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रामधारी सिंह दिनकर: खुद को नेहरू का 'भक्त' बताने वाले राष्ट्रकवि को क्योंं लिखनी पड़ी थी परशुराम की प्रतीक्षा?

राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की आज पुण्यतिथि है. उन्होंने कई ऐसी कालजयी कविताओं की रचना की है, जो आज भी युवा पीढ़ी का दिल जीत लेती है. पंडित जवाहर लाल नेहरू से रामधारी सिंह दिनकर के विशेष संबंध थे, लेकिन इसके बावजूद उन्होंने चीन के साथ युद्ध के बाद नेहरू की आलोचना की थी.

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राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर (फाइल फोटो)
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर (फाइल फोटो)
स्टोरी हाइलाइट्स
  • राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की पुण्यतिथि आज
  • 23 सितंबर 1908 को जन्म, 24 अप्रैल 1974 को निधन

किसी भी इंसान में जोश और राष्ट्रीयता का भाव जगा देने वाली कालजयी कविताएं लिखने वाले ‘राष्ट्रकवि’ रामधारी सिंह दिनकर की आज पुण्यतिथि है. 24 अप्रैल, 1974 को रामधारी सिंह दिनकर का निधन हुआ था. लेकिन निधन के बाद भी वे अमर ही रहे. उनकी कविताएं, किस्सों और किताबों ने हर पीढ़ी को एक साथ जोड़ा. आज भी युवा आपको रश्मिरथी और कुरुक्षेत्र का पाठ करते हुए दिख जाएंगे.

रामधारी सिंह दिनकर एक कवि होने के साथ-साथ संसद के सदस्य भी रहे थे. करीब 12 साल तक वह राज्यसभा के सदस्य रहे, कांग्रेस ने उन्हें राज्यसभा भेजा था. और इसी कारण से वह भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के काफी करीबी थे. रामधारी सिंह दिनकर तत्कालीन पीएम जवाहर लाल नेहरू के बड़े प्रशंसक थे और अक्सर दोनों के किस्सों का जिक्र होता रहता है. 

रामधारी दिनकर ने अपने कई संबोधनों, किताबों में जिक्र किया है कि जवाहर लाल नेहरू जैसा नेता भारत में कभी नहीं हुआ. जवाहर लाल नेहरू लोकप्रिय थे, करिश्माई थे, दूरदर्शी थे. यही कारण था कि रामधारी सिंह दिनकर ने जवाहर लाल नेहरू की तारीफ में एक किताब भी लिखी थी, जिसका नाम था लोकदेव नेहरू. इसी किताब में रामधारी सिंह दिनकर ने लिखा है, ‘मैं पंडित जी का भक्त था’. 

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लेकिन इन सबके बावजूद एक बार रामधारी सिंह दिनकर ने जवाहर लाल नेहरू के खिलाफ जमकर कविता पाठ किया और हर चीज़ का दोषी बता दिया. 

राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर (फाइल फोटो)

परशुराम की प्रतीक्षा और नेहरू...
दरअसल, रामधारी सिंह दिनकर 1952 से 1964 तक राज्यसभा के सदस्य रहे थे और वो भी कांग्रेस के समर्थन से. यही वो दौर था जब देश पर एक ही व्यक्ति का जादू चलता था, वो थे तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू. लेकिन जब चीन के मोर्चे पर जवाहर लाल नेहरू की हर नीति फेल होती चली गई और चीन ने भारत को धोखा देकर लद्दाख पर धावा बोल दिया, तब रामधारी सिंह दिनकर से भी रहा नहीं गया. 

भारत-चीन के बीच 1962 के वक्त चल रहे संकट के दौर में रामधारी सिंह दिनकर ने एक कविता संग्रह लिखा, जिसका नाम था ‘परशुराम की प्रतीक्षा’. यूं तो इस कविता संग्रह में भारतीय माइथोलॉजी के किस्सों से जुड़ी कविताएं दर्ज हैं, लेकिन इसी संग्रह में कुछ कविताएं सीधे जवाहर लाल नेहरू पर निशाना थी और इन्हीं कविताओं में चीन के कारण भारत की हार को लेकर नेहरू को जिम्मेदार ठहराया गया था.

रामधारी सिंह दिनकर ने परशुराम की प्रतीक्षा कविता संग्रह के एक हिस्से में जवाहर लाल नेहरू को घातक कहकर संबोधित किया, जिसका जिक्र उन्होंने कई बार किया. उस हिस्से में रामधारी सिंह दिनकर लिखते हैं... (खंड दो) 

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घातक है, जो देवता-सदृश दिखता है,
लेकिन, कमरे में गलत हुक्म लिखता है,
जिस पापी को गुण नहीं; गोत्र प्यारा है,
समझो, उसने ही हमें यहां मारा है

जो सत्य जान कर भी न सत्य कहता है,
या किसी लोभ के विवश मूक रहता है,
उस कुटिल राजतन्त्री कदर्य को धिक् है,
यह मूक सत्यहन्ता कम नहीं वधिक है

चोरों के हैं जो हितू, ठगों के बल हैं,
जिनके प्रताप से पलते पाप सकल हैं,
जो छल-प्रपंच, सब को प्रश्रय देते हैं,
या चाटुकार जन से सेवा लेते हैं;

यह पाप उन्हीं का हमको मार गया है,
भारत अपने घर में ही हार गया है. 

जवाहरलाल नेहरू (फाइल फोटो: Getty)

राज्यसभा में हुई बहस के वक्त रामधारी सिंह दिनकर ने अपनी ही सरकार के प्रधानमंत्री पर निशाना साधा, चीन के सामने हुई हार के लिए जिम्मेदार ठहराया. यहां पर भी उन्होंने अपनी एक पुरानी कविता का अंश पढ़ा.

"रे रोक युधिष्ठर को न यहां, जाने दे उनको स्वर्ग धीर
पर फिरा हमें गांडीव गदा, लौटा दे अर्जुन भीम वीर."

दोस्ती में दगा खा गए थे नेहरू?
ऐसा नहीं है कि रामधारी सिंह दिनकर ने चीन के मसले पर जवाहर लाल नेहरू की आलोचना ही की है, अपनी किताब लोकदेव नेहरू में दिनकर ने बताया है कि चीन के युद्ध के बाद कैसे जवाहर लाल नेहरू को अंदरूनी झटका लगा था, क्योंकि उन्हें लगता था कि ये उनकी दोस्ती के साथ दगा हुई है.

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‘लोकदेव नेहरू’ किताब में एक जगह रामधारी सिंह दिनकर ने लिखा है, “…पंडित जी गए तो अपने समय पर ही, जैसे एक दिन हम सभी को जाना है, मगर मेरा खयाल है कि उनकी असली बीमारी का नाम फालिज या रक्तचाप नहीं, बल्कि चीन का विश्वासघात था. चीनी आक्रमण का सदमा उन्हें (जवाहर लाल नेहरू) बहुत जोर से लगा था. मगर एक चतुर पिता के समान वे इस व्यथा को देश से छिपाते रहे. कहने को तो संसद में यह बात वे काफी जोर से कहते रहे कि चीनी आक्रमण से हमारा तनिक भी अपमान नहीं हुआ है, मगर इस अपमान के कड़वेपन को भीतर ही भीतर उन्होंने जितना महसूस किया, उतना किसी ने नहीं किया.’’ 

 

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