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सोचो, आखिर कब सोचेंगेः साहित्य आजतक के मंच पर नवाज़ देवबंदी की शायरी

सोचो, आखिर कब सोचेंगेः साहित्य आजतक के मंच पर नवाज़ देवबंदी की शायरी

सोचो! आखिर कब सोचेंगे? दरहम बरहम दोनों सोचें, मिल जुलकर हम दोनों सोचें, जख्म का मरहम दोनों सोचें, सोचें पर हम दोनों सोचें. घर जलकर राख हो जाएगा, जब सब कुछ खाक हो जाएगा, तब सोचेंगे?..टीपू के अरमान जले हैं, बापू के अहसान जले हैं, गीता और कुरआन जले हैं, हद ये है इन्सान जले हैं, हर तीर्थ स्थान जलेगा, सारा हिंदुस्तान जलेगा, तब सोचेंगे? सोचो! आखिर कब सोचेंगे?... देश के वर्तमान हालात पर साहित्य आजतक के मंच पर नवाज़ देवबंदी की शायरी

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