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रामचरित मानस: जब शबरी के दिए बेर खाकर प्रभु राम ने बताया, कितने तरह की होती है भक्ति!

दार श्रीरामजी उसे गति देकर शबरीजी के आश्रम में पधारे. मुकुट और हृदय पर वनमाला धारण किए हुए सुन्दर सांवले और गोरे दोनों भाइयों के चरणों में शबरीजी लिपट पड़ीं.

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जब शबरी के दिए बेर खाकर प्रभु राम ने बताया, कितने तरह की होती है भक्ति!
जब शबरी के दिए बेर खाकर प्रभु राम ने बताया, कितने तरह की होती है भक्ति!

श्रीराम की आवाज पर लक्ष्मणजी उन्हें ढूंढने वन को चले गए. रावण सूना मौका देखकर संन्यासी के वेष में श्रीसीताजी के समीप आया. जिसके डर से देवता और दैत्य तक इतना डरते हैं कि रात को नींद नहीं आती और दिन में भरपेट अन्न नहीं खाते. वही दस सिरवाला रावण कुत्ते की तरह इधर-उधर ताकता हुआ चोरी के लिये चला. सीताजी ने कहा- हे यति गोसाईं! सुनो, तुमने तो दुष्ट की तरह वचन कहे. तब रावण ने अपना असली रूप दिखलाया और जब नाम सुनाया तब तो सीताजी भयभीत हो गयीं. उन्होंने गहरा धीरज धरकर कहा- 'अरे दुष्ट! खड़ा तो रह, प्रभु आ गये. जैसे सिंह की स्त्री को तुच्छ खरगोश चाहे, वैसे ही अरे राक्षसराज! तू मेरी चाह करके काल के वश हुआ है. ये वचन सुनते ही रावण को क्रोध आ गया, परन्तु मन में उसने सीताजी के चरणों की वन्दना करके सुख माना. फिर क्रोध में भरकर रावण ने सीताजी को रथपर बैठा लिया और वह बड़ी उतावली के साथ आकाशमार्ग से चला; किन्तु डर के मारे उससे रथ हांका नहीं जाता था.

सीताजी विलाप कर रही थीं- हा जगत के अद्वितीय वीर श्रीरघुनाथजी! आपने किस अपराध से मुझपर दया भुला दी. हे दुखों के हरने वाले, हे शरणागत को सुख देने वाले, हा रघुकुलरूपी कमल के सूर्य! हा लक्ष्मण! तुम्हारा दोष नहीं है. मैंने क्रोध किया, उसका फल पाया. श्रीजानकीजी बहुत प्रकार से विलाप कर रही हैं- हाय! प्रभु की कृपा तो बहुत है, परन्तु वे स्नेही प्रभु बहुत दूर रह गये हैं. प्रभु को मेरी यह विपत्ति कौन सुनावे? यज्ञ के अन्न को गदहा खाना चाहता है. सीताजी का भारी विलाप सुनकर जड़-चेतन सभी जीव दुखी हो गये. गृध्रराज जटायु ने सीताजी की दुखभरी वाणी सुनकर पहचान लिया कि ये रघुकुलतिलक श्रीरामचन्द्रजी की पत्नी हैं. उसने देखा कि नीच राक्षस इनको बुरी तरह लिए जा रहा है, जैसे कपिला गाय म्लेच्छ के पाले पड़ गई हो. वह बोला- हे सीते पुत्री! भय मत कर. मैं इस राक्षस का नाश करूंगा. यह कहकर वह पक्षी क्रोध में भरकर कैसे दौड़ा, जैसे पर्वत की ओर वज्र छूटता हो.

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उसने ललकार कर कहा- रे रे दुष्ट! खड़ा क्यों नहीं होता? निडर होकर चल दिया! मुझे तूने नहीं जाना? उसको यमराज के समान आता हुआ देखकर रावण घूमकर मन में अनुमान करने. यह या तो मैनाक पर्वत है या पक्षियों का स्वामी गरुड़. पर वह (गरुड़) तो अपने स्वामी विष्णुसहित मेरे बल को जानता है! कुछ पास आने पर रावण ने उसे पहचान लिया और बोला- यह तो बूढ़ा जटायु है! यह मेरे हाथरूपी तीर्थ में शरीर छोड़ेगा. यह सुनते ही गीध क्रोध में भरकर बड़े वेग से दौड़ा और बोला- रावण! मेरी सिखावन सुन. जानकीजी को छोड़कर कुशलपूर्वक अपने घर चला जा. नहीं तो हे बहुत भुजाओं वाले! ऐसा होगा कि श्रीरामजी के क्रोधरूपी अत्यन्त भयानक अग्नि में तेरा सारा वंश पतिंगा (होकर भस्म) हो जायगा. योद्धा रावण कुछ उत्तर नहीं देता. तब गीध क्रोध करके दौड़ा. उसने रावण के बाल पकड़कर उसे रथ के नीचे उतार लिया, रावण पृथ्वी पर गिर पड़ा. गीध सीताजी को एक ओर बैठाकर फिर लौटा और चोंचों से मार-मारकर रावण के शरीर को विदीर्ण कर डाला. इससे उसे एक घड़ी के लिये मूर्च्छा हो गयी. तब खिसियाये हुए रावण ने क्रोधयुक्त होकर अत्यन्त भयानक कटार निकाली और उससे जटायु के पंख काट डाले. पक्षी (जटायु) श्रीरामजी की अद्भुत लीला का स्मरण करके पृथ्वी पर गिर पड़ा. सीताजी को फिर रथ पर चढ़ाकर रावण बड़ी उतावली के साथ चला, उसे भय कम न था. सीताजी आकाश में विलाप करती हुई जा रही हैं. मानो व्याध के वश में पड़ी हुई (जाल में फंसी हुई) कोई भयभीत हिरनी हो!

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पर्वत पर बैठे हुए बंदरों को देखकर सीताजी ने हरिनाम लेकर वस्त्र डाल दिया. इस प्रकार वह सीताजी को ले गया और उन्हें अशोकवन में जा रखा. सीताजी को बहुत प्रकार से भय और प्रीति दिखलाकर जब वह दुष्ट हार गया, तब उन्हें यत्न कराके (सब व्यवस्था ठीक कराके) अशोक वृक्ष के नीचे रख दिया.

इधर श्रीरघुनाथजी ने छोटे भाई लक्ष्मणजी को आते देखकर बाह्यरूप में बहुत चिन्ता की और कहा- हे भाई! तुमने जानकी को अकेला छोड़ दिया और मेरी आज्ञा का उल्लंघन कर यहां चले आये! राक्षसों के झुंड वन में फिरते रहते हैं. मेरे मन में ऐसा आता है कि सीता आश्रम में नहीं है. छोटे भाई लक्ष्मणजी ने श्रीरामजी के चरणकमलों को पकड़कर हाथ जोड़कर कहा- हे नाथ! मेरा कुछ भी दोष नहीं है. लक्ष्मणजी सहित प्रभु श्रीरामजी वहां गए जहां गोदावरी के तट पर उनका आश्रम था. आश्रम को जानकीजी से रहित देखकर श्रीरामजी साधारण मनुष्य की भांति व्याकुल और दीन (दुखी) हो गए.

वे विलाप करने लगे- हा गुणों की खान जानकी! हा रूप, शील, व्रत और नियमों में पवित्र सीते! लक्ष्मणजी ने बहुत प्रकार से समझाया. तब श्रीरामजी लताओं और वृक्षों की पंक्तियों से पूछते हुए चले. हे पक्षियो! हे पशुओ! हे भौंरों की पंक्तियो! तुमने कहीं मृगनयनी सीता को देखा है? खंजन, तोता, कबूतर, हिरन, मछली, भौंरों का समूह, प्रवीण कोयल, कुन्दकली, अनार, बिजली, कमल, शरद का चन्द्रमा और नागिनी, वरुण का पाश, कामदेव का धनुष, हंस, गज और सिंह- ये सब आज अपनी प्रशंसा सुन रहे हैं. बेल, सुवर्ण और केला हर्षित हो रहे हैं. इनके मन में जरा भी शंका और संकोच नहीं है. हे जानकी! सुनो, तुम्हारे बिना ये सब आज ऐसे हर्षित हैं, मानो राज पा गए हों. तुमसे यह अनख (स्पर्धा) कैसे सही जाती है? हे प्रिये ! तुम शीघ्र ही प्रकट क्यों नहीं होती? श्रीरामजी सीताजी को खोजते हुए इस प्रकार विलाप करते हैं, मानो कोई महाविरही और अत्यन्त कामी पुरुष हो. पूर्णकाम, आनन्द की राशि, अजन्मा और अविनाशी श्रीरामजी मनुष्यों के से चरित्र कर रहे हैं. आगे जाने पर उन्होंने गृध्रपति जटायु को पड़ा देखा. वह श्रीरामजी के चरणों का स्मरण कर रहा था, जिनमें ध्वजा-कुलिश आदि की रेखाएं चिह्न हैं. कृपासागर श्रीरघुवीर ने अपने करकमल से उसके सिर का स्पर्श किया. शोभाधाम श्रीरामजी का परम सुन्दर मुख देखकर उसकी सब पीड़ा जाती रही.

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तब धीरज धरकर गीध ने यह वचन कहा- हे भव (जन्म-मृत्यु) के भय का नाश करने वाले श्रीरामजी! सुनिये. हे नाथ! रावण ने मेरी यह दशा की है. उसी दुष्ट ने जानकीजी को हर लिया है. हे गोसाईं! वह उन्हें लेकर दक्षिण दिशा को गया है. सीताजी कुररी (कुर्ज) की तरह अत्यन्त विलाप कर रही थीं. हे प्रभु! मैंने आपके दर्शनों के लिये ही प्राण रोक रखे थे. हे कृपानिधान! अब ये चलना ही चाहते हैं. श्रीरामचन्द्रजी ने कहा- हे तात! शरीर को बनाये रखिये. तब उसने मुस्कुराते हुए मुंह से यह बात कही- मरते समय जिनका नाम मुख में आ जाने से अधम (महान् पापी) भी मुक्त हो जाता है, वही (आप) मेरे नेत्रों के विषय होकर सामने खड़े हैं. हे नाथ! अब मैं किस कमी की पूर्ति के लिये देह को रखूं? नेत्रों में जल भरकर श्रीरघुनाथजी कहने लगे- हे तात! आपने अपने श्रेष्ठ कर्मों से दुर्लभ गति पाई है. जिनके मन में दूसरे का हित बसता है (समाया रहता है), उनके लिये जगत में कुछ भी (कोई भी गति) दुर्लभ नहीं है. हे तात! शरीर छोड़कर आप मेरे परम धाम में जाइये. मैं आपको क्या दूं? आप तो सब कुछ पा चुके हैं. हे तात! सीताहरण की बात आप जाकर पिताजी से न कहियेगा. यदि मैं राम हूं तो दशमुख रावण कुटुम्ब सहित वहां आकर स्वयं ही कहेगा. जटायु ने गीध की देह त्यागकर हरि का रूप धारण किया और बहुत-से अनुपम (दिव्य) आभूषण और पीताम्बर पहन लिये. श्याम शरीर है, विशाल चार भुजाएं हैं और नेत्रों में प्रेम तथा आनन्द के आंसुओं का जल भरकर वह स्तुति कर रहा है.

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हे रामजी! आपकी जय हो. आपका रूप अनुपम है, आप निर्गुण हैं, सगुण हैं और सत्य ही गुणों के (माया के) प्रेरक हैं. दस सिर वाले रावण की प्रचंड भुजाओं को खंड-खंड करने के लिये प्रचंड बाण धारण करने वाले, पृथ्वी को सुशोभित करने वाले, जलयुक्त मेघ के समान श्याम शरीरवाले, कमल के समान मुख और लाल कमल के समान विशाल नेत्रों वाले, विशाल भुजाओं वाले और भव-भय से छुड़ाने वाले कृपालु श्रीरामजी को मैं नित्य नमस्कार करता हूं. आप अपरिमित बल वाले हैं, अनादि, अजन्मा, अव्यक्त (निराकार), एक, अगोचर (अलक्ष्य), गोविन्द (वेदवाक्यों द्वारा जानने योग्य), इन्द्रियों से अतीत, जन्म-मरण, सुख-दुख, हर्ष-शोकादि द्वन्द्वों को हरने वाले, विज्ञान की घनमूर्ति और पृथ्वी के आधार हैं तथा जो संत राम-मन्त्र को जपते हैं, उन अनन्त सेवकों के मन को आनन्द देने वाले हैं. उन निष्कामप्रिय तथा काम आदि दुष्टों (दुष्ट-वृत्तियों) के दल का दलन करने वाले श्रीरामजी को मैं नित्य नमस्कार करता हूं, जिनको श्रुतियां निरंजन (माया से परे), ब्रह्म, व्यापक, निर्विकार और जन्मरहित कहकर गान करती हैं. मुनि जिन्हें ध्यान, ज्ञान, वैराग्य और योग आदि अनेक साधन करके पाते हैं. वे ही करुणाकन्द, शोभाके समूह स्वयं श्रीभगवान प्रकट होकर जड़-चेतन समस्त जगत को मोहित कर रहे हैं. मेरे हृदय-कमल के भ्रमररूप उनके अंग-अंग में बहुत से कामदेवों की छवि शोभा पा रही है.

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जो अगम और सुगम हैं, निर्मलस्वभाव हैं, विषम और सम हैं और सदा शीतल (शान्त) हैं. मन और इन्द्रियों को सदा वश में करते हुए योगी बहुत साधन करने पर जिन्हें देख पाते हैं, वे तीनों लोकों के स्वामी, रमानिवास श्रीरामजी निरन्तर अपने दासों के वशमें रहते हैं, वे ही मेरे हृदय में निवास करें, जिनकी पवित्र कीर्ति आवागमन को मिटाने वाली है. अखंड भक्ति का वर मांगकर गृध्रराज जटायु श्रीहरि के परमधाम को चला गया. श्रीरामचन्द्रजी ने उसकी दाहकर्म आदि सारी क्रियाएं यथायोग्य अपने हाथों से कीं. श्रीरघुनाथजी अत्यन्त कोमल चित्तवाले, दीनदयालु और बिना ही कारण कृपालु हैं. गीध पक्षियों में भी अधम पक्षी और मांसाहारी था, उसको भी वह दुर्लभ गति दी, जिसे योगीजन मांगते रहते हैं.

फिर दोनों भाई सीताजी को खोजते हुए आगे चले. वे वन की सघनता देखते जाते हैं. वह सघन वन लताओं और वृक्षों से भरा है. उसमें बहुत से पक्षी, मृग, हाथी और सिंह रहते हैं. श्रीरामजी ने रास्ते में आते हुए कबंध राक्षस को मार डाला. उसने अपने शाप की सारी बात कही. वह बोला- दुर्वासाजी ने मुझे शाप दिया था. अब प्रभु के चरणों को देखने से वह पाप मिट गया. श्रीरामजी ने कह- हे गन्धर्व! सुनो, मैं तुम्हें कहता हूं, ब्राह्मणकुल से द्रोह करने वाला मुझे नहीं सुहाता. मन, वचन और कर्म से कपट छोड़कर जो भूदेव ब्राह्मणों की सेवा करता है, मुझ समेत ब्रह्मा, शिव आदि सब देवता उसके वश में हो जाते हैं.

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श्रीरामजी ने अपना धर्म (भागवत-धर्म) कहकर उसे समझाया. अपने चरणों में प्रेम देखकर वह उनके मन को भाया. तदनन्तर श्रीरघुनाथजी के चरणकमलों में सिर नवाकर वह अपनी गति (गन्धर्व का स्वरूप) पाकर आकाश में चला गया. उदार श्रीरामजी उसे गति देकर शबरीजी के आश्रम में पधारे. शबरीजी ने श्रीरामचन्द्रजी को घर में आये देखा, तब मुनि मतंगजी के वचनों को याद करके उनका मन प्रसन्न हो गया. कमल-सदृश नेत्र और विशाल भुजावाले, सिर पर जटाओं का मुकुट और हृदय पर वनमाला धारण किए हुए सुन्दर सांवले और गोरे दोनों भाइयों के चरणों में शबरीजी लिपट पड़ीं. वे प्रेम में मग्न हो गईं, मुख से वचन नहीं निकलता. बार-बार चरण-कमलों में सिर नवा रही हैं. फिर उन्होंने जल लेकर आदरपूर्वक दोनों भाइयों के चरण धोये और फिर उन्हें सुन्दर आसनों पर बैठाया. उन्होंने अत्यन्त रसीले और स्वादिष्ट कन्द, मूल और फल लाकर श्रीरामजी को दिये. प्रभु ने बार-बार प्रशंसा करके उन्हें प्रेमसहित खाया. फिर वे हाथ जोड़कर आगे खड़ी हो गयीं. प्रभु को देखकर उनका प्रेम अत्यन्त बढ़ गया. उन्होंने कहा- मैं किस प्रकार आपकी स्तुति करूं? मैं नीच जाति की और अत्यन्त मूढ़बुद्धि हूं. जो अधम से भी अधम हैं, स्त्रियां उनमें भी अत्यन्त अधम हैं; और उनमें भी हे पापनाशन! मैं मन्दबुद्धि हूं.

श्रीरघुनाथजी ने कहा- हे भामिनि! मेरी बात सुन. मैं तो केवल एक भक्ति ही का सम्बन्ध मानता हूं. इन सबके होने पर भी भक्ति से रहित मनुष्य कैसा लगता है, जैसे जलहीन बादल शोभाहीन दिखाई पड़ता है. मैं तुझसे अब अपनी नवधा भक्ति कहता हूं. तू सावधान होकर सुन और मन में धारण कर. पहली भक्ति है संतों का सत्संग. दूसरी भक्ति है मेरे कथा-प्रसंग में प्रेम. तीसरी भक्ति है अभिमानरहित होकर गुरु के चरणकमलों की सेवा और चौथी भक्ति यह है कि कपट छोड़कर मेरे गुणसमूहों का गान करे. मेरे (राम) मन्त्र का जाप और मुझमें दृढ़ विश्वास यह पांचवीं भक्ति है, जो वेदों में प्रसिद्ध है. छठी भक्ति है इन्द्रियों का निग्रह, शील (अच्छा स्वभाव या चरित्र), बहुत कार्यों से वैराग्य और निरंतर संत पुरुषों के धर्म (आचरण) में लगे रहना. सातवीं भक्ति है जगत भर को समभाव से मुझमें ओतप्रोत देखना और संतों को मुझसे भी अधिक करके मानना. आठवीं भक्ति है जो कुछ मिल जाय उसी में संतोष करना और स्वप्न में भी पराये दोषों को न देखना. नवीं भक्ति है सरलता और सबके साथ कपटरहित बर्ताव करना, हृदय में मेरा भरोसा रखना और किसी भी अवस्था में हर्ष और दैन्य (विषाद) का न होना. इन नवों में से जिनके एक भी होती है, वह स्त्री-पुरुष, जड़-चेतन कोई भी हो, हे भामिनि! मुझे वही अत्यन्त प्रिय है. फिर तुझमें तो सभी प्रकार की भक्ति दृढ़ है. अतएव जो गति योगियों को भी दुर्लभ है, वही आज तेरे लिये सुलभ हो गई है.

मेरे दर्शन का परम अनुपम फल यह है कि जीव अपने सहज स्वरूप को प्राप्त हो जाता है. हे भामिनि ! अब यदि तू गजगामिनी जानकी की कुछ खबर जानती हो तो बता. शबरी ने कहा- हे रघुनाथजी! आप पंपा नामक सरोवर को जाइये, वहां आपकी सुग्रीव से मित्रता होगी. हे देव! हे रघुवीर! वह सब हाल बतावेगा. हे धीरबुद्धि! आप सब जानते हुए भी मुझसे पूछते हैं! बार-बार प्रभु के चरणों में सिर नवाकर, प्रेमसहित उसने सब कथा सुनायी. सब कथा कहकर भगवान के मुख के दर्शन कर, हृदय में उनके चरणकमलों को धारण कर लिया और योगाग्नि से देह को त्यागकर (जलाकर) वह उस दुर्लभ हरिपद में लीन हो गयी, जहां से लौटना नहीं होता. जो नीच जाति की और पापों की जन्मभूमि थी, ऐसी स्त्री को भी जिन्होंने मुक्त कर दिया, अरे महादुर्बुद्धि मन! तू ऐसे प्रभु को भूलकर सुख चाहता है? श्रीरामचन्द्रजी ने उस वन को भी छोड़ दिया और वे आगे चले. दोनों भाई अतुलनीय बलवान और मनुष्यों में सिंह के समान हैं. प्रभु विरही की तरह विषाद करते हुए अनेकों कथाएं और संवाद कहते हैं.

हे लक्ष्मण! जरा वन की शोभा तो देखो. इसे देखकर किसका मन क्षुब्ध नहीं होगा? पक्षी और पशुओं के समूह सभी स्त्रीसहित हैं. मानो वे मेरी निन्दा कर रहे हैं. हमें देखकर हिरनों के झुंड भागने लगते हैं, तब हिरनियां उनसे कहती हैं- तुमको भय नहीं है. तुम तो साधारण हिरनों से पैदा हुए हो, अतः तुम आनन्द करो. ये तो सोने का हिरन खोजने आये हैं. हाथी हथिनियों को साथ लगा लेते हैं. वे मानो मुझे शिक्षा देते हैं कि स्त्री को कभी अकेली नहीं छोड़ना चाहिये. भलीभांति चिन्तन किए हुए शास्त्र को भी बार-बार देखते रहना चाहिये. अच्छी तरह सेवा किये हुए भी राजा को वश में नहीं समझना चाहिये और स्त्री को चाहे हृदय में ही क्यों न रखा जाय; परन्तु युवती स्त्री, शास्त्र और राजा किसी के वश में नहीं रहते. हे तात! इस सुन्दर वसन्त को तो देखो. प्रिया के बिना मुझको यह भय उत्पन्न कर रहा है. मुझे विरह से व्याकुल, बलहीन और बिलकुल अकेला जानकर कामदेव ने वन, भौंरों और पक्षियों को साथ लेकर मुझपर धावा बोल दिया, परन्तु जब उसका दूत यह देख गया कि मैं भाई के साथ हूं, तब उसकी बात सुनकर कामदेव ने मानो सेना को रोककर डेरा डाल दिया है. विशाल वृक्षों में लताएं उलझी हुई ऐसी मालूम होती हैं मानो नाना प्रकार के तंबू तान दिये गए हैं. केला और ताड़ सुन्दर ध्वजा-पताका के समान हैं. इन्हें देखकर वही नहीं मोहित होता जिसका मन धीर है.

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