पहलगाम हमले के बाद बने माहौल में 29 अप्रैल को RSS प्रमुख मोहन भागवत जब मोदी से मिलने प्रधानमंत्री आवास पहुंचे तो समझा गया कि पाकिस्तान के खिलाफ कार्रवाई पर कुछ गंभीर बात हुई होगी, लेकिन अगले ही दिन कैबिनेट के फैसलों की खबर आई तो साफ हो गया कि मुलाकात का मुद्दा तो जातिगत जनगणना रहा होगा.
अब तो पक्का हो गया कि मौजूदा राजनीतिक समीकरणों के दबाव में बीजेपी सरकार के जाति जनगणना कराने के फैसले को संघ को भी मुहर लगानी पड़ी है. देखा जाये तो संघ हमेशा ही कास्ट पॉलिटिक्स के खिलाफ रहा है - क्योंकि, संघ के हिंदुत्व के एजेंडे में जातीय राजनीति बहुत बड़ी बाधा रही है.
आखिर ये मजबूरी नहीं तो क्या है. कहां ‘एक मंदिर, एक कुआं और एक श्मशान भूमि’ की पैरवी करने वाला राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, अब अपना ही रुख बदलने को मजबूर हो गया है.
सार्वजनिक तौर पर संघ और बीजेपी ने कभी जाति जनगणना जैसे मुद्दे का विरोध नहीं किया है, लेकिन सामाजिक समरसा के लिए हमेशा ही सभी जातियों की एकता की बात की है. लेकिन, हालात तेजी से बदलने लगे हैं, और जाति जनगणना कराने के फैसले तक पहुंचने में लोकसभा चुनाव 2024 के नतीजों की सबसे बड़ी भूमिका लगती है.
कास्ट सेंसस पर RSS का स्टैंड, और यू-टर्न की मजबूरी
अगर बिहार में विधानसभा का चुनाव नजदीक नहीं होता, तो बीेजेपी सरकार जाति जनगणना कराने की जल्दबाजी कतई नहीं दिखाती. और, वो भी तब जब पूरा देश आतंकवादियों के खिलाफ आखिरी दर्जे की कार्रवाई का इंतजार कर रहा हो.
RSS अपने 'सामाजिक समरसता' अभियान के तहत हिन्दू समाज को एकजुट करने के लिए लगातार काम करता रहा है. संघ के हिंदुत्व के एजेंडे का समाज पर जो भी असर पड़े, लेकिन वो जाति के आधार पर भेदभाव और समाज के बंटवारे के हमेशा ही खिलाफ रहा है.
संघ जानता है कि जाति को पूरी तरह मिटाना अभी संभव नहीं है, लेकिन वो ये भी नहीं चाहता कि जातीय आधार पर समाज में नई दीवारें खड़ी हो जायें, और उस पर राजनीति होने लगे - और यही वजह है कि खुले तौर पर संघ ने कभी जाति जनगणना जैसी मांग का विरोध नहीं किया, लेकिन सपोर्ट में भी कभी खड़ा नहीं नजर आया है.
अब भले ही बदलना पड़े, लेकिन शुरू से ही संघ का स्टैंड यही रहा है कि जाति जनगणना को कभी किसी 'पॉलिटिकल टूल' की तरह नहीं देखा जाना चाहिये.
काफी पहले RSS के मुख्य प्रवक्ता सुनील अंबेकर कह चुके हैं, जाति सबंधी मुद्दे संवेदनशील हैं, और राष्ट्रीय एकता और अखंडता के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं. सुनील अंबेकर का कहना है, ये संवेदनशीलता के साथ संभाला जाना चाहिये, न कि चुनावी या राजनीतिक आधार पर.
जातिगत जनगणना की मांग जब जोर पकड़ रही थी, तब आरएसएस प्रवक्ता ने अपनी तरफ से साफ किया था, संघ को जाति के आंकड़े जुटाने पर कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन वो उन जातियों के कल्याण के लिए हो… उनके लिए जो पिछड़े हैं, और जिन्हें विशेष ध्यान देने की जरूरत है. कहते हैं, आंकड़े पहले भी इकट्ठा किये जाते रहे हैं, लेकिन इस्तेमाल सिर्फ लोक कल्याण के उद्देश्य से होना चाहिये, न कि चुनावी और राजनीतिक हथियार के रूप में.
सिद्धांत अपनी जगह है, और व्यावहारिकता अपनी जगह. आंकड़े बेइमान नहीं होते, लेकिन इतने ताकतवर भी नहीं होते हैं कि बेइमानी होने की सूरत में खुद ही अड़ंगा भी डाल दें.
जातियों की राजनीति में हिंदुत्व का एजेंडा कहां ठहरता है
जाति जनगणना के साथ ही आरक्षण की सीमा 50 फीसदी से बढ़ाने की भी मांग चल रही है. केंद्र सरकार के जाति जनगणना कराने के फैसले का स्वागत करते हुए, लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने आरक्षण की सीमा बढ़ाने की मांग कर डाली है.
2015 में जब बिहार में चुनावी माहौल जोरों पर था, तभी संघ के मुखपत्र ‘पाञ्चजन्य’ और ‘ऑर्गेनाइजर’ ने मोहन भागवत का इंटरव्यू छापा था. मोहन भागवत ने इंटरव्यू में आरक्षण की समीक्षा किये जाने की जरूरत बताई थी. एक ऐसी कमेटी बनाने का भी सुझाव दिया था, जिसका काम ये देखना हो कि आरक्षण का फायदा किन लोगों को और कितने समय तक मिलना चाहिये.
नीतीश कुमार के साथ मिलकर चुनाव लड़ रहे लालू यादव ने संघ प्रमुख के बयान को मुद्दा बना दिया. कहने लगे कि संघ आरक्षण को खत्म करना चाहता है. बीजेपी को चुनाव में हार का मुंह देखना पड़ा था, और हार की एक वजह संघ प्रमुख का वो बयान भी माना गया था.
अब सवाल उठता है कि कास्ट पॉलिटिक्स में संघ के हिंदुत्व के एजेंडे का क्या भविष्य है?
सार्वजनिक तौर पर संघ भले ही कुछ भी कहने से बचता रहा हो, लेकिन जातीय राजनीति के खिलाफ तो वो हमेशा ही रहा है. क्योंकि, जातीय राजनीति के हावी होने पर हिंदुत्व का एजेंडा कमजोर पड़ सकता है. धर्म की राजनीति में ये फायदा है कि कम से कम हिंदू समुदाय तो एक रहता है.