'पापा घर ले चलो...' बस यही दो शब्द थे, जिन्हें सुनकर सुशांत ठाकरे रो पड़े थे. वो दो साल की नन्ही बेटी योजिता की आवाज थी- कमजोर, थकी हुई, मगर अब भी उम्मीद भरी. लेकिन उस पल सुशांत नहीं जानते थे कि उनकी बेटी की यह जिंदगी का आखिरी संवाद होगा. छिंदवाड़ा के एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाने वाले टीचर सुशांत ठाकरे की आंखों में आंसू हैं, वे कहते हैं कि मैंने 13 लाख खर्च किए, दिन-रात दौड़ता रहा... लेकिन अपनी बेटी को नहीं बचा सका. सरकार अब 4 लाख दे रही है, पर मेरी बेटी तो वापस नहीं आएगी.
यह सिर्फ एक पिता की पीड़ा नहीं, बल्कि एक सिस्टम के इंतजार और उम्मीद की कहानी है- जो 22 दिन तक नागपुर के एक अस्पताल में हर सांस के साथ टूटती रही.
योजिता ठाकरे, उम्र सिर्फ दो साल. खेलते-खेलते अचानक तबीयत बिगड़ी. 8 सितंबर की शाम को उसे तेज बुखार आया. पिता सुशांत हमेशा की तरह उसे डॉ. ठाकुर के पास ले जाना चाहते थे, जिनसे वे नियमित इलाज कराते थे. लेकिन उस दिन डॉक्टर क्लिनिक पर नहीं थे. मजबूर होकर सुशांत बेटी को पास के ही डॉक्टर प्रवीण सोनी के पास ले गए. उन्होंने कुछ दवाइयां दीं और चार टाइम दवा देने की सलाह देकर घर भेज दिया.

रात किसी तरह बीत गई, पर सुबह नई मुसीबत सामने आ खड़ी हुई. बुखार तो थोड़ा कम हुआ, लेकिन योजिता ने लगातार तीन बार हरे रंग की उल्टियां कीं. सुशांत घबरा गए. तुरंत बेटी को फिर से डॉक्टर सोनी के पास लेकर पहुंचे. इस बार डॉक्टर ने बिना देर किए कहा- बच्ची की किडनी में इंफेक्शन है... इसे तुरंत नागपुर ले जाइए. यहां इलाज संभव नहीं.
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सुशांत ने बिना एक पल गंवाए बेटी को लेकर नागपुर के लिए निकल पड़े. डॉक्टर सोनी ने जिस अस्पताल का नाम दिया था, वहां पहुंचते ही उन्हें बताया गया कि यहां डायलिसिस की सुविधा नहीं है. इसके बाद उन्होंने बेटी को आनन फानन में नेल्सन हॉस्पिटल में भर्ती कराया.
यहीं से शुरू हुई 22 दिनों की सबसे कठिन लड़ाई. नेल्सन हॉस्पिटल में योजिता का इलाज लगातार चलता रहा. 22 दिनों में उसे 16 बार डायलिसिस पर रखा गया. हर बार मशीन चलती थी, पिता की धड़कनें बढ़ती थीं. हर गुजरते दिन के साथ डॉक्टर कहते- अगले 24 घंटे अहम हैं...' और हर 24 घंटे के बाद बिल में एक और पन्ना जुड़ जाता था.
22 दिन में तकरीबन 13 लाख का बिल
नेल्सन हॉस्पिटल का बिल 12 लाख रुपये से पार चला गया. एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाने वाले सुशांत के लिए यह रकम असंभव थी. लेकिन बेटी के लिए उन्होंने हर संभव कोशिश की. भाई ने एफडी तोड़ दी. दोस्तों और रिश्तेदारों ने मदद की. स्कूल के साथी टीचरों ने तनख्वाह से कुछ हिस्सा दिया. यहां तक कि सोशल मीडिया पर क्राउडफंडिंग भी की गई, जिसमें मुंबई के एक एनजीओ ने एक लाख रुपए की सहायता दी.
पड़ोसी, रिश्तेदार, पूरा मोहल्ला उनके साथ खड़ा था, हर कोई दुआ कर रहा था कि योजिता स्वस्थ होकर लौट आए.
लेकिन 22 दिन के इस संघर्ष के बाद 4 अक्टूबर की सुबह, वो पल आया जिसने सब कुछ बदल दिया.

जब डॉक्टर ने कहा- अब कुछ नहीं हो सकता
सुशांत बताते हैं कि सुबह-सुबह डॉक्टर ने कहा कि अब उनकी किडनी जवाब दे चुकी है. हम उसे देख भी नहीं पा रहे थे, मशीनों के बीच उसका छोटा सा चेहरा ढूंढते थे... और फिर वो चुपचाप चली गई. कमरे में सन्नाटा था. योजिता की मां बेहोश हो गईं. सुशांत बस अपनी बेटी की छोटी सी हथेली को थामे बैठे रहे- जो अब ठंडी हो चुकी थी. 'पापा घर ले चलो...' यह शब्द अब उनकी ज़िंदगी की सबसे गूंजती हुई आवाज़ बन गए हैं.
प्रशासन ने अब योजिता के परिवार को चार लाख रुपए का मुआवजा देने की घोषणा की है. सुशांत कहते हैं कि मेरी बेटी की जान की कीमत पैसों से नहीं लगाई जा सकती. मैं चाहता हूं कि जिस लापरवाही से यह सब हुआ, उसकी जांच हो. अगर सही समय पर इलाज और सही दिशा मिलती, तो शायद मेरी बेटी आज जिंदा होती. उनका कहना है कि अगर डॉक्टरों ने शुरुआत में गंभीरता दिखाई होती, या उन्हें सही अस्पताल की जानकारी दी होती, तो बेटी को बचाया जा सकता था.
सवाल जो अब भी जवाब मांगते हैं
क्या शुरुआती इलाज में कोई लापरवाही हुई? क्या डॉक्टरों ने वक्त रहते सही सलाह दी? क्यों एक छोटे शहर में बच्चों के गंभीर इलाज की सुविधा नहीं है? इन सवालों के जवाब अभी धुंधले हैं. पर योजिता की कहानी ने एक बार फिर सिस्टम के उस दर्दनाक सच को उजागर कर दिया है, जहां इलाज पैसे से जुड़ा है, और वक्त इलाज से तेज भागता है. योजिता अब नहीं रही. पिता सुशांत ठाकरे हर उस मां-बाप के लिए आवाज उठाना चाहते हैं जिनकी संताने ऐसी लापरवाहियों में फंस जाती हैं.
उनका कहना है कि मैं चाहता हूं कि ऐसी गलती किसी और के साथ न हो. दोषियों को सजा मिले. हर बच्चे को वक्त पर इलाज मिले.