किताब: लावा
लेखक: जावेद अख्तर
कीमत: 265 रुपये
पेज: 140 रुपये
प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन
'लावा' जावेद अख्तर की ग़ज़लों और नज्मों का दूसरा संग्रह है, जो पहले संग्रह से लगभग 20 साल बाद आया है. इन बीस सालों में पूरी दुनिया की तस्वीर बदल चुकी है और एक पीढ़ी जवान हो चुकी हैं और इंसान के सामने नई चुनौतियां, नए सवाल और नए विचार भी सामने आ चुके हैं. इन चुनौतियों का सामना यह ग़ज़ल संग्रह करता है. इस संग्रह में 145 ग़ज़लें शामिल की गई हैं.
ग़ज़लों से साफ झलकता है कि लेखक ने उन विवादों को थाम दिया है
जो कविता ग़ज़ल को लेकर होते रहें हैं. उन्होंने ये दिखा दिया है कि अपनी बात छंद मुक्त और छंद युक्त दोनों ही तरीके से
कही जा सकती है. लेखक ने दोनों ही कला का बेहतर प्रयोग किया है.
किसी बात को कहने का जितना अच्छा तरीका और सलीका उनको आता है शायद वही तरीका लिखने में दिखता है. जब
व्यक्ति अंतर्मन के द्वंद्व में जकड़ा रहता है और वस्तु और विचार के उद्भव पर सोचता है तो जावेद अख्तर इसे इस प्रकार
लिखते हैं
कोई ख़्याल
और कोई भी जज़्बा
कोई शय हो
पहले-पहल आवाज़ मिली थी
या उसकी तस्वीर बनी थी
सोच रहा हूं
जावेद अपने गहरे और विस्तृत चिंतन को प्रस्तुत करते हुए लिखतें है कि तमाम लोग भेड़ चाल या घिसे-पिटे रास्ते पर
चलते रहते हैं, जिनको वो ठीक नहीं मानते.
जिधर जाते हैं सब, उधर जाना अच्छा नहीं लगता
मुझे पामाल रास्तों का सफ़र अच्छा नहीं लगता
आज पूरा समाज एक ख़ास तरह की चुप्पी या मौन साधे हुए है. बहुत से लोग गलत विचारों को सुनते है और आगे चल
देते है. जावेद जी की पैनी नज़र इस पर भी गई है-
गलत बातों को ख़ामोशी से सुनना, हामी भर लेना
बहुत हैं फायदे इसके मगर अच्छा नहीं लगता
भारत जैसे देश में जहां बहुआयामी सांस्कृतिक विरासत की बहुलता है. जिसे बहुत से लोगों ने अपनी जान देकर सजोकर
रखने की कोशिश की है, वह आज टूटने की कगार पर है. दंगा-फसाद, साम्प्रदायिकता इत्यादि मनुष्यता का नाश करने
में लगे हैं. वहीं अख्तर जी संवेदनशीलता कहती है,
ये क्यों बाकी रहे आतिश-जनों, ये भला जला डालो
कि सब बेघर हो और मेरा हो घर, अच्छा नहीं लगता
संबंधों, रिश्तेनातों में आज जो नये तरह के उलझाव पैदा हो गए हैं उनको समझने का मौका जावेद जी की ग़ज़ल में देखने
को मिलता है कि अब गलती स्वीकार नहीं की जाती बल्कि थोपी जाती है,
उठाके हाथों से तुमने छोड़ा,चलो न दानिस्ता तुमने तोड़ा
अब उलटा हमसे ये न पूछो कि शीशा ये पाश-पाश क्यों हैं
जावेद ने अपनी कलम उस खेल पर भी चलाई जिसको की बुद्धिजीवी वर्ग का खेल कहा जाता है, शतरंज. इस तरह उन्होंने
कला, साहित्य और खेल को भी वर्गीय दृष्टि से देखा है:
मैं सोचता हूं
जो खेल है
इसमें इस तरह का उसूल क्यों है
कि कोई मोहरा रहे की जाए
मगर जो है बादशाह
उस पर कभी कोई आंच भी न आए
आंसू मनुष्य की जिन्दगी का बहुत ही संवेदनशील हृदयस्पर्शी अहसास है जो बहुत कम लोगों की समझ में आता है. जावेद
ने लिखा है:
ये आंसू क्या इक गवाह है
मेरी दर्द-मंदी का मेरी इन्सान-दोस्ती का...
मेरी ज़िन्दगी में ख़ुलूस की एक रौशनी का...
जहां ख़यालों के शरह ज़िन्दा हैं...
झूठे सच्चे सवाल करता
ये मेरी पलको तक आ गया है.
इंसानी रिश्ते बहुत ही जज़बाती होते हैं. जुदाई, मिलन, स्नेह, क्रोध ये सब उन्हीं पर करते हैं जिन्हें वे प्यार करते हैं
या जिन पर यकीन करते हैं. यह नहीं तो कुछ नहीं:
यकीन का अगर कोई भी सिलसिला नहीं रहा
तो शुक्र कीजिए कि अब कोई गिला नहीं रहा
जावेद अख्तर ने उन लोगों को पहचान लिया था कि जो सबके साथ हैं और किसी के साथ नहीं. ऐसे लोग सिर्फ अपने
स्वार्थ के साथ खड़े होते हैं:
मुसाफिर वो अजब है कारवां में
कि हमराह है शामिल नहीं
आज के दौर में अन्धविश्वास और आडम्बरों का पुनः उत्थान हो रहा है. पहले भी चार्वाक, बुद्ध, कबीर जैसे लोगों ने उस
पर बहुत चोट की. जावेद जी ने भी उसी परम्परा का निर्वाह किया है:
तो कोई पूछे
जो मैं न समझा
तो कौन समझेगा
और जिसको कभी न कोई समझ सके
ऐसी बात तो फिर फ़ुज़ूल ठहरी
जावेद अख्तर का नाम उन शायरों जरूर गिना जाएगा जब बात सितमगारों, चमनगारों की होगी. उन शायरों में भी गिनती
होगी जिसने अपनी शायरी के माध्यम से हुक्मरानों की आंखों में आंख डालकर सच को सच और न्याय को न्याय कहा:
खून से सींची है मैंने जो मर-मर के
वो ज़मी एक सितमगार ने कहा उसकी है
और इसी बात को आगे बढ़ाते हुए वे कहते हैं कि -
वो चाहता है सब कहें सरकार तो बेऐब है
जो देख पाए ऐब वो हर आँख उसने फोड़ दी
ऐसा नहीं है कि जावेद ने सिर्फ दूसरों पर ही लिखा. अपने बारे में, समय के बारे में, मानवीय व्यवहार के बदलते पैमाने
पर भी उन्होंने लिखा है:
गुज़र गया वक्त दिल पे लिखकर न जाने कैसी अजीब बातें
वरक (पृष्ठ) पलटता हूं जो मैं दिल के तो सादगी अब कहीं नहीं
आज का मनुष्य दुःख, आशंका, कड़वाहट, द्वेष,
अजनबीयत और अलगाव का शिकार हो चुका है. तमाम एकता और संघर्ष के नारों को सम्बोधित करते हुए उन्होंने
कहा:
सच तो यह है
तुम अपनी दुनिया में जी रहे हो
मैं अपनी दुनिया में जी रहा हूं
प्रस्तुत संग्रह आवाज़ है उन लोगों की जो सुनी नहीं जाती. यह आगाज़ है उन तरंगों का जिनका अहसास बहुत दूर तक
जाता है. यह सम्बोधन है अपने समय से कि वक्त सदा आगे बढ़ता है. यह ललकार है उनके लिए जो वक्त से आगे की
सोचते हैं.
“न कोई इश्क है बाकी न कोई परचम है
लोग दीवाने भला किसके सबब हो जाएं”