रामायण से जुड़ी एक कथा का जिक्र बहुत ही आम तरीके से होता है. कहानी है कि रावण अपने भाई, कुंभकर्ण और विभीषण के साथ तपस्या करता है. तपस्या पूरी हुई तो ब्रह्मदेव वरदान देने आए. विभीषण ने उनसे हरि कीर्तन मांगा, रावण ने देवता-दानव, किन्नर-गंधर्व पर विजय की मांग की. ब्रह्मा ने उन्हें वह दे दिया, जो उन्होंने मांगा, लेकिन ज्योंही वह कुंभकर्ण की ओर मु़ड़े, देवता घबरा गए...
कुंभकर्ण की तपस्या से घबराए देवता
वह सोचने लगे कि, न जाने यह कुंभकर्ण क्या ही मांग ले. इंद्र को चिंता थी कि ये इंद्रासन न मांग ले, क्योंकि तपस्या से पहले उसने यही संकल्प किया था. तब देवताओं ने बुद्धि और ज्ञान की देवी सरस्वती से अनुरोध किया कि अब वहीं कुछ करें. कहते हैं कि सरस्वती कुंभकर्ण की जीभ पर जाकर बैठ गईं. उनके इस प्रभाव से कुंभकर्ण जो कि ब्रह्माजी से वरदान स्वरूप में इंद्रासन मांगने वाला था, उसके अक्षर पलट गए और उसके मुख से निकला... निद्रासन... उसने कहा- हे ब्रह्मदेव! वरदान में मुझे निद्रासन चाहिए.
कहते हैं कि देवी सरस्वती का ही प्रभाव था जो कुंभकर्ण वरदान के प्रभाव से छह माह सोता था और छह माह जागता था. अगर उसे इस वरदान के विपरीत कभी जबरन जगाया गया तो उसकी मृत्यु तय थी और राम-रावण युद्ध में ऐसा हुआ भी.
जीभ पर सरस्वती बैठने का मुहावरा
लोककथा में शामिल देवी सरस्वती का या विवरण लोक की जुबानी में ऐसा चढ़ा है कि यह एक मुहावरा भी है, जिसमें कहते हैं कि, 'जीभ पर सरस्वती बैठी हैं.' यह एक वाक्यांश किसी की कही बात की सत्यता की पुष्टि के लिए कहा जाता है. ऐसी ही एक मान्यता है कि दिन में एक मुहूर्त या एक समय ऐसा होता है कि जिस वक्त 'जीभ पर सरस्वती का वास' होता है. यह धारणा कहां से आई और इसका आधार क्या है, इस बारे में स्पष्ट कुछ नहीं कह सकते हैं, लेकिन ये कहना गलत नहीं होगा कि देवी सरस्वती से जुड़ी लोककथाएं ही इस तरह की मान्यता का आधार हैं.
जब मंथरा ने भरे कैकेयी के कान
जीभ पर सरस्वती बैठने वाला ये उदाहरण, रामायण के ही एक और प्रसंग में मिलता है. तुलसीदास ने इसका वर्णन रामचरित मानस में किया है. प्रसंग है कि श्रीराम का राज्य अभिषेक होने वाला है. अयोध्या में खुशी की लहर है. तैयारियां चल रही हैं और नगर में उल्लास का माहौल है. दशरथ की तीनों रानियां भी बड़ी प्रसन्नता से इस उत्सव की तैयारी कर रही हैं, लेकिन मंथरा के मन में तो कुछ और है.
उसे कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा है और वह सीधे कैकेयी के भवन में पहुंचती है. यहां मंथरा एक से बढ़कर एक तर्क देकर कैकेयी को समझाती है कि राम का राज्याभिषेक किसी भी तरह से तुम्हारे लिए ठीक नहीं है. तब कैकेयी झल्लाकर कहती है कि तेरी बुद्धि हर ली गई है. काल ने उस पर पर्दा डाल दिया है और सरस्वती तेरे कंठ से ऐसा क्यों कहलवा रही हैं? तुलसीदास ने मानस लिखते हुए अलग-अलग दोहों चौपाइयों में देवी सरस्वती को कभी वाणी, कभी काल की बोली तो कभी शनि के न्याय दंड की आवाज भी कहा है. मंथरा के लिए वह कई बार पलटी हुई बुद्धि, बदली हुई जुबान और शनि की साढे़ साती जैसा संबोधन करते हैं.
नामु मंथरा मंदमति चेरी कैकइ केरि।
अजस पेटारी ताहि करि गई गिरा मति फेरि॥12॥
गूढ़ कपट प्रिय बचन सुनि तीय अधरबुधि रानि।
सुरमाया बस बैरिनिहि सुहृद जानि पतिआनि॥16॥
तुम्ह पूंछहु मैं कहत डेराउं। धरेहु मोर घरफोरी नाऊं॥
सजि प्रतीति बहुबिधि गढ़ि छोली। अवध साढ़साती तब बोली॥2॥
देवी सरस्वती को कहा गया है वाणी की देवी
यहां कैकेयी मंथरा की बातों के लिए सीधे तौर पर देवी सरस्वती को उलाहना (दोष) देती है. ऐसा इसलिए, क्योंकि देवी सरस्वती को स्वर और वाणी की देवी मानने की परंपरा सृष्टि के आरंभ से चली आ रही है. इसके लिए भी जो कथा पुराणों में है, उसके अनुसार देवी सरस्वती के ही कारण संसार में वाणी, शब्द और संगीत का तत्व आया है. कहते हैं कि जब ब्रह्मा ने सृष्टि का निर्माण कर लिया, तभी उन्होंने लगा कि इसमें कुछ कमी है.
ऐसे हुई देवी सरस्वती की उत्पत्ति
सृष्टि तब मौन थी और इसमें कोई आवाज या कोई शब्द नहीं था. तब ब्रह्मदेव ने हाथ में जल लेकर देवी महामाया का ध्यान किया. देवी महामाया की व्याख्या बहुत रहस्यमयी है, इसे प्रकृति की देवी, दश महाविद्या की देवी त्रिपुर सुंदरी और सृष्टि की आदि देवी भी कह सकते हैं. देवी महामाया के संकेत पर ब्रह्मा के ही शरीर से उनकी ब्राह्मी शक्ति एक ज्योति के रूप में प्रकट हुईं. इसी ज्योति ने जब शरीर धारण किया और अस्तित्व में आईं तो उन्होंने नाद शब्द ओंकार की ध्वनि की. इस नाद से संसार में मौन समाप्त हुआ और सृष्टि में रसों से युक्त हुई. देवी के कारण सृष्टि सरस हुई, इसलिए उन्हें 'सरस्वती' कहा गया.
सुर की आदि देवी होने के कारण इन्हें ही शारदा कहा गया, वाणी की देवी होने के कारण वाग्देवी और वीणा धारण करने के कारण वीणा वादिनी और वीणापाणि कहा गया. कहते हैं कि देवी ही संसार के हर प्राणियों के कंठ में विराजती हैं और वही नाद स्वरूप भी हैं. इसलिए हर जीव की बोली और भाषा में देवी सरस्वती का ही वास माना जाता है.
गीता में क्या कहते हैं श्रीकृष्ण?
गीता में श्रीकृष्ण जब अर्जुन को कर्मयोग का सिद्धांत समझाते हैं तब वह खुद को अक्षरों में अकार और मंत्रों में ओम कहते हैं. ऐसा कहने के पीछे वह जो कारण बताते हैं वह यह है कि अकार ही के कारण धीरे-धीरे हर स्वर की उत्पत्ति होती है और वह कंठ में धारण होते जाते हैं. नवजात जब बोल नहीं पाता है, तब भी वह जो आवाज निकालता है, वह प्रथम अक्षर 'अ' ही है. इसके अलावा सभी प्रकार के मंत्रों की उत्पत्ति भी ओम से ही होती है. सरस्वती की ही एक शक्ति गायत्री के रूप में इन मंत्रों को छंद रूप में धारण करती है और वेदों में समाहित करती है.
ऋषि मार्कंडेय की कथा
कंठ में सरस्वती के वास की ही यह अवधारणा आगे जाकर, भविष्यवाणी जैसी कल्पनाओं या फिर मान्यताओं का आधार बनीं. इसका दूसरा ठोस आधार श्राप और वरदान भी हैं. कहते हैं कि ऋषि मार्कंडेय के भाग्य में अल्पायु होना लिखा था, लेकिन उन्होंने बचपन से ही ऋषियों-मुनियों की बहुत सेवा की. एक दिन सप्तर्षि उनके घर पधारे. बालक मार्कंडेय ने उनकी बहुत सेवा की. जाते हुए सभी ऋषियों ने उन्हें बिना जाने ही 'आयुष्मान' होने का आशीष दिया, लेकिन जब ऋषि वशिष्ठ ने उनके सिर पर हाथ फेरा और माथा देखा तो वह चौंके कि, यह बालक तो अल्पायु है और 12 वर्ष ही इसका जीवन है.
तब उन्होंने कहा कि, यह दैवयोग है, 6 ऋषियों का आयुष्मान होने का वर यूं खाली नहीं जा सकता है. उन्होंने देवी सरस्वती से वचन की रक्षा की प्रार्थना. उन्होंने उनके साथ ही खुद भी मार्कंडेय को आयुष्मान होने का वर दिया और साथ ही महाकाल की तपस्या का रास्ता भी सुझाया. 12 वर्ष होने पर जब काल उनके प्राण खींचने चला तो महाकाल (शिवजी) खुद प्रकट हुए और उन्होंने मार्कंडेय के प्राण बचा लिए. मार्कंडेय ऋषि ने ही आगे चलकर 'महामृत्युंजय मंत्र' को सिद्ध किया.
श्राप से निकली 'काली जुबान' की अवधारणा
इसी तरह 'काली जुबान' की गहराई में जाएं तो यह अवधारणा श्राप की मान्यताओं से निकलती है. जब ऋषि क्रोध में श्राप देते थे और उनका कहा सत्य होता था, क्योंकि श्राप में एक तरह का अहित ही छिपा होता था और इसे वाणी का सबसे खराब स्वरूप माना गया है. इसलिए कालांतर में यही श्राप 'काली जुबान' कहलाने लगा. इस्लाम और बाइबिल में यही दुआ और बद्दुआ कहलाती है. इसके लिए बून और कर्स जैसे शब्द भी आए हैं.
पाप माना गया है श्राप
श्राप भले ही पौराणिक कहानियों का अहम हिस्सा रहे हैं, लेकिन इनका दिया जाना भी पापकर्म माना गया है. ऋषियों ने भले ही कई कथाओं को अपने श्राप के जरिए आगे बढ़ाया है, लेकिन धर्म इसे भी एक तरह का अधर्म मानता है. लिहाजा, श्राप के साथ भी एक श्राप जुड़ा हुआ है. अगर किसी ने श्राप दिया तो उसका तप और पुण्य आधा हो जाएगा. ऐसा इसलिए ताकि ऋषि भी कर्म के बंधन से बंध सकें, क्रोध से दूर रहें और क्रोध की उस स्थिति में तभी पहुंचे जब कोई और राह न बची हो. वरदान भले ही आसानी से दिया जा सकता था, लेकिन श्राप देना बहुत कठिन था. ऐसी कई कहानियां, जिनमें श्राप देने के कारण ऋषियों का तप आधा रह गया और उन्हें फिर से अपनी तपस्या शुरू करनी पड़ी.
कब जुबान पर बैठी होती हैं देवी सरस्वती?
कुल मिलाकर यह है, सनातन हमारे शरीर को दैवीय मानता है तो उसकी हर क्रिया भी दैवीय है. वाणी उसमें प्रमुख है. इसलिए उसे देवी की संज्ञा दी गई है और सीधे तौर पर देवी सरस्वती से जोड़ा गया है. ज्योतिष और मुहूर्त विज्ञान तो यह भी कहता है कि 24 घंटे यानी 8 पहर में एक ऐसा समय होता है, जब वाकई देवी सरस्वती हमारी जुबान पर होती हैं और जागृत अवस्था में रहती हैं.
इसे लेकर ब्रह्म मुहूर्त की मान्यता है. सुबह 3 बजे के बाद के समय को ब्रहम मुहूर्त कहा जाता है. इस समय से नए दिन की शुरुआत मानी जाती है. सुबह 3 बजकर 20 मिनट से 3 बजकर 40 मिनट के बीच मां सरस्वती के जुबान पर बैठने का सबसे सही समय होता है. माना जाता है कि ऐसे में इस दौरान बोली गई कोई भी बात जरूर सच होती है.
इसकी व्याख्या में जाएं तो इसकी अवधारणा सृष्टि के आरंभ और अंत से है. असल में सूर्योदय के समय नया दिन निकलता है और सूर्यास्त के साथ वह दिन खत्म हो जाता है. यह एक अल्पकालीन उत्तपत्ति और प्रलय है. इस तरह हर दिन ब्रह्मा अपने ब्रह्मकाल में नई सृष्टि की उत्पत्ति करते हैं और तब उनकी ब्राह्मी शक्ति सरस्वती इस रचना में उनकी सहायता करती हैं. इसलिए वह भी जागृत होती हैं.
ब्रह्म मुहूर्त में जागृत होती हैं देवी सरस्वती
ब्रह्म मुहूर्त में शास्त्रों में दर्ज नियम इसीलिए है कि हम इस नई सृष्टि के साथ एकाकार हो सकें. यह समय किसी भी तरह की सिद्धि को पाने भी सही समय होता है. छात्रों के लिए पढ़ाई के लिए भी यह समय सही माना गया है. इस वक्त का पढ़ा हुआ पाठ इसीलिए याद हो जाता है. सरस्वती इस समय सिर्फ जुबान पर ही नहीं बैठती हैं, बल्कि वह हमारी तंत्र-तंत्रिकाओं और नाड़ी तंत्र को भी चेतना देती हैं. इसलिए कहते हैं कि सुबह-सुबह कोई अशुभ बात, दिमाग में आए तब भी नहीं बोलनी चाहिए. भजन-ध्यान, कीर्तन-साधना के लिए इसी वजह से ब्रह्म मुहूर्त का समय तय किया गया है.