला जी चाहते थे कि पॉली उमरीगर कप्तान बनें और जासु पटेल को बतौर स्पिनर खिलाया जाए. वहीं कोटा रामास्वामी चाहते थे कि मांजरेकर की जगह हर्डीकर को लाया जाए. लेकिन यहां भी हर्डीकर की किस्मत ने साथ नहीं दिया. उनका बॉम्बे का टिकट तो बुक हो गया लेकिन वो आख़िरी फ़्लाइट नहीं पकड़ पाये.

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उधर पॉली उमरीगर ने हाथ खड़े कर दिए. उनका कहना था कि अगर जासु पटेल खेलेंगे तो वो कप्तानी नहीं करेंगे. इस वजह से अपूर्व सेनगुप्ता को उनका पहला मैच खेलने का मौका मिला. उधर बोर्ड के प्रेसिडेंट का कहना था कि टीम में जासु पटेल खेलेंगे ही खेलेंगे. असल में, वो भी एक पटेल ही थे. रामास्वामी पॉली उमरीगर के ही साथ थे लेकिन बोर्ड प्रेसिडेंट उनसे ऊपर की चीज़ थी. शाम को उमरीगर ने कप्तान की स्पीच दी. फिर होटल आये और टीम मैनेजमेंट को इस्तीफ़ा सौंप दिया.

अब मैच शुरू होने को था और किसी को नहीं मालूम था कि भारत की कप्तानी कौन करने वाला था. ख़ुद भारतीय सेलेक्टर्स को भी नहीं. बोर्ड के अधिकारियों ने जाकर मांकड़ को ड्रेसिंग-रूम के टॉयलेट में घसीटा. उनसे ज़िरह की और 15 मिनट बाद वीनू मांकड़ टॉस के लिये उतरे. भारत ने एक और बुरी हार झेली. 

हम 4 मैचों में 3 अलग-अलग कप्तान देख चुके थे. दो इस्तीफ़े दिए जा चुके थे. एक कप्तान क्रिकेट से ही संन्यास ले चुका था. भारत सीरीज़ हार चुका था.

पांचवां मैच दिल्ली में होना था. इसमें भी नया कप्तान आया. इसकी कहानी सब्जे ज़्यादा मज़ेदार है. असल में, चौथे मैच में कुछ वक़्त के लिये वीनू मांकड़ मैदान से बाहर थे क्यूंकि फ़ूड पॉइज़निंग के चलते उनकी तबीयत बिगड़ रही थी. उनकी जगह गुलाबराय रामचंद ने कप्तानी की थी. सेलेक्टर्स को उनकी कप्तानी रास आयी. उन्होंने तय किया कि वीनू मांकड़ को हटाया जायेगा और पांचवें मैच के लिये गुलाबराय कप्तान होंगे. लेकिन ये बात टीम तक पहुंच ही नहीं सकी. क्यूंकि जब बोर्ड का एक अधिकारी इस फैसले को सुनाने के लिये टीम के पास पहुंचा, तो मालूम पड़ा कि खिलाड़ी ट्रैफ़िक में फंसने और ट्रेन छूटने के डर से होटल से जल्दी निकल गए थे. वो अधिकारी स्टेशन की ओर भागा लेकिन ख़ुद ट्रैफ़िक में फंस गया और खिलाड़ियों को लेकर ट्रेन निकल चुकी थी. 

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सेलेक्टर्स वीनू मांकड़ को हटाने का मन तो बना ही चुके थे. लेकिन उन्होंने ट्रेन निकल जाने के बाद गुलाबराय को कप्तान बनाने के विचार पर विराम लगाया और हेमू अधिकारी को कमान सौंप दी. इतना ही नहीं, गुलाबराय को पांचवें मैच में अंतिम एकादश में जगह ही नहीं मिली. भारत ने ये मैच ड्रॉ करवाया.

यानी, भारत से सीरीज़ 3-0 से गंवाई. उनका एक कप्तान क्रिकेट छोड़ चुका था. दो बार कप्तानी से इस्तीफ़े दिए जा चुके थे. एक कप्तान फ़ूड पॉइज़निंग का शिकार हो चुका था. 5 मैचों में 4 अलग-अलग कप्तान बने. इसी कप्तानी की उठापठक के बीच सीरीज़ के चौथे मैच के लिये मनोहर हर्डीकर को कानपुर मैच के बाद एक मौका मिला था, लेकिन उनकी फ़्लाइट मिस होने के चलते वो नहीं खेल सके. कानपुर टेस्ट ही उनके करियर का आख़िरी टेस्ट मैच साबित हुआ. 

***

1967 के रणजी ट्रॉफ़ी फ़ाइनल में मनोहर हर्डीकर ने अपने कमाल से बॉम्बे को ट्रॉफ़ी जिताई. मद्रास के ख़िलाफ़ आख़िरी दिन बल्लेबाज़ी करते हुए उन्होंने मैच बचाया और टीम को पहली पारी में मिली बढ़त के चलते विजयी घोषित किया गया. बॉम्बे को कुल 248 रन चाहिये थे. लेकिन सामने से वेंकटराघवन और वीवी कुमार की स्पिन गेंदबाज़ी ने बॉम्बे को 100 रनों के आस-पास 5 झटके दे दिए. अब आख़िरी ढंग की जोड़ी थी मनोहर हर्डीकर और 18 साल के एकनाथ सोलकर की. लंच के बाद ये दोनों बल्लेबाज़ी करने के लिये उतर रहे थे. पिच तक पहुंचने के दौरान ही मनोहर ने अपनी स्पीड धीमी की, सोलकर की ओर पलटे और बोले, 'एक बात याद रख. हमें आउट नहीं होना है.' दोनों को पूरे दो सेशन खेलने थे. दोनों ने कमाल की तकनीक दिखायी. पैड और हल्के हाथों का ख़ूब इस्तेमाल किया गया. मद्रास की पूरी बॉलिंग यूनिट इन्हें आउट नहीं कर पायी.

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दोस्तों के लिये 'मान्या हर्डीकर' और बेहद क़रीबी दोस्तों के बीच अपने बालों की वजह से 'जर्मन' नाम से मशहूर मनोहर हर्डीकर बॉम्बे के सबसे दिमाग़दार कप्तानों में गिने जाते हैं. कहते हैं कि मनोहर को अपने खिलाड़ियों के बारे में इतना कुछ मालूम होता था जितना उस खिलाड़ी को ख़ुद के बारे में नहीं मालूम होता था.

मनोहर हर्डीकर का 8 फ़रवरी को जन्मदिन होता है. 

 

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