सोशल मीडिया पर इन दिनों सोनम रघुवंशी, निकिता सिंघानिया, मुस्कान रस्तोगी आदि नामों की चर्चा करके महिलाओं को विलेन बनाया जा रहा है. समाज की कुछ औरतों का उदाहरण देकर यह मान लिया जा रहा है कि आज की औरतें ऐसी ही होती जा रही हैं. इसके लिए तुलसीदास से लेकर गौतम बुद्ध तक के उपदेश सुनाए जा रहे हैं. एक धारणा बनाई जा रही है कि पत्नियों द्वारा पतियों की हत्या एक ट्रेंड बन रहा है. जाहिर है कि यह अतिशयोक्ति समाज में डर और अविश्वास को बढ़ा रही है. पर इसमें दोष लोगों का भी नहीं है. हमारा सामाजिक ढांचा ही ऐसा है कि जहां महिलाओं के बारे में ये राय सदियों से रही है. एक तरफ हमारे यहां शास्त्रों में यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता
कहकर नारी को सम्मान दिया गया है तो दूसरी तरफ ऐसे ग्रंथों की भी कमी नहीं है जो नारी को नरक का द्वार मानते रहे हैं.
सबसे बड़ी बात ये है कि महिलाओं की यह कहानी केवल अपने देश की नहीं है. दुनिया के दूसरे देशों में भी यही है. महिलाओं को उपभोग का साधन मानकर उन्हें कभी पुरुषों के समान अधिकार नहीं दिए गए. वह चाहे मध्य एशिया का इतिहास हो या रोमन साम्राज्यों का. सभी जगहों पर करीब -करीब एक जैसी ही स्थिति ही रही है. ज्यों -ज्यों सामाजिक विकास होता गया वैसे वैसे महिलाओं को पुरुषों के बराबर माना जाने लगा. सोनम रघुवंशी जैसी लड़कियों के बागी होने के पीछे कहीं न कहीं यह व्यवस्था अपरोक्ष रूप से जिम्मेदार रही है.
इसे पुरुष समाज जितना जल्दी समझ ले उतना ही बेहतर है. क्योंकि समाज को विघटन से तभी बचाया जा सकेगा. पितृसत्तात्मक समाज की सामंती मानसिकता से जितनी जल्दी हम निजात पा लेंगे उतना ही हमारे, समाज और हमारी बेटियों के लिए यह फायदेमंद होगा. क्योंकि उदारीकरण के बाद महिलाएं अब पुरुषों के साथ कंधा से कंधा मिलाकर चल रही हैं, उन्हें आप कमतर मानकर उनसे अब दोयम दर्जे का व्यवहार नहीं कर सकते हैं.
सोनम रघुवंशी की शादी के विडियोज देखकर लगता है कि उसे अपने परिवार में काफी प्यार मिलता था. भारत के मध्यवर्ग और उच्च मध्यवर्ग में लड़कियों को अब लड़कों के बराबर प्यार मिलने लगा है. कभी कभी तो लगता है कि लड़कियों को ज्यादा प्यार और सम्मान मिल रहा है. पर जब अधिकारों की बात आती है तो लड़कों को वरियता मिलने लगती है. तब समझ में आता है कि नहीं अभी भी हम पुराने दौर में ही जी रहे हैं.
सोनम रघुवंशी की शादी धूम धाम से होती है. कई विडियो देखकर लगा कि किसी वेडिंग प्लानर ने फंक्शन को प्लान किया हो. कई बार ऐसा भी लगा कोरियोग्राफर ने एक एक सिक्वेंस के लिए दूल्हा दुल्हन को ट्रेंड किया हो. ये सब बताने का मूल उद्देश्य है कि कहीं से भी लड़का और लड़की के बीच अंतर की बात हमारे समाज में नहीं रह गई है.
पर सोनम रघुवंशी के पिता कहते हैं कि उनकी बेटी का कोई मेल फ्रेंड नहीं था. वह घर से ऑफिस अपने भाई के साथ जाती थी उसी के साथ वापस आती थी. इसका अर्थ सीधा यह निकलता है कि सोनम को पुरुष दोस्तों से दूर रखा जाता होगा. जबकि एक अच्छे स्कूल की पढ़ी लिखी लड़की है सोनम. मतलब हम अपने बेटियों को एक अच्छे स्कूल में पढ़ाएंगे , उसकी शादी में लाखों खर्च करेंगे, तरह तरह के ड्रेस और गहनों और पार्टी पर खर्च करेंगे पर जब वर चुनने की बारी आएगी तो वह केवल पिता और भाई के हिसाब से चुना जाएगा. यह पुरुषवादी मानसिकता केवल इंदौर , प्रयागराज, बनारस जैसे छोटे शहरों की कहानी नहीं है, यह मुंबई और बॉलिवुड तक में है. शत्रुघ्नन सिन्हा की बेटी सोनाक्षी तक की शादी को मां-बाप का अप्रूवल काफी बाद में मिला. भाइयों ने तो मान लिया कि उनकी कोई बहन है ही नहीं . क्योंकि सोनाक्षी ने परिवार की मर्जी से शादी नहीं किया.
हम चाहते हैं कि हमारे बच्चे कोयले की खदान में काम करें पर उनके हाथ कोयले से काले न हों. सोनम रघुवंशी के पिता को कितना घमंड है कि उनकी बेटी का कोई पुरुष दोस्त नहीं है. जाहिर है कि यह ह्यूमन नेचर को रोकने जैसी बात है ये. सोनम को बचपन से पुरुषों (लड़कों) से दूर रहने की सलाह दी गई होगी. सलाह ही नहीं बल्कि उसके ऊपर 24 घंटे नजर रखी गई होगी कि किसी भी तरह वह किसी लड़के साथ घूमे फिरे नहीं. यही कारण रहा कि वह जिससे प्यार करती थी उसे मजबूरन राखी बांधती थी.ताकि समाज को आंखों में धूल झोंककर उससे दो पल की मुलाकात कर सके.
देश के महानगरों से हजारों किलोमीटर दूर कस्बों या गांवों में आज से तीन दशक पहले जिन लड़कियों को स्कूल जाने का मौका नहीं मिलता था आज उसी गांव की लड़कियां दिल्ली-मुंबई और बेंगलुरू में कॉल सेंटरों की नाइट शिफ्ट में काम करती हैं. उसी कस्बे और गांव के लोग जो अपनी बेटियों को अपने सगे रिश्तेदारों के घर भी रात को अकेले नहीं भेजते थे इन शहरों में आते हैं तो बहुत गर्व के साथ नाइट आउट करते हुए अपनी बेटियों के साथ फेसबुक पर सेल्फी डालते हैं. पर जब शादी की बात आती है तो उनकी सारी आधुनिकता जाने कहां गुम हो जाती है.
हालांकि ऐसा भी नहीं है कि शादी को लेकर मानदंड नहीं बदले हैं. पर अभी भी मां-बाप चाहते हैं कि लड़कियां वर चुनते हुए कम से कम जाति-धर्म आदि का ख्याल जरूर रखें. जबकि बेटों को लेकर ये करीब करीब बिल्कुल नहीं है. बेटा अगर दूसरे धर्म की बहू लाता है तो शायद दिक्कत नहीं है. पर बेटी अगर दूसरे धर्म में जाती है तो वो चाहे हिंदू हो या मुसलमान , सिख हो या क्रिश्चियन सभी को दिक्कत होती ही है. जातियों में हिंदू सवर्ण कभी नहीं चाहता है कि उसकी बेटी कभी पिछड़ी या अनुसूचित जाति के किसी व्यक्ति को अपना वर चुने.
भारत में भी बहुत सी शादियां बेटियों की मर्जी से होने लगी हैं.आप यह कह सकते हैं कि जहां शादियां मर्जी से हो रही हैं वहां क्यों ऐसा हो रहा है. दरअसल ल़ड़के एक आधुनिक लड़की से शादी तो कर लेते हैं पर शादी के बाद वह उस पर मालिकाना हक समझने लगते हैं. पितृ सत्तात्मक समाज की सामंती मानसिकता से निकलना इतना आसान नहीं होता है. इसे खत्म होने में पूरी पीढ़ियां लग जाती है. भारत का यह दौर स्त्री-पुरुष के रिश्ते की लिहाज से संक्रमण काल है. समय लगेगा पर स्त्रियों को अपनी संपत्ति मानने की मानसिकता से जल्द से जल्द दूर होना होगा.