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बेहतर भविष्य के लिए वर्तमान से गुहार लगाती विरासत: काहे कहली‌-ईया

आपके पास कहने के लिए ढेर सारी बातें हों और सुनने वाला कोई न हो तो आप क्या करेंगे? खुद से बाते करेंगे? आपको विश्वास हो कि आपकी बात सार्थक है. लेकिन जिससे कहनी है उसे फुर्सत नहीं है क्योंकि वह बेसम्हार विकास के चकाचौंध की गिरफ्त में है, जैसे कोई अफीम के नशे में चूर गड्ढे और सड़क में अंतर न करे. आज यही स्थिति लोक संस्कृति और लोक विरासत की है.

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किताब का कवर
किताब का कवर

किताब का नाम- काहे कहली-ईया
लेखक का नाम- डॉ. आशारानी लाल
प्रकाशन- संकल्प प्रकाशन
कीमत- 250 रुपये

आपके पास कहने के लिए ढेर सारी बातें हों और सुनने वाला कोई न हो तो आप क्या करेंगे? खुद से बाते करेंगे? आपको विश्वास हो कि आपकी बात सार्थक है. लेकिन जिससे कहनी है उसे फुर्सत नहीं है क्योंकि वह बेसम्हार विकास के चकाचौंध की गिरफ्त में है, जैसे कोई अफीम के नशे में चूर गड्ढे और सड़क में अंतर न करे. आज यही स्थिति लोक संस्कृति और लोक विरासत की है, जिसे भोजपुरी की जानीमानी लेखिका डॉ. आशारानी लाल ने अपनी स्वर्गीया ईया को लिखी पातियों (काहे कहली ईया) के जरिए व्यक्त किया है.

ईया यानी दादी या मां जो बात-बात पर टोकती थीं और सब को जीवनरस में पगे अनुभवसिक्त उदाहरणों से सही-गलत का अंतर बताती चलती थीं. उन्हें इस बात की फिक्र नहीं होती थी कि कोई आकर उनसे पूछे फिर वो सही बात बताएंगी. आज की ईया को कोई सुननेवाला नहीं मिल रहा तो वो अपनी स्वर्गीया ईया से ही गुफ्तगू करने लगी कि ऐसा क्यों हो रहा है कि लोग उनकी बातों को बेकार मानने लगे हैं? अगर उनकी बातें बेकार थीं तो फिर ईया के मुख से वे निकलीं ही क्यों?

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ईया याद करती हैं कि पहले इंसान तो इंसान, ‘चिरई-चुरुंग, माल-मवेसी, कुकर-बिलार’ सबसे लोगों को लगाव होता था और सबके लिए हिस्सा निकाल कर रखते थे. होली के दिन ‘होरी’ गानेवाले लोग हरेक ग्रामीण के दरवाजे जाकर एक अंतीम गीत जरूर गाते थे: 'सदा आनंद रहे यही द्वारे मोहन खेले होरी हो...'

आज लोगों को परिवार में ही एक-दूसरे के लिये फुरसत नहीं है. गांव उजाड़ होते जा रहे हैं और विकास खूब हो रहा है. तकनीकी क्रांति ने पूरी दुनिया को एक विश्वगांव में तब्दील कर दिया है लेकिन इंसान और इंसान के बीच की दूरी और बढ़ती जा रही है. लोगों का जैसे उद्येश्य हो गया हो कि जितना हो सके अपने और अपने एकल परिवार के लिए उपभोग की चीजें जुटाना और बस उपभोग के लिए उपभोग करते जाना. जैसे मनुष्य और जानवर में कोई अंतर ही ना हो. ईया की चिंता है कि साधन को हमारे परम्परासिद्ध गंवई समाज में साध्य का दर्जा इतनी तेजी से कैसे मिल रहा है? लगता है शहर ने गांव को जैसे डस लिया हो. कभी अज्ञेय ने सांप को सम्बोधित करते हुए कहा था: 'शहर में रहे नहीं...फिर डसना कहां से सीखा?'

भारत में शहर किस चीज का पर्याय है? सभ्यता का, शिक्षा का, विकास का. ले दे कर जीवन में कुछ अच्छा करना है तो या तो शहर की नकल करो या फिर शहर में ही आ बसो. और शहरों ने क्या किया है? गंगा और यमुना जैसी नदियों को नाला में तब्दील कर दिया. नेह-नाता को बाजार की चीज बना दिया है. फटाफट काम आनेवाली जानकारी ने विवेक को अपदस्थ कर दिया है. आज की ईया को ये बातें हजम नहीं हो रहीं, उधर अपनी पृथ्वी पर कोई उन्हें भाव नहीं दे रहा. फिर उन्होंने लगाया डाइरेक्ट कनेक्शन स्वर्ग में जहां उनकी अपनी ईया बैठी हैं!

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लोक और शास्त्र
भोजपुरी बहुत ही जीवंत भाषा है. यहां की लोकसंस्कृति समृद्ध है. सदियों इसने अपनी जीवंतता से क्षेत्र के शहरों के ‘शास्त्र’ को निर्जीव होने से बचाया है. वैसे ही जैसे पूरे भारत में सदियों से लोक और शास्त्र के आदान-प्रदान ने परम्परा को नवीनता और नवीनता को संदर्भ और सार्थकता अता की है. लेकिन अब गांव में शहर से सिर्फ आदान हो रहा है और अभाव में भी आनंद मनाने वाली गँवई सामूहिकता के प्राणवायु की जगह शहरी भौतिक समृद्धि एवं आत्मकेंद्रिकता ले रही है.

आज का शास्त्र इसी शहर के ईर्द गिर्द चक्कर काटता है जो अपना जीवनरस यूरोपीय चिंताधारा से खींचता है. उस चिंताधारा से जहां पृथ्वी के सभी जीव-जंतु और संसाधन मनुष्य के उपभोग के लिए हैं. इस सोच ने पहले यूरोपीय राष्ट्रवाद और सेकुलरवाद को जना, फिर धर्म की करुणा से च्युत हो दो विश्वयुद्धों को. इसकी सबसे घातक परिणति है मनुष्य का महज एक उपभोग की मशीन बन जाना और एकाकीपन का शिकार हो मृत्यु से पहले ही अपने को अवांछित समझ ‘मरा हुआ’ घोषित कर देना. लेकिन ईया तो सजीव-निर्जीव सबका नेग-जोग रखती थी, उसके संसार में सबकुछ समाया हुआ था और जीवन का एक-एक पल जीना चाहती थी.

पितरपक्ष में बिना नागा पुरखों को उनकी आत्मा की शांति के लिए पिंडदान करवाती थी. सही मायने में मृत्यु के बाद भी कोई हमारी स्मृति और विधि-विधान से ओझल नहीं होता था. अतीत और वर्तमान मानों एक ही सिक्के के दो पहलू हों. पता नहीं कितनी पीढ़ियां एक साथ जीती थीं.

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जहां काल खंड-खंड नहीं होता
लोकजीवन की प्रतीक ईया भारतीय सनातन दृष्टि की भी वाहिका हैं. यहां कालबोध एकरेखीय नहीं है. इतिहास और वर्तमान कंधे से कंधा मिलाकर एक नए भविष्य के लिए, साझा सपनों के लिए संघर्ष करते हैं. यहां अभाव भी आनंद की बारिश कर जाता है. आकस्मिक नहीं कि हमारे सर्वोत्तम गीत लोकगीत हैं जो सुख और दुख को विछिन्न करके नहीं देखते बल्कि वे लोकधुन रूपी गाड़ी के दो पहिए हैं, जिनके बिना लोकगीत की रसानुभुति पूरी नहीं होती. इसी कालबोध का एक और पहलू यह मान्यता भी है कि जाहे जिस मजहब को मानो पहुंचना तो परमपिता परमेश्वर के पास ही है. वैसे ही जैसे रास्ता कोई भी हो, पहुंचना तो सबको उसी जगह है. यानी रास्ते अनेक हैं, मंजिल एक है. सत्य एक है, उसे देखने के तरीके अलग-अलग हैं: 'एकोसद्विप्रा बहुधा वदंति...'

लेकिन पश्चिमी नकल पर आज लोक और शास्त्र, गांव और शहर, शिक्षा और व्यवहार, अतीत और वर्तमान, व्यष्टि और समष्टि को साथ लेकर चलनेवाला समावेशी भरतीय मन मानों अपने ही घर में शरणार्थी हो गया है.

अतीत होते वर्तमान की जिद
ईया अपनी उम्र के अंतिम पड़ाव पड़ हैं. उन्हें अपनी वारिस की तलाश है: एक नई ईया की जो जीवन के विश्वविद्यालय से ऊपजे ज्ञान और विवेक को अगली पीढ़ी को सौंप सके. मौखिक परम्परा से मिली थाती को कायदे से तो किसी को सुनाकर ही सौंपना चहिए. कोई न मिला तो ईया ने 31 ‘पातियों’ के जरिए अपनी बात कह डाली ताकि पुरखे-पितरों की विरासत नष्ट होने से बच जाए और उपभोक्तावादी आंधी के पितरपक्ष में ‘पिंडदान’ का संतानधर्म भी निभ जाए. फिर जब ये आंधी थमे और लोग अपनी जड़ों की ओर लौंटें तो नेह-नाता-विरासत से शून्य शहरी महलों पर गंवई खंडहरों से प्रकट होकर पुरखे-पितर जीवनरस की बारिश कर दें. ऐसी बारिश जिसकी तेज धार में साधन को साध्य मान बैठी अपसंस्कृति के रक्तबीज बह जाएं.

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कुल मिलाकर टटका अतीत को अतीत होने के कगार पर खरे वर्तमान द्वारा लिखी ये पातियां स्वयम्भू शहरी सभ्य समाज की नकल करते गांव से विमर्श भी हैं और आनेवाली पीढ़ि‍यों के बेहतर भविष्य के लिए चेतावनी-भरा आर्तनाद भी कि संभल जाओ वरना:
ई सहरवा
एक दिन सभनी के लील जाई ...

 

(डॉ. चंद्रकांत प्रसाद सिंह के ब्लॉग U & ME से साभार)

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