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पुस्तक समीक्षाः एक पत्रकार के बेशकीमती अनुभवों की दिलचस्‍प किताब...

एक पत्रकार को अपने जीवन में कई तरह के लोगों और अनुभवों से रूबरू होना होता है. उसके आधार पर वह बहुत-कुछ लिखता रहता है. 'कॉफी मंथन' इसी तरह की एक किताब है, जिसे अनुभवी पत्रकार विभावसु तिवारी ने अपने अनुभवों के आधार पर लिखा है.

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कॉफी मंथन
कॉफी मंथन

एक पत्रकार को अपने जीवन में कई तरह के लोगों और अनुभवों से रूबरू होना होता है. उसके आधार पर वह बहुत-कुछ लिखता रहता है. 'कॉफी मंथन' इसी तरह की एक किताब है, जिसे अनुभवी पत्रकार विभावसु तिवारी ने अपने अनुभवों के आधार पर लिखा है. वह अपने अनुभवों को व्यंग्य की शैली में प्रस्तुत करते हैं और अंत तक उसे दिलचस्प बनाए रखते हैं.

इस किताब में दो पात्र हैं. एक तो हैं शर्मा जी, जो पत्रकार हैं और दूसरे उनके मित्र मुसद्दीलाल, जो उनकी समस्याएं सुलझाने की कोशिश करते हैं. मुसद्दीलाल उनके मुरीद हैं और उनकी बातों को गंभीरता से लेते हैं, जैसा कि एक पत्रकार की जिंदगी में अमूमन होता है. शर्मा जी अपने ज्ञान से उसे दबाए रखना चाहते हैं, लेकिन मुसद्दी बहुत ही होशियार है और उनकी बातचीत से उतना ही प्रभावित होता है, जितने में काम चल सकता है. इसके बावजूद, दोनों के संबंधों में एक गर्माहट है और दोनों एक-दूसरे के पूरक दिखते हैं.

लेखक ने कुल 20 छोटे-छोटे अध्यायों में इस किताब को समेटा है और इसे रोचक बनाए रखने की कोशिश की है. हर अध्याय एक-दूसरे से अलग है, क्योंकि उनमें मुद्दे अलग-अलग हैं. लेखक ने शुरुआत की है कॉफी मंथन से. यह अध्याय दरअसल यह बताने की कोशिश है कि एक पत्रकार के जीवन में कॉफी का महत्व है. इसलिए वह शर्मा जी के मुंह से कहलवाता है कि कॉफी एक ऐसा यूनिवर्सल ब्रांड है, जिसे हर नेता गले लगाता है. वह यह भी कहता है कि डिनर डिप्लोमेसी की बातें तो आम हो जाती हैं, लेकिन कॉफी टेबल पर की गई बातों के निष्कर्ष विस्फोटक होते हैं.

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इस किताब के हर अध्याय में व्यंग्य का सहारा लेने की कोशिश की गई है. एक सरस भाषा के जरिये लेखक अपनी बात कहता है. हर अध्याय उसके जीवन के अनुभवों पर ही आधारित है और वह उसे शर्मा जी के मुंह से कहलवाता है. इस किताब में कोई बड़ी बात नहीं कही गई है और लेखक ने अपना बड़ा ज्ञान बघारने की कोशिश भी नहीं की है. वह तो बस आम जिंदगी की समस्याओं के बारे में बताता है. वह रोजमर्रा की जिंदगी की बातों को चुस्कियां लेकर सुनाता है और जीवन की छोटी-छोटी गांठें खोलने का प्रयास करता है.

विभावसु की भाषा सहज और सरस है. वह चुटीले शब्दों का भी प्रयोग करते हैं. वह किसी हास्य कवि की तरह तरह नहीं हंसाते हैं, लेकिन उनका व्यंग्य वहां साफ झलकता है. उनके शब्द कहीं से भी दुरूह नहीं हैं और न ही उनमें कोई जटिलता है. एक पत्रकार को जैसी भाषा लिखनी चाहिए, उन्होंने लिखी है. उन्होंने अपनी विद्वता दिखाने की कोशिश भी नहीं की. अपनी बात सीधे-सादे ढंग से कहते हुए वह अगले अध्याय में चले जाते हैं. इससे पाठक की दिलचस्पी तो बनी रहती है, साथ ही अगले अध्याय के बारे में उत्सुकता भी बनी रहती है. कुल मिलाकर यह एक सहज किस्म की किस्सागोई का बेहतरीन नमूना है, जिसमें अपने विशाल अनुभव समेटे एक पत्रकार दुनिया को कुछ छोटी, लेकिन प्रासंगिक बातें बताना चाहता है. इसमें अंत तक उत्सुकता बनी रहती है.

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बस एक बात समझ में नहीं आती कि आखिरी तीन अध्यायों में लेखक ने व्यंग्य का साथ क्यों छोड़ दिया? शायद इसलिए कि वह अपनी यादों में डूब गया और कुछ ऐसी ही रचना कर बैठा. विभावसु प्रतिष्ठित समाचार पत्र के विशेष संवाददाता के रूप में रियाटर हुए और उन्होंने तकरीबन 38 वर्ष ठेठ पत्रकारिता की. संप्रति वह मुरादाबाद स्थित आईएफटीएम यूनिवर्सिटी से जुड़े हुए हैं. इस किताब को हैदराबाद के मिलिन्द प्रकाशन ने प्रकाशित किया है. इसकी कीमत 250 रुपये है. इसका कवर कुछ अनोखा-सा है और एक बार अपनी ओर खींचता भी है.

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