ये खामोश मिज़ाज़ी तुम्हें जीने नहीं देगी. इस दौर में जीना है तो कोहराम मचा दो. आंसुओं की उंगली पकड़कर इंसानों के बीच मौजूद भेड़ियों से मुक़ाबला करने निकल तो पड़ा है ये देश. पर इससे पहले कि ये ग़ुस्सा अपना आपा खो बैठे, ये आक्रोश ठंडा हो जाए, पत्थर की जगह हाथों में उठाई गईं मोमबत्तियों की लौ बुझने लगें, खबरों की हेडलाइंस बदल जाएं, ज़रूरी है, ज़रूरी है उस दर्द को हर सीने में ज़िंदा रखना जिसे सुन कर सिर्फ आंखें नहीं बल्कि खुद आंसू भी रो पड़े.