सुप्रीम कोर्ट ने तलाक-ए-हसन की वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई में इस प्रथा की कड़ी आलोचना की है. कोर्ट ने कहा कि क्या आधुनिक और सभ्य समाज में ऐसी भेदभावपूर्ण परंपराएं स्वीकार की जा सकती हैं? कोर्ट ने वकील या किसी तीसरे व्यक्ति के जरिए तलाक का नोटिस भेजने की प्रक्रिया पर भी कड़ा एतराज जताया और साफ कहा कि तलाकनामा पर पति के खुद के हस्ताक्षर होना जरूरी है.
पीठ ने सवाल किया कि पति अपनी पत्नी को तलाक देने के लिए खुद सामने क्यों नहीं आता? क्या पति इतना असंवेदनशील है कि वह अपनी पत्नी से सीधे बात करने तक को तैयार नहीं? कोर्ट ने कहा कि समाज अगर भेदभावपूर्ण प्रथाओं को बढ़ावा देगा, तो न्यायपालिका को हस्तक्षेप करना ही पड़ेगा. ऐसे में यह जानना जरूरी हो जाता है कि इस्लाम में तलाक की कौन-कौन सी प्रक्रियाएं हैं, तलाक-ए-हसन असल में क्या है, और मुस्लिम महिलाओं के हक क्या हैं.
मुस्लिम पर्सनल लॉ जिसे शरिया कहा जाता है, इसमें तलाक को मुख्य रूप से दो हिस्सों में बांटा गया है. पहला पति द्वारा दिया जाने वाला तलाक और दूसरा पत्नी द्वारा लिया जाने वाला तलाक.
1. तलाक-अहसन: इसमें पति सिर्फ एक बार "तलाक" कहता है. पति के तलाक कहने के बाद पत्नी 3 माह की इद्दत में रहती है. इद्दत के दौरान पति चाहे तो तलाक वापस ले सकता है. सुलह की पूरी गुंजाइश रहती है, इसलिए यह सबसे आसान तरीका माना गया है.
इद्दत अरबी शब्द है, जिसका मतलब ‘गिनती’ होता है. इस्लामी कानून के तहत इद्दत एक जरूरी अवधारणा होती है. आमतौर पर यह इंतजार की अवधि होती है, जिसका पालन महिला अपने पति (शौहर) की मृत्यु या तलाक के बाद करती है. कुरान की आयतें (अल-बकरा 2:234:235) में भी इद्दत के महत्व पर जोर दिया गया है.
2. तलाक-ए-हसन: इसमें पति तीन महीनों में हर महीने एक बार “तलाक” कहता है. पहले और दूसरे महीने में सुलह हो जाए, तो तलाक की प्रक्रिया रुक जाती है. तीसरी बार तलाक बोलने पर तलाक अंतिम माना जाता है. सुप्रीम कोर्ट में यही प्रक्रिया फिलहाल विवाद में घिरी है.
3. तलाक-ए-बिद्दत (तीन तलाक) : इसमें व्यक्ति एक बार में तीन बार “तलाक” कहकर शादी खत्म कर देता है. इसमें सुलह या फिर से सोचने की कोई गुंजाइश नहीं रहती. भारत सहित कई मुस्लिम देशों जैसे मिस्र, सीरिया, जॉर्डन, कुवैत, इराक, मलेशिया में तलाक के इस तरीके पर पाबंदी है. भारत में 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने इसे अवैध और असंवैधानिक ठहराया.
4. खुला (Khula): मुस्लिम समाज में महिलाओं के तलाक लेने के लिए भी विकल्प है. महिलाएं खुला तलाक ले सकती हैं. कोर्ट के हस्तक्षेप के बिना कोई महिला खुला तलाक के तहत पति से तलाक लेने की बात कर सकती है. हालांकि, इस तरह के तलाक में महिला को मेहर यानी निकाह के समय पति की तरफ से दिए पैसे चुकाने होते हैं. साथ ही खुला तलाक में पति की रजामंदी भी जरूरी होती है. अगर पति सहमत नहीं होता है, तो पत्नी इस्लामिक काउंसिल या कोर्ट में तलाक के लिए आवेदन कर सकती है. आम तौर पर इस प्रक्रिया को लिखित रूप में दर्ज किया जाता है, जिसमें गवाह और मध्यस्थ शामिल हो सकते हैं.
5. तलाक मुबारत क्या है
इस्लाम में अगर पति-पत्नी के रिश्ते इतने खराब हो जाएं कि वे साथ में खुश होकर नहीं रह पा रहे हों, और दोनों ही अलग होना चाहते हों, तो वे आपसी सहमति से तलाक ले सकते हैं यह तरीका शांति से और बिना लड़ाई-झगड़े के अलग होने का माना जाता है, जहां दोनों अपनी मरजी से फैसला लेते हैं.
इस्लाम ने मुस्लिम औरतों को क्या हक दिये हैं ?
इस्लाम महिलाओं को विवाह और तलाक के मामलों में कई अधिकार देता है, जिनमें मेहर का हक खास है. मेहर पत्नी की सुरक्षा से जुड़ा है. मेहर एक रकम या जमीन हो सकती है जिसे शादी के समय पति को किसी भी हालत में पत्नी को देना होता है .
कुरान में मेहर का उल्लेख सूरह अन-निसा (4:4) और सूरह अल-बक़रा (2:236-237) में किया गया है. सूरह अन-निसा (4:4) में विवाह के बाद स्त्रियों को पति की तरफ से उपहार दिये जाने का आदेश है.
तलाक की मांग का अधिकार
महिलाएं खुला, मुबारत (आपसी सहमति), या फस्ख (काजी/कोर्ट से तलाक) के जरिए विवाह समाप्त कर सकती हैं. वहीं तलाक ए अहसन से दिए गए तलाक में पत्नी के इद्दत की अवधि के दौरान पति का ये फर्ज है कि वो पत्नी को आर्थिक रूप से मदद करेगा.
सम्मानजनक जीवन का अधिकार
इस्लाम में पति-पत्नी के बीच समान सम्मान, न्याय और आपसी सहमति पर जोर दिया गया है. अत्याचार, उत्पीड़न या अधिकारों के हनन की स्थिति में महिला को शादी खत्म करने का अधिकार देता है.