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च‍िराग पासवान का 'शक्‍तिप्रदर्शन' महागठबंधन और NDA दोनों के ल‍िए चुनौती है

चिराग की रैलियों में उमड़ने वाली भीड़ उल्लेखनीय है. नालंदा रैली के दौरान भीड़ के बेकाबू होने की खबरें भी सामने आईं हैं. चिराग पासवान अपनी गाड़ी के ऊपर बैठकर समर्थकों का अभिवादन कर रहे थे, उत्साहित कार्यकर्ता उनकी गाड़ी पर चढ़ गए.

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नालंदा में अपने मटमैले कुर्ते के साथ जनता के बीच पहुंच चिराग पासवान बिहार में चुनावी जमीन पर पकड़ बनाते नजर आते हैं.
नालंदा में अपने मटमैले कुर्ते के साथ जनता के बीच पहुंच चिराग पासवान बिहार में चुनावी जमीन पर पकड़ बनाते नजर आते हैं.

लगता है कि चिराग पासवान की लौ एक बार फिर बिहार चुनावों में लोजपा (आर) को रोशनी दिखाने से ज्यादा किसी के घर में आग लगाने में काम आने वाली है. नालंदा में आयोजित 'बहुजन भीम संकल्प समागम' में उनका हालिया शक्ति प्रदर्शन देखने को मिला. उनकी सक्रियता बिहार की राजनीति में हलचल मचा रखी है. उनके बयानों में सस्‍पेंस ऐसा है कि समझ नहीं आ रहा है कि वे महागठबंधन पर हमला कर रहे हैं या एनडीए पर ही दबाव बना रहे हैं.

दरअसल बिहार विधानसभा चुनाव 2025 से पहले चिराग की रणनीति और उनके द्वारा उठाए गए कदम दोनों गठबंधनों के लिए जटिल सियासी समीकरण पैदा कर रहे हैं. जाहिर है कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) और महागठबंधन दोनों के लिए वह एक गंभीर चुनौती के रूप में उभर रहे हैं. यह समझना बाकी है कि चिराग के इस खेल में क्या किसी और की भी भूमिका है या वे खुद सबको चक्कर में डाले हुए हैं.

अभी 2024 के लोकसभा चुनावों तक वो अपने पिता रामविलास पासवान की छाया में ही नजर आते थे. पर अब बिहार की राजनीति में उन्होंने खुद को स्थापित कर लिया है. 2024 के लोकसभा चुनाव में उनकी पार्टी ने बिहार में एनडीए के हिस्से के रूप में पांच सीटों पर शानदार जीत हासिल की, जिसमें हाजीपुर, वैशाली, समस्तीपुर, खगड़िया और जमुई शामिल हैं. एनडीए में केवल लोजपा (आर) की स्ट्राइक रेट हंड्रेड परसेंट रही.

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इस जीत के बाद चिराग केवल रामविलास पासवान के पुत्र नहीं रह गए हैं ,बल्कि उनका भी अपना एक सियासी कद हो गया है. नालंदा में आयोजित 'बहुजन भीम संकल्प समागम' जैसे कार्यक्रम, जहां हजारों समर्थकों की भीड़ उमड़ी वो चिराग की बढ़ती लोकप्रियता और संगठनात्मक ताकत का प्रतीक है. सबसे बड़ी बात यह है कि चिराग अपनी रणनीति के चलते केवल दलितों के नेता से ऊपर उठ चुके हैं.

अब वे अति पिछड़ा वर्ग (EBC), युवा, और अन्य सामाजिक समूहों को भी अपनी ओर आकर्षित करने की कोशिश कर रहे हैं. जब वो 'बिहार फर्स्ट, बिहारी फर्स्ट' की विचारधारा और बिहार में सभी 243 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ने की बात करते हैं तो लाजिमी है कि खुद एनडीए के दलों की रूह कांप जाती है. तो क्या समझा जाए कि उनका शक्ति प्रदर्शन बिहार की सियासत में एक तीसरे ध्रुव की संभावना को भी जन्म दे रहा है?

नीतीश कुमार के इलाके में चिराग की ऐतिहासिक रैली 

नालंदा के राजगीर में 29 जून 2025 को आयोजित 'बहुजन भीम संकल्प समागम' रैली में चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) के कार्यकर्ताओं और समर्थकों की इतनी भारी भीड़ जुटी है कि एनडीए और महागठबंधन दोनों ही गठबंधन के दलों में चिंता की लकीरें हैं. इस रैली में कितनी भीड़ जुटी उसे लेकर अलग अलग दावे किए गए हैं. एक राष्ट्रीय चैनल के स्थानीय इकाई के  X पोस्ट के अनुसार, रैली में तीन लाख लोगों के शामिल होने का दावा किया गया है. हालांकि बहुत से अन्य मीडिया संस्थानों ने अपार जनसैलाब और ऐतिहासिक भीड़ शब्दों का प्रयोग किया है.

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जाहिर है कि भीड़ ज्यादा ही रही होगी. रैली के दौरान भीड़ के बेकाबू होने की खबरें भी सामने आईं हैं. चिराग पासवान अपनी गाड़ी के ऊपर बैठकर समर्थकों का अभिवादन कर रहे थे, जब उत्साहित कार्यकर्ता उनकी गाड़ी पर चढ़ गए, जिससे अफरातफरी मच गई और उनकी गाड़ी क्षतिग्रस्त हो गई. एक राष्ट्रीय चैनल के रिपोर्ट में भी कहा गया कि हजारों कार्यकर्ताओं के उत्साह के कारण सुरक्षा व्यवस्था को कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ा.

हालांकि कितनी भीड़ थी इसके बारे में कुछ भी कहना ठीक नहीं है. पर जनसत्ता की एक रिपोर्ट बताती है कि सीवान में पिछले दिनों हुई प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सभा में करीब डेढ़ लाख लोग जुटे थे.जिसमें यूपी बॉर्डर नजदीक होने के चलते वहां से आने वाले लोगों की संख्या भी बहुत थी. तीन लाख का दावा अतिशयोक्ति हो सकता है पर अगर उसका आधा भी रहा हो कम नहीं है. रैली में भारी भीड़ की उपस्थिति और कार्यकर्ताओं का उत्साह चिराग पासवान की सियासी ताकत और उनकी रणनीति का असर विपक्ष और राजग के सहयोगी दलों ने जरूर महसूस किया होगा.

महागठबंधन के लिए कितनी चुनौती 

बिहार में चिराग के पिता राम विलास पासवान ने बहुत कोशिश करके दलितों के बीच अच्छी पैठ बनाई थी. पर कभी भी वो पासवानों के अलावा अन्य दलित जातियों के सर्वमान्य नहीं बन पाए. दलितों के वोट पासवान की पार्टी को मिलते थे पर  कांग्रेस और आरजेडी भी उसमें हिस्सेदारी करते थे.  हालांकि पासवान वोट पर उनका पूरा नियंत्रण होता था. पर आज की तारीख में अन्य दलित जातियों में तगड़े नेतृत्व के अभाव और चिराग पासवान की लगातार मेहनत के चलते स्थितियां बदल रही हैं.

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चिराग पासवान ने अपने पिता रामविलास पासवान की विरासत को आगे बढ़ाते हुए दलित समुदाय में गहरी पैठ बनाई है. उनकी रैलियों और कार्यक्रमों में दलित युवाओं की भारी भागीदारी इस बात का संकेत है कि वे प्रदेश में इस समय दलित समुदाय को अपनी ओर आकर्षित करने में सफल हो रहे हैं. 'बहुजन भीम संकल्प समागम' में बाबासाहेब आंबेडकर के विचारों को केंद्र में रखकर चिराग ने दलित गौरव और सामाजिक न्याय के मुद्दे को और मजबूती दी है. जाहिर है कि लोजपा (आर) अगर सभी सीटों से चुनाव लड़ती है तो इसका सबसे ज्यादा नुकसान आरजेडी के लिए होने वाला है.
 
महागठबंधन, जिसमें राष्ट्रीय जनता दल (राजद), कांग्रेस, और वामपंथी दल जैसे प्रमुख सहयोगी शामिल हैं. इस गठबंधन का मुख्य आधार यादव, मुस्लिम, और दलित वोट बैंक रहा है. चिराग की रणनीति इस आधार को कमजोर करने की दिशा में काम कर रही है. अगर चिराग सभी 243 सीटों पर चुनाव लड़ते हैं तो बिहार में त्रिकोणीय मुकाबले की स्थिति पैदा हो सकती है.

जाहिर है कि इससे वोटों का बंटवारा होगा जो महागठबंधन के लिए नुकसानदायक साबित होगा. प्रदेश में बहुत सी सीटें ऐसी हैं जहां जीत का अंतर बहुत मामूली होता है. इन सीटों पर चिराग की पार्टी सीधे-सीधे एनडीए को फायदा पहुंचा सकती है. 2020 के विधानसभा चुनाव में चिराग की बगावत ने जदयू को नुकसान पहुंचाया था, लेकिन इस बार उनकी रणनीति महागठबंधन के लिए ज्यादा घातक साबित हो सकती है.

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क्या एनडीए के लिए भी खतरा बन रहे चिराग पासवान 

चिराग का शक्ति प्रदर्शन एनडीए के लिए भी कम चुनौतीपूर्ण नहीं है. 2020 के विधानसभा चुनाव में चिराग की बगावत ने एनडीए, खासकर नीतीश कुमार की जनता दल (यूनाइटेड) (जदयू) को भारी नुकसान पहुंचाया था. इस बार, हालांकि चिराग एनडीए का हिस्सा हैं पर उनकी चाल समझ में नहीं आ रही है. वो एक तरफ वो 243 सीटों पर चुनाव लड़ने की बात करते हैं दूसरी तरफ वो अपनी रैलियों में पीएम मोदी के कशीदे पढ़ते हैं. उनके निशाने पर तेजस्वी यादव और कांग्रेस होती है. नालंदा की रैली में उनका सारा फोकस कांग्रेस और आरजेडी की नाकामियों पर था. पर उनकी बढ़ती महत्वाकांक्षा और आक्रामक रणनीति गठबंधन के भीतर तनाव पैदा कर रही है. 

नालंदा, जो नीतीश कुमार का गढ़ माना जाता है, में चिराग का शक्तिप्रदर्शन और चिराग की 'नए नेतृत्व' की बात जदयू के लिए असहज स्थिति पैदा कर रही है. चिराग ने अप्रत्यक्ष रूप से नीतीश के नेतृत्व पर सवाल उठाए हैं, और उनकी मुख्यमंत्री पद की संभावित महत्वाकांक्षा ने जदयू को असहज करती है. 2020 में चिराग की बगावत ने जेडीयू की 43 सीटों पर समेट दिया था. लोग अटकलें लगा रहे हैं कि इस बार भी क्या उनकी रणनीति नीतीश को नियंत्रित करने के लिए हैं?

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किसी का नाम लिए बिना चिराग कहते हैं कि, मेरे रास्ते में बाधाएं खड़ी की जा रही हैं, लेकिन मैं निराश नहीं होने वाला हूं. मेरी पार्टी में विभाजन और मेरे परिवार में दरार पैदा करके मुझे तोड़ने के पहले के प्रयास मुझे हतोत्साहित करने में विफल रहे हैं. मैं पार्टी कार्यकर्ताओं से आग्रह करता हूं कि वे सभी 243 विधानसभा क्षेत्रों में फैल जाएं और राजग की जीत के लिए उसी तीव्रता के साथ लड़ें, जैसे चिराग पासवान खुद मैदान में हों. चिराग के भाषण में वो कौन है जिसने उनके परिवार में दरार डालने की कोशिश की. यह बताने की जरूरत नहीं है. हो चाहे कोई भी आम जनता यह मानकर चलती है कि चिराग का तंज नीतीश कुमार पर ही होगा.

चिराग ने 25-35 विधानसभा सीटों की मांग की है. जाहिर है कि एनडीए के लिए यह एक जटिल मुद्दा बन सकता है. बीजेपी और जेडीयू गठबंधन के सबसे खास दल हैं. दोनों की भूख इतनी ज्यादा है कि चिराग को इतनी सीटें मिलने से रहीं. बीजेपी खुद कोशिश में है कि इस बार पिछली बार से ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़े. जबकि जदयू नीतीश के नेतृत्व में अपनी स्थिति मजबूत रखना चाहती है. इस तरह अगर चिराग की मांग पूरी नहीं होती है तो उनके पास फिर से बगावत का रास्ता चुनने का विकल्प हो सकता है.अब ये समझना मुश्किल हो सकता है कि क्या इसमें बीजेपी की अंदरूनी राजनीति तो नहीं काम कर रही है.

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अन्य सहयोगियों का असंतोष:

चिराग की रैलियों से एनडीए के अन्य सहयोगी, जैसे हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (हम) के जीतन राम मांझी और राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (रालोसपा) के उपेंद्र कुशवाहा भी सहमें हुए हैं. यह संयोग है या प्रयोग है कि उपेंद्र कुशवाहा की दो रैलियां चिराग पासवान की रैलियों के दिन ही पड़ी हैं. यह किसकी तरफ से ताकत का प्रदर्शन हो सकता है?

कुशवाहा के अलावा मांझी भी दलित और अति पिछड़ा वोट बैंक पर दावा करते हैं. चिराग की रणनीति से उनकी सियासी जमीन को भी कमजोर कर रही है. इससे गठबंधन के भीतर आंतरिक तनाव बढ़ रहा है.कुछ दिनों पहले जीतनराम मांझी के गढ़ शाहबाद क्षेत्र में लोजपा (रा) का कार्यक्रम हुआ था. इसमें महादलित वर्ग के अलावा सर्वसमाज की भीड़ भी पहुंची थी. कुछ रिपोर्ट में बताया गया कि इससे खफा मांझी ने घबराहट में चिराग को खूब खरी-खोटी सुनाई थी.

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