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'नई टेक्नोलॉजी को नौकर बनाओ, मालिक नहीं...' माधव कौशिक ने बताए कैसे रील से जुड़ेगा साहित्य

Sahitya AajTak 2024 : दिल्ली के मेजर ध्यानचंद स्टेडियम में साहित्य और संस्कृति का महाकुंभ 'साहित्य आजतक' शुरू हो चुका है. यहां तीन दिनों तक किताब, गीत, फिल्म, संगीत, कविता और कहानियों पर बातें होंगी. इसमें कला क्षेत्र के कई दिग्गज शिरकत कर रहे हैं, जो आज की युवा पीढ़ी में अपनी मिट्टी और संस्कृति से जुड़ने और इसे बचाए रखने को ऊर्जा भरेंगे.

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साहित्य आजतक - संस्कृति के मायने
साहित्य आजतक - संस्कृति के मायने

Sahitya AajTak New Delhi: राजधानी दिल्ली में शुक्रवार से साहित्य आजतक 2024 शुरू हो चुका है. यहां देशभर के जाने-माने लेखकों, साहित्यकारों, कवियों, गीतकारों, कलाकारों का जमावड़ा लग रहा है. एक से बढ़कर एक सवाल दागे जाएंगे और विशेषज्ञ इसका जवाब देंगे. बात सहित्य से लेकर सियासत तक की होगी. पहले दिन इस मंच पर युवाओं के लिए खासकर एक विशेष सत्र 'रील से रियल तक..संस्कृति के मायने...' का आयोजन किया गया. इसमें साहित्य जगत के दिग्गजों ने आज के दौर में मोबाइल, इंटरनेट, रील्स और साहित्य-संस्कृति से जुड़ी कई मुद्दों पर चर्चा की. 

साहित्य अकादमी के अध्यक्ष और लेखक माधव कौशिक ने कहा कि कई बार नई पीढ़ी की बातें हमें सोचने पर विवश करती हैं. एक बार एक लड़के ने कहा कि अब अखबार पढ़ने की बाजाय देखने की हो गई है. इसमें चित्रों के सिवाय कुछ नहीं होता है. पहले के अखबार में रविवारीय संस्करण में एक दिन दो पेज साहित्य के लिए होता था. अब ऐसा कुछ नहीं होता. इस कार्यक्रम को लेकर एक बच्चे ने पूछा चैनल तो बहुत हैं लेकिन 'साहित्य आजतक' जैसा कार्यक्रम सिर्फ एक ही चैनल क्यों कर रहा है. इन सवालों के जवाब क्या हैं? इनका जवाब है कि हम किताबों की बात तो करते हैं लेकिन उसे पढ़ने देने का माहौल तैयार नहीं कर पाते.  

माधव कौशिक

रील हमारी असल जिंदगी की अतिरंजना है: माधव कौशिक
माधव कौशिक ने आगे कहा कि जहां तक रील और रियल लाइफ की बात है तो आज रील असल जिंदगी का अतिरंजित रूप हो चुका है. लार्जर देन लाइफ के चक्कर में हम चीजों के मायने बदलने लगे हैं और इसे विकृत कर देतें हैं. आज जो हमारे पास टेक्नोलॉजी आई है यूरोप में 30 साल पहले आकर चली गई. अब वहां के लोग हैरी पॉटर की फिल्म नहीं देखते हैं, बल्कि उसकी किताब पढ़ रहे हैं. 

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हम जेब में पूरा साहित्य लेकर घूम रहे...
कौशिक ने कहा कि हमारे जेब में मोबाइल है, इसमें पूरी दुनिया का साहित्य है. टेक्नोलॉजी ऐसी है कि आप जब चाहें, जो चाहें, वो किताब पढ़ सकते हैं. निर्भर हम पर करता है कि हम इसका उपयोग कैसे करते हैं.  अब कोई चैनल सुबह छह बजे खोलिए तो उस समय जो एक व्यक्ति की पगड़ी उछलती है, दिन भर वही चलता रहता है. हमने अतिरंजना की हद कर दी है. 

'पहले ही महौल बिगाड़ चुके हैं हम'
माधव कौशिक ने बताया कि साहित्य से जुड़े लोग जो भी कार्यक्रम करते हैं, उस तक लोग पहुंच नहीं पाते हैं. इसके पीछे वही अतिरंजना वाला माहौल है जो हम पहले बना चुके हैं. हमने अपना नुकसान पहले ही खुद कर लिया है. हम पूरी दुनिया का पुस्तकालय अपने जेब में लेकर घूमते हैं. फिर भी इसका सही इस्तेमाल नहीं कर पातें और रील के रूप में चीजों को विकृत करते जा रहे हैं. जिस दिन इसको लेकर हमारा नजरिया बदल जाएगा, उस दिन साहित्य को लेकर पूरा माहौल बदल जाएगा. 

'साहित्य को लेकर दृष्टिकोण बदलने की जरूरत'
माधव कौशिक का कहना है कि अगर यही आयोजन दिल्ली के बजाय केरल या बंगाल में होता तो पांव रखने की जगह नहीं होती. अगर साहित्यिक आयोजन दक्षिण में हो तो वहां हिंदू या मनोरमा फ्रंट पेज पर इसकी खबर को लेगा. लेकिन दिल्ली में साहित्यिक आयोजनों को एक कॉलम में समेट दिया जाता है. नई टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल एक नौकर की तरह हो, इसे मालिक नहीं बनाना चाहिए. जब ये आपके कंधे पर बैठता है तो ये बैताल का रूप ले लेता है. इसी के माध्यम से अपनी संस्कृति की गहराई और ऊंचाई दोनों जान सकते हैं.

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'हम या तो रील बना रहे हैं या देख रहे हैं, बस इसमें उलझकर रह गए हैं'
लेखक और सचिव IGNCA डॉ. सच्चिदानंद जोशी ने इस सत्र में  कहा कि  युवाओं को साहित्य में रुचि तो है, लेकिन हमारी जिंदगी हमने रीयल से ज्यादा रील्स में गुजार दी. या तो हम रील बना रहे हैं, या रील्स देख रहे हैं. हम इसमें उलझकर रह गए हैं. इसका हमें व्यसन लग जाता है.  साहित्य और संस्कृति हमारे जीवन का एक विभाज्य पक्ष है, लेकिन हमें इससे जुड़ना पड़ता है. 

डॉ. सच्चिदानंद जोशी

'किताब उपलब्ध कराने के साथ पढ़ने का माहौल भी देना होगा'
जोशी ने आगे कहा कि हमने काफी कम दरों पर पुस्तक उपलब्ध करा दिया है. फिर भी लोग पढ़ नहीं पा रहे हैं. हम युवाओं को पुस्तक तो उपलब्ध तो करा रहे हैं, लेकिन उन्हें पढ़ने की इच्छा उनमें पैदा नहीं कर पा रहे हैं. यानी हम उनके पढ़ने के लिए वातावरण तैयार नहीं कर पा रहे हैं. अब सिर्फ किताब अलमारियों की शोभा बढ़ा रही है. कई लोग ऐसी बातें करते भी दिख जाते हैं कि घर में किताब अलमारियों में रखने से शोभा बढ़ती है.

उन्होंने कहा कि रील के रूप में लोग अपने निजी गतिविधियों को भी सोशल मीडिया पर डाल रहे हैं. एक तरह का ऑबसेशन सब के सिर पर सवार है. हम उस पीढ़ी से हैं, जब फोटो खींचना और खींचवाना भी लग्जरी थी. लेकिन, आज हर आदमी कंटेंट कंज्यूमर तो है ही, कंटेंट क्रिएटर भी है. लेकिन, ये लोग कोई बौद्धिकता की थाती लेकर नहीं आए हैं, सिर्फ फूहड़ता का प्रदर्शन कर रहे हैं. 

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हमें टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल की सीमा देखनी होगी: डॉ. सच्चिदानंद जोशी 
डॉ. सच्चिदानंद जोशी  ने बताया कि आज सिर्फ रील फॉलो किये जा रहे हैं और इन्हीं फॉलोअर्स के कारण लोग कुछ भी कंटेट बनाकर परोसे जा रहे हैं. हम हर तरह से प्रगतिशील होते हुए भी इन टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल किस सीमा तक कर रहे हैं. ये देखना जरूरी है. कुछ पति-पत्नी तो सबकुछ छोड़कर बस रील बनाने में लग गए हैं और जिन्हें देखकर हम हंसते हैं और उनके करोड़ों फॉलोअर्स भी बन गए हैं. इसका क्या असर आज की पीढ़ी पर पड़ रहा है. 

रील डिजिटल क्रांति का प्रतीक है: संदीप भटोरिया
कल्चरिस्ट, सोशल एक्टिविस्ट और ट्रस्टी प्रभा खेतान फाउंडेशन संदीप भटोरिया ने  बताया कि रील से रीयल तक जब हम बात करते हैं तो रील एक डिजिटल क्रांति का प्रतीक है. हमें अब देखना होगा कि हम पहले जिस माहौल में रहते थे और अब के माहौल में क्या अंतर है. पहले हम घर आते थे, फिर दोस्तों के साथ बाहर निकल जाते थे और पान की दुकानों पर जमावड़ा लगता था. अब लोग घर आते हैं तो फ्रेश होकर हाथ में मोबाइल ले ले ते हैं. तब से अब तक के माहौल में काफी अंतर आया है. 

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संदीप भटोरिया

रील पर क्या बातें हो रही हैं?
संदीप ने कहा कि अब देखना है कि इसमें साहित्य का भविष्य क्या है. रील जो बनते हैं वो बुर्ज खलीफा की खूबसूरती और होली में क्या हो रहा इस पर बनता है. गुलजार ने क्या कहा या किसी नई किताब में क्या है इस पर क्या रील में बातें हो रही हैं.  हमारे यहां चाय का कोई वक्त नहीं है. लेकिन पश्चिम में ऐसा नहीं है. वहां हर चीज के लिए वक्त और लोग तय हैं. 

'रील बनाने वाले और उसके विषय का चुनाव जरूरी'
पश्चिम के देशों में जो रील्स बनाते हैं वो सिर्फ रील्स बनाएंगे. वो साहित्य का काम नहीं करेंगे, वो डॉक्टरी नहीं करेंगे, वो इंजीनियरिंग नहीं करेंगे.  यहां ऐसा नहीं है. यहां हर कोई रील बना रहा है. वहां अगर किसी शिक्षाविद को रील बनाना है तो वो संबंधित एजेंसी से संपर्क करेगा कि मुझे भाई रील बनाना है और अपने क्षेत्र से संबंधित विषयों पर भी रील बनाएगा. लेकिन भारत में ऐसा नहीं है, यहां कोई भी कुछ भी किसी भी विषय पर रील बना रहा है. ये सबसे बड़ी कमी है. 

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