व्यक्ति धन को लेकर सबसे ज्यादा चिंतित रहता है. आचार्य चाणक्य ने पैसों के बारे में कई महत्वपूर्ण नीतियां बताई हैं. वो एक श्लोक के माध्यम से बताते हैं कि कैसे धन का अंबार लगा होने के बाद भी व्यक्ति गरीब हो जाता है. आइए जानते हैं उनकी इस नीति के बारे में...
उपार्जितानां वित्तानां त्याग एव हि रक्षणम्।
तड़ागोदरसंस्थानां परिस्त्राव इवाम्भसाम्।।
इस श्लोक में चाणक्य कहते हैं कि कमाए हुए धन को खर्च करना ही उसकी रक्षा है, जैसे नदी के जल के बहते रहने से ही साफ रहता है. उसकी शुद्धता और पवित्रता बनी रहती है. अगर पानी एक जगह पर लंबे समय तक ठहर जाए तो वो सड़ जाता है और किसी काम का नहीं रहता. इसी प्रकार धन का प्रवाह भी बना रहना चाहिए.
चाणक्य के मुताबिक धन की तीन गतियां हैं, उपभोग करना, दान देना और नष्ट होना. जो व्यक्ति न तो दान देता है और न ही उपभोग करता है उसका धन नष्ट हो जाता है. यानी धन की रक्षा के लिए उसका उपभोग जरूरी है.
धनधान्य प्रयोगेषु विद्या सङ्ग्रहेषु च।
आहारे व्यवहारे च त्यक्तलज्जः सुखी भवेत्॥
इस श्लोक में चाणक्य कहते हैं कि धन-धान्य-अन्न के क्रय-विक्रय में, विद्या अर्जित करने में, आहार और व्यवहार में लज्जा न करने वाला व्यक्ति हमेशा सुखी रहता है. यानी इन सब कामों में मनुष्य को कभी शर्माना नहीं चाहिए.
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