यूनान-ओ-मिस्र-ओ-रूमा, सब मिट गए जहां से. अब तक मगर है बाकी, नाम-ओ-निशां हमारा.कुछ बात है कि हस्ती, मिटती नहीं हमारी. सदियों रहा है दुश्मन, दौर-ए-ज़मां हमारा.इकबाल की इन पंक्तियों से हम आज का विशेष शुरू कर रहे हैं तो इसके पीछे वजह भी है. जाने कितने आक्रांताओं ने इस देश की आन को ललकारा, लेकिन मिटाने की हसरत लिए वो खुद ही मिट गए.