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ब्राह्मण की संतान रावण क्यों कहलाया असुरों का राजा, कैसे मिली थी सोने की लंका?

अपनी शुरुआती शिक्षा-दीक्षा के बाद रावण ने कई वर्षों तक शिव की गहन तपस्या की. तपस्या के दौरान रावण ने शिव को प्रसन्न करने के लिए बलिदान के रूप में अपना सिर 10 बार काटा. हर बार जब वो अपना सिर काटता था तो उसके धड़ में एक नया सिर लग जाता था जिससे उसने अपनी तपस्या पूरी की और अंत में भगवान शिव ने उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर उसे वरदान दिया. तब रावण ने अहंकार में अपने वरदान में नश्वर इंसानों को छोड़कर देवताओं, राक्षसों, सांप और जंगली जानवरों से हानि ना होने का वर मांगा जिसका मतलब था कि ये सभी प्रजातियां उसे कोई नुकसान नहीं पहुंचा सकतीं. यही वजह है कि बाद में मनुष्य रूप में जन्म लेकर राम ने रावण का अंत किया था.

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राम ने क्यों कहा रावण को विद्वान
राम ने क्यों कहा रावण को विद्वान

रामायण, विजयदशमी या दीवाली का जिक्र होने पर हमारे मन में सबसे पहला ख्याल श्रीराम और रावण के युद्ध और भगवान राम द्वारा रावण के अंत का आता है. लेकिन शास्त्रों में रावण को एक दैत्य, राक्षस, अत्याचारी के अलावा भी कई रूपों में वर्णित किया गया है. रावण को महान विद्वान, प्रकांड पंडित, महाज्ञानी, राजनीतिज्ञ, महाप्रतापी, महापराक्रमी योद्धा और अत्यन्त बलशाली जैसे नामों से पुकारा गया है. रामायण में जिक्र है कि राम ने भी एक बार रावण को 'महा विद्वान' (उसके ज्ञान के संदर्भ में महान ब्राह्मण) के रूप में संबोधित किया था.

रामायण में रावण को ऋषि विश्रवा की संतान बताया गया है लेकिन उसकी मां कैकसी क्षत्रीय राक्षस कुल की थीं. इसलिए उसे ब्रह्मराक्षस कहा जाता था. राक्षसी और क्षत्रिय दोनों गुणों के साथ वो बेहद बलशाली और बहुत बड़ा शिवभक्त था. रावण का जन्म महान ऋषि विश्रवा (वेसमुनि) और उनकी पत्नी दैत्य राजकुमारी कैकसी के घर हुआ था. उनका जन्म देवगण में हुआ था क्योंकि उनके दादा ऋषि पुलस्त्य ब्रह्मा के दस मानस पुत्रों में एक थे. वो सात महान ऋषियों के समूह जिसे सप्तर्षि कहा जाता है, उसके सदस्य थे. कैकसी के पिता और दैत्यों के राजा सुमाली (सुमालया) की इच्छा थी कि उनकी बेटी की शादी नश्वर दुनिया के सबसे शक्तिशाली व्यक्ति के साथ हो ताकि उससे एक असाधारण संतान का जन्म हो.

रावण के जन्म की ये है कहानी

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उन्होंने अपनी बेटी के लिए आए विश्व के बड़े से बड़े राजाओं के प्रस्तावों को ठुकरा दिया क्योंकि वो सभी उनसे कम शक्तिशाली थे. कैकसी ने इसके बाद ऋषियों में अपने लिए वर की खोज की और आखिर में विश्रवा ऋषि को शादी के लिए चुना जिनका एक और बेटा कुबेर था. रावण ने बाद में अपने सौतेले भाई कुबेर से लंका छीन ली और उसका राजा बन गया.

रावण के दो भाई विभीषण और कुंभकर्ण थे (कुछ स्रोतों में अहिरावण नाम के एक और भाई का उल्लेख भी है). उनकी मां के कुल का संबंध मारीच और सुबाहू दैत्यों के परिवार से था. कैकसी ने एक बेटी को भी जन्म दिया था जिसका नाम चंद्रमुखी (चंद्रमा जैसी चेहरे वाली लड़की) था जिसे बाद में राक्षसी शूर्पणखा के नाम से जाना गया.

पिता के सानिध्य में सीखा वेद और युद्ध कला

पिता विश्रवा अपने बेटे रावण को आक्रामक और अभिमानी होने के साथ-साथ एक अनुकरणीय विद्वान कहते थे. विश्रवा के संरक्षण में रावण ने वेदों, पवित्र ग्रंथों, क्षत्रियों के ज्ञान और युद्धकला में महारत हासिल की. रावण एक उत्कृष्ट वीणा वादक भी था और उसके ध्वज के चिन्ह पर वीणा का भी चित्र दिखाई देता था. रावण दैत्यों की नैतिकता को बनाए रखे, इसके लिए रावण के नाना सुमाली ने अथक प्रयास किए.

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रामायण में वर्णन है कि रावण का यदुओं के क्षेत्र से घनिष्ठ संबंध था जिसमें दिल्ली के दक्षिण में मथुरा शहर से लेकर गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान के कुछ हिस्से शामिल थे. माना जाता है कि रावण का संबंध लवनासुर से भी था जो मधुपुरा (मथुरा) का एक राक्षस था. लवनासुर को राम के सबसे छोटे भाई शत्रुघन ने मारा था.

यदु क्षेत्र में नर्मदा के तट पर एक बार भगवान शिव की पूजा करने के बाद रावण को सबसे महान यदु राजाओं में एक राजा कार्तवीर्य अर्जुन के सिपाहियों ने पकड़ लिया और उसे कई दिनों तक अपनी कैद में रखा. रामायण के संदर्भों में बहुत साफ-साफ कहा गया है कि रावण पूरी तरह मनुष्यों या फिर असुर के समान नहीं था. वो इससे कहीं बढ़कर था. 

शिव की तपस्या
अपनी शुरुआती शिक्षा के बाद रावण ने कई वर्षों तक शिव की गहन तपस्या की. तपस्या के दौरान रावण ने शिव को प्रसन्न करने के लिए बलिदान के रूप में अपना सिर 10 बार काटा. हर बार जब वो अपना सिर काटता था तो उसके धड़ में एक नया सिर लग जाता था जिससे उसने अपनी तपस्या पूरी की और अंत में भगवान शिव ने उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर उसे वरदान दिया. रावण ने भगवान शिव से अमरता (सदा अमर रहने का वर) मांगा जिसे शिव ने देने से इनकार कर दिया लेकिन उन्होंने उसे अमरता का दिव्य अमृत दिया. इस वर का अर्थ था कि रावण जब तक जीवित रहेगा, तब तक उसे परास्त नहीं किया जा सकता.

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रावण ने अहंकार में अपने वरदान में नश्वर इंसानों को छोड़कर देवताओं, राक्षसों, सांप और जंगली जानवरों से हानि ना होने का वर मांगा जिसका मतलब था कि ये सभी प्रजातियां उसे कोई नुकसान नहीं पहुंचा सकतीं. यही वजह है कि बाद में मनुष्य के रूप में जन्म लेकर राम ने रावण का अंत किया था. शिव ने उसे उसके सभी 10 कटे हुए सिरों के अलावा दिव्य शस्त्र और कई प्रकार के चमत्कार की शक्ति दी. इसी वजह से रावण को 'दशमुख' या 'दशानन' कहा गया.

ऐसे बना रावण लंका का राजा

इन वरदानों को हासिल करने के बाद रावण ने अपने दादा सुमाली की तलाश की और अपनी शक्ति का विस्तार करने के लिए सेना का नेतृत्व करने लगा. इसके बाद रावण की नजर लंका पर पड़ी और उसने उस पर कब्जा जमाने की कोशिश शुरू कर दी.

लंका एक बेहद सुंदर और रमणीय शहर था जिसे शिव और पार्वती के लिए विश्वकर्मा द्वारा बनाया गया था. बाद में ऋषि विश्रवा ने लंका में यज्ञ के बाद शिव से उसे 'दक्षिणा' के रूप में मांग लिया. इसके बाद कुबेर ने अपनी सौतेली मां कैकेसी के जरिए रावण और अपने अन्य भाई-बहनों को ये संदेश पहुंचाया कि अब लंका उनके पिता विश्रवा यानि उन सभी की हो चुकी है. लेकिन बाद में रावण ने लंका को बलपूर्वक छीन लेने की धमकी दी जिसके बाद उसके पिता विश्रवा ने कुबेर को सलाह दी कि वो लंका रावण को दे दें क्योंकि रावण अब अपराजेय है. इस तरह रावण ने लंका पर कब्जा कर लिया. 

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भगवान शिव का परम भक्त

लंका पर विजय के बाद रावण शिव से मिलने के लिए कैलाश पर्वत पहुंचा. शिव के वाहन नंदी ने रावण को अंदर जाने से मना कर दिया. इससे वो नाराज हो गया और नंदी को चिढ़ाने लगा. बदले में नंदी भी क्रोधित हो गए और रावण को श्राप दिया कि लंका को एक वानर द्वारा नष्ट किया जाएगा. नंदी के सामने शिव के प्रति अपना प्रेम दिखाने के लिए रावण ने कैलाश पर्वत को उठा लिया और कहा कि वो शिव समेत पूरे कैलाश को लंका ले जाएगा. रावण के अहंकार से क्षुब्ध शिव ने कैलाश पर अपने पैर की सबसे छोटी अंगुली रख दी जिससे कैलाश पर्वत अपनी जगह पर वापस स्थापित हो गया लेकिन इसी दौरान रावण का हाथ पर्वत के नीचे दब गया और पूरे पर्वत का भार रावण के हाथ पर आ गया. वो इस पीड़ा से कराह उठा. उसे तुरंत अपनी गलती का अहसास हो गया. तब रावण ने भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए अपनी नसों को तोड़ दिया और उससे तार की तरह इस्तेमाल करते हुए संगीत बनाया और शिव की महिमा का गुणगान करने लगा. इस तरह उसने शिव तांडव स्त्रोत रच दिया. इसके बाद शिव ने उसे क्षमा कर दिया और उसकी भक्ति से खुश होकर उसे दिव्य तलवार चंद्रहास दी. कहा जाता है कि इस घटना के दौरान ही शिव द्वारा उसे 'रावण' नाम दिया गया जिसका अर्थ है 'तेज दहाड़' क्योंकि रावण का हाथ जब पर्वत के नीचे दबा तो उसके रोने से पृथ्वी कांप उठी थी. रावण इसके बाद भगवान शिव का आजीवन भक्त बन गया था.

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ऐसा बना रावण तीनों लोकों का विजेता
 
रावण की क्षमता और शक्ति वास्तव में विस्मयकारी थीं. रावण ने कई बार मनुष्यों, देवताओं और राक्षसों पर विजय प्राप्त की. पाताललोक को पूरी तरह जीतकर उसने अपने भाई अहिरावण को वहां का राजा बना दिया. वह तीनों लोकों में सभी असुरों का सर्वोच्च अधिपति बन गया. कुबेर ने एक बार रावण को उसकी क्रूरता और लालच के लिए अलोचना की जिससे वो बहुत नाराज हो गया. भाई के इस अपमान के बाद वो वो स्वर्ग की ओर बढ़ा और देवताओं से युद्ध कर उन्हें हराया. उसने देवों, मनुष्यों और नागों पर जीत अर्जित की. रामायण में रावण का सभी मनुष्यों और देवताओं पर विजेता के रूप में जिक्र किया गया है. हालांकि, रावण का अहंकार उसके अंत का कारण बना.

 

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