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जन्मदिन विशेषः कलम साधक के 97 बरस; चह-चह करतीं घर में चिड़ियां, जब से आए रामदरश जी

लोहे की भारी-भरकम हथकड़ियां टूट जाती हैं, पर कच्चे धागे की पकड़ नहीं. रामदरश मिश्र भी शायद कच्चे धागों से बांधने वालों में से हैं, जिनसे कभी कोई छूट नहीं पाया...हिंदी के वयोवृद्ध लेखक के जन्मदिन पर लेखक शिष्य प्रकाश मनु का एक आत्मिक लेख

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सपत्नीक डॉ रामदरश मिश्रः हिंदी साहित्य में हर दिन कुछ जोड़ते रचनाकार
सपत्नीक डॉ रामदरश मिश्रः हिंदी साहित्य में हर दिन कुछ जोड़ते रचनाकार

दिल्ली आना मेरी जीवन-कथा का सबसे अटपटा और अजीबोगरीब अध्याय है. खुद मेरे लिए एक उलटबांसी. इसलिए कि दिल्ली में आकर भी मैं कभी दिल्ली का हुआ नहीं, और दिल्ली मेरी हो सके, यह तो असंभव ही था...

शायद मुझ सरीखा सिर से पैर तक घोर कसबाई आदमी दिल्ली के लिए बना ही नहीं था. लिहाजा जब मैं यहां आया, तो बहुत डरा-डरा सा था. सोचता, भला मेरे जैसा एकदम सीधा-सादा, मगर उजबक सा आदमी यहां कहां आकर फंस गया? ऊपर से स्वभाव भी माशाअल्लाह. जो मन में आए, वह सीधा सामने वाले के मुंह पर कह दिया, बगैर यह सोचे कि वह सोचेगा क्या... या फिर बदले में क्या कुछ कर गुजरेगा, और मेरा जीना मुहाल हो जाएगा!
पर फिर ऐसे में कुछ बड़े सुखद संयोग भी हुए. पहले देवेंद्र सत्यार्थी जी मिले, फिर रामविलास शर्मा जी मिले, रामदरश मिश्र जी मिले, शैलेश मटियानी मिले, विष्णु खरे मिले...! और मैं अंदर से भर सा गया. मुझे लगा, इसी दिल्ली में एक और दिल्ली है, उसे मैं क्यों भूले बैठा हूं? वह तो मेरी और मुझ सरीखे सबकी दिल्ली है, जो अपनी ठेठ कसबाई जिंदादिली को छोड़ने को तैयार नहीं हैं, और दिल्ली को दिल्ली की तरह नहीं, बल्कि अपनी शर्तों और अपने जीवन मूल्यों के साथ जीना चाहते हैं.
और मैंने पाया कि एकाएक जीवन में स्वाद बढ़ गया है. और यह भी कि दिल्ली में मैं भी अपने इन धुरंधर साहित्यिक गुरुओं की तरह ढंग से लिख-पढ़ सकता हूं, जी सकता हूं. बहुत कुछ अंदर से उमग-उमगकर सामने आने लगा... यहां मैं बहुतों से मिला. बहुत कुछ सीखा, बहुत कुछ पाया. बहुत से मित्र बने. बहुत कुछ लिखा भी. उपन्यास, कविता, कहानियां, आलोचना, साक्षात्कार, बच्चों का साहित्य... जो कुछ मन में उमगता, वह कागजों पर उतरता जाता. लगने लगा, जीवन में रस है. ऐसा जीवन कोई बेमानी तो नहीं!
पर क्या यह संभव था, अगर मैं इस दिल्ली के ही किसी कोने-ओने में मौजूद अपनी दिल्ली का साक्षात्कार न कर पाता?...और मैं यह साक्षात्कार कर सका, तो इसका पूरा श्रेय मैं अपने आगे-आगे चलने और राह दिखाने वाले गुरुओं को देता हूं. सबसे मैंने बहुत कुछ सीखा, बहुत कुछ पाया.
इसीलिए कई बार मैं अपने मित्रों से कहता भी हूं कि मैं तो छोटा सा आदमी हूं, पर जिन गुरुओं का साथ मुझे मिला है, वे सच ही बड़े थे, बहुत बड़े. मैं बहुत बड़े-बड़े उस्तादों का शिष्य हूं, यह बात एक क्षण के लिए भी मैं भूल नहीं पाता. अगर बरसों बरस दिल्ली -या फिर उसके पड़ोस में रहकर मैंने कुछ कमाई की है, तो वह यही कि बहुत बड़े-बड़े गुरुओं के चरणों पर बैठने का सौभाग्य मुझे मिला है.
यह ऐसी चीज है जो मुझे किसी बड़े से बड़े ताकतवर आदमी के आगे भी झुकने नहीं देती, कभी कोई हलका काम नहीं करने देती. मन में एक ही बात आती है कि मैं इतने बड़े-बड़े धुरंधर साहित्यकारों का शिष्य हूं, तो जीवन में कोई ऐसा काम मुझसे न हो जाए, जिससे उनके नाम पर आंच आए. या कि लोग कहें कि जरा देखो तो, प्रकाश मनु, जो इतने बड़े गुरु का शिष्य है, उसने यह क्या किया! मेरे लिए यह मृत्यु से भी ज्यादा बड़ी सजा है.

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2.
चलिए, अब जरा रामदरश जी की ओर आते हैं. जिसने भी उन्हें देखा होगा, वह एकबारगी कहेगा कि वे बहुत ही सीधे-सरल हैं. मुझे भी ठीक ऐसा ही लगा था. मैं एक बार उनके निकट आया तो फिर खिंचता ही चला गया. कई बार मैं अपने आप से पूछता हूं, भला सीधे, सहज रामदरश जी में ऐसा आकर्षण कहां से आया? उनमें ऐसा क्या है, जो एक बार आपको बांधता है, तो आप जिंदगी भर के लिए उन्हीं के होकर रह जाते हैं.
पर जवाब अभी तक नहीं खोज पाया. तब अपने आप को यह कहकर समझा लेता हूं कि शायद उनके पास कोई कच्चे धागे का सा जादू है. लोग बड़ी से बड़ी चट्टानी दीवारें भी तोड़कर बाहर आ जाते हैं. पर जो एक बार कच्चे धागे से बांधता है, वह ताउम्र बंधा ही रह जाता है.
रामदरश जी भी शायद कच्चे धागों से बांधने वालों में से हैं, जिनसे कभी कोई छूट नहीं पाया. लोहे की भारी-भरकम हथकड़ियां टूट जाती हैं, पर कच्चे धागे की पकड़ नहीं. शायद रामदरश जी ने मुझे भी इस कच्चे धागे से ही बांधा होगा. इसलिए दिन में दो-चार बार उनका नाम जबान पर न आ जाए, तो दिन का स्वाद कुछ अच्छा नहीं लगता....
आइए, अब मैं सर्दियों के उस धूप भरे दिन में आपको लिए चलता हूं, जिसका जिक्र न करूं, तो बात अधूरी रह जाएगी. मेरे जीवन का वह एक यादगार दिन था, जब मैं एक भीतरी उमंग से भरकर यों ही रामदरश जी के यहां पहुंच गया था बातचीत करने के लिए, और पूरे दिन उनके साथ बहता रहा. एक ऐसा दिन, जिसके आनंद और आह्लाद का बखान करने के लिए मुझे रामदरश जी की ही एक कविता की इस पंक्ति का सहारा लेना पड़ेगा, कि- दिन एक नदी बन गया!
और सच पूछिए तो वह दिन आज भी नदी बनकर मेरे भीतर बह रहा है.
उस दिन रामदरश जी के जीवन के तमाम पन्ने खुले और खुलते ही चले गए. मैं लगभग पूरे दिन उनकी बातों और उनके अनुभवों की आंच में सीझा उनके पास बैठा रहा. उनकी जिंदगी और लेखन-यात्रा तथा संघर्षों के बहुत-से मर्म-बिंदु जानता था, लेकिन उनकी आधार-पीठिका पहली बार खुली. और उस खुली बातचीत में रामदरश जी को ज्यादा खुलेपन से और कहीं ज्यादा करीब से जाना.
खास बात यह थी कि उनके यहां बड़े लेखकों वाली दिखावटी व्यस्तता का ताम-झाम मुझे बिल्कुल नजर नहीं आया. उनका वह पूरा दिन जैसे मुझे दे दिया गया. वे पूरी तरह प्रफुल्ल थे और बातचीत के मूड में थे. और वह बातचीत इस तरह अनौपचारिक थी कि एक प्रसंग में से तमाम प्रसंग निकलते चले जा रहे थे. फिर एकाएक रामदरश जी के साथ-साथ उनके तमाम साथियों और सहयात्रियों के चेहरे उनमें से झांकने लगे. खासकर निराला और अपने गुरु पं हजारी प्रसाद द्विवेदी का जिक्र आने पर तो वे बेहद भावुक हो गए थे.
तमाम वरिष्ठ लेखकों का जिक्र हुआ और उनके तमाम संस्मरणात्मक प्रसंग इस लंबी बातचीत में खुल-खुलकर सामने आने लगे. लेकिन सबसे बढ़िया प्रसंग वे थे, जिनमें गांव के मामूली और अनपढ़ लोगों का जिक्र था और वे उनकी अद्भुत शख्सियत का बखान-सा करते थे कि उस समय उन लोगों ने मुझे बचाया न होता तो आज मैं कुछ न होता, कहीं न होता.
इसी बातचीत के क्रम में मैंने एक 'असुविधाजनक' सवाल पूछ लिया कि "तमाम लोगों ने आपके साथ यात्रा की, मगर वे बहुत आगे निकल गए, उनका बहुत नाम है और आप कुछ पिछड़-से गए हैं. ऐसा किसलिए?"
मैं सोचता था, सवाल सुनकर वे नाराज होंगे. लेकिन बड़ी ही सहजता के साथ उन्होंने सवाल का सामना किया और कहा कि, "जो-जो ये तथाकथित बड़े लेखक हैं, उनके साथ कोई न कोई बड़ी पत्रिका या लेखक-संगठन जुड़ा रहा और उनकी जो भी अच्छी रचनाएं हैं, वे इस कदर उछाले जाने से पहले की हैं. बाद में तो वे लेखक के रूप में चुक ही गए, जबकि मैं लगातार एक लेखक के आत्मविश्वास के साथ अपनी राह पर आगे बढ़ता गया. और मुझे इस बात का मलाल नहीं है कि मुझे इतना उछाला क्यों नहीं गया. मुझे अपने पाठकों का बहुत प्यार मिला है और वही मेरी शक्ति है. जबकि इस तरह से बहुत उछाले गए लेखकों की रचनाएं शायद पढ़ी ही नहीं जातीं."
मेरा एक और थोड़ा अटपटा-सा सवाल था कि जो जीवन उन्होंने जिया, क्या उससे वे संतुष्ट हैं? और अगर दुबारा जीवन की शुरुआत करनी पड़े तो...? सवाल के जवाब में उन्होंने मुसकराते हुए कहा, "जो जीवन मैंने जिया, उससे मैं पूरी तरह संतुष्ट हूं. अगर दुबारा जीने को मिले, तो मैं बहुत कुछ ज्यों का त्यों रखना चाहूंगा. हां, मैं चाहूंगा कि मेरा झेंपू स्वभाव और घरघुसरापन थोड़ा कम हो, ताकि जो उपेक्षा मेरे खाते में आई है, वह न रहे और लोग मेरे बारे में जानें. खुद अपने गले में ढोल लटकाकर आत्म-विज्ञापन करने वालों की दुनिया में अगर एक ईमानदार लेखक को जीवित रहना है, तो उसे अपना अति संकोच और घरघुसरापन तो छोड़ना ही होगा."
उस लंबे इंटरव्यू को किए लंबा अरसा हो गया और इतने समय में मैंने उन्हें लगातार और-और गहरे आत्मविश्वास से भरकर और अधिक दृढ़ता, लेकिन संयत ढंग से अपनी बात कहते देखा है. जयशंकर प्रसाद के 'आंसू' की एक प्रसिद्ध पंक्ति है, 'दीनता दर्प बन बैठी, साहस से कहती पीड़ा...!' रामदरश जी में दैन्य तो कभी था ही नहीं. हां, एक झिझक कभी-कभी नजर आती थी, बहुत सहने और सहकर लिखने वाले लेखक की झिझक. इधर मैं देखता हूं, उन्होंने अपनी झिझक को तोड़ा है और खुलकर अपनी बात कहने लगे हैं.
'दयावती मोदी कवि शेखर सम्मान' मिलने पर उनके पास लेखकों और पाठकों की बधाइयों का तांता लग गया, लेकिन कुछ 'महान' थे जो चुप्पी साधे रहे और यों दर्शाते रहे, जैसे अशोक वाजपेयी, केदारनाथ सिंह और विनोदकुमार शुक्ल के बाद रामदरश मिश्र को यह पुरस्कार मिल जाने से कोई कुफ्र हो गया हो और इस पुरस्कार की मर्यादा घट गई हो. हालांकि बाद में इन महानों ने भी झेंपकर ही सही, उन्हें बधाई दी.
एक दिन यही प्रसंग चल निकलने पर रामदरश जी ने कहा, "हिंदी साहित्य के ये जितने तथाकथित महान लोग हैं जो लिखते कुछ नहीं, सिर्फ पूरे समय साहित्य की राजनीति करते हैं, इन्हें मैं अपने सामने कुछ नहीं मानता. अगर एक लेखक की लेखन-यात्रा के लिहाज से ही देखा जाए तो ये मेरे सामने कहीं नहीं ठहरते. मुझमें पहले भी यह आत्मविश्वास था और अब भी यह आत्मविश्वास है कि लेखक तो मैं ही बड़ा हूं, ये चाहे कितना ही अपना ढोल पीटते रहें! मैं आज भी इनसे बड़ा हूं और आने वाले कल में भी निश्चय ही इनसे बड़ा साबित होऊंगा, जबकि ये ढोल पीटने और पिटवाने वाले कहीं नहीं होंगे."
यह बात कोई कम काबिले-तारीफ नहीं कि राजधानी में इतने बरसों से रहते हुए भी रामदरश जी ने अपनी सहजता और गांव के आदमी का खरापन खोया नहीं. इससे उन्हें नुकसान चाहे जो भी हुए हों, लेकिन एक फायदा भी हुआ है कि वे छोटे-बड़े हर नए आदमी से प्यार से धधाकर मिलते हैं और पूरी तरह उससे समरस हो जाते हैं. इसीलिए तथाकथित बड़े जब एकांत की चारदीवारियों में कैद हैं, रामदरश जी ने खुद को खुला छोड़ दिया है. अब वे खुद के ही नहीं रहे, उन सभी के हैं जो उन्हें प्यार करते हैं और उन्हें प्यार करने वालों की संख्या निरंतर बढ़ती ही जाती है. खासकर युवा पीढ़ी को उनसे जो प्यार मिला है, उसकी तो मिसाल ही मुश्किल है. शायद ही उनके अलावा कोई दूसरा साहित्यकार हो, जो नई पीढ़ी के लेखकों से इतना खुलकर संवाद रख पाता है.
मुझे याद है, वाणी विहार में रामदरश जी के सम्मान समारोह में प्रसिद्ध आलोचक डॉ नित्यानंद तिवारी ने एक बड़े काम की बात की. उन्होंने कहा कि अगर रामदरश जी को तथाकथित महान लोगों में ही शुमार होना होता, तो वह तथाकथित महानता तो उन्हें बहुत पहले ही मिल गई होती. तब वे औरों के बताए रास्तों और औरों के सांचों के हिसाब से औरों जैसा ही लिख रहे होते, पर रामदरश जी को ऐसी तथाकथित महानता की दरकार नहीं थी. इसके बजाय उन्होंने अपने ही रास्ते पर चलकर, अपने ही जैसा लिखना पसंद किया. और इसी कारण उन्हें अपने पाठकों का बेशुमार प्यार मिला. यह महानता, तथाकथित महानों की किसी भी नकली महानता से ज्यादा बड़ी है. पाठकों का जो आदर और प्यार रामदरश जी को मिला है, वही उन्हें महान बनाता है और उनकी यह महानता आज सभी स्वीकार कर रहे हैं.
नित्यानंद तिवारी जी के इन शब्दों को याद करता हूं तो अनायास रामदरश जी का एक भोजपुरी गीत मेरे होंठों पर उतर आता है. मुझे इस भोजपुरी गीत के शब्दों में रामदरश जी का ठेठ गंवई चेहरा नजर आता है, जो महान लोगों की महानता को ठुकराकर, गांव के सीधे-सादे किसान-मजदूरों के साथ बैठने, और उन्हीं की भाषा में उनके साथ बतियाने में कहीं अधिक सुख महसूस करता है. भोजपुरी मेरी मातृभाषा नहीं है, पर इस भोजपुरी गीत की संवेदना को महसूस करने में मुझे कोई परेशानी नहीं होती. लीजिए, आप भी इस भोजपुरी गीत में बहती करुणा को महसूस कीजिए-

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घेरि-घेरि उठलि घटा घनघोर और कजरार, सावन आ गइल!
बेबसी के पार ओते, अवरु हम ए पार, सावन आ गइल!

घिरि अकासे उड़े बदरा, मेंह बरसे छाह प्यारी ओ!
जरत बाटी हम तरे कल, क पकड़ के बांहि, प्यारी ओ!
लड़ति बा चिमनी घटा से, रोज धुआंधार, सावन आ गइल!

उठति बा मन में तोहें, कजरी पुकारि-पुकारि, प्यारी ओ!
झकर-झकर मसीन लेकिन, देति बा सुर फारि, प्यारी ओ!
रहे नइखे देति कल से, ई बेदर्द बयार, सावन आ गइल!

खेत में बदमास बदरा, लेत होइहें घेरि, प्यारी ओ!
छेह पर लुग्गा सुखत होई, तोरे अधफेरि, प्यारी ओ!
पेट जीअत होई पापी, खाइ-खाइ उधार, सावन आ गइल!
यहीं एक प्रसंग और याद आता है. रामदरश जी से एक बार किसी ने पूछा, "आपकी नजर में महानता क्या है...या महान आदमी कौन है?" इसके जवाब में रामदरश जी ने सहजता से कहा था, "मेरे खयाल से महान व्यक्ति वह है, जो अपने संपर्क में आने वाले छोटे-बड़े सभी को अपनाकर मिलता है और उन पर अपने बड़े होने का आंतक बिल्कुल नहीं डालता."
इस लिहाज से अगर देखें तो आज के साहित्यिक परिवेश में रामदरश जी अकेले लेखक हैं, जो इतना अधिक नए लेखकों को पढ़ते हैं और निरंतर उनकी हौसला अफजाई करते हैं. आज के समय में जबकि न पढ़ने का ही चलन है और न पढ़ना कहीं ज्यादा बड़प्पन और रोब-दाब का सूचक बन गया है, वहां रामदरश जी की खोज-खोजकर नयों को पढ़ने और उन्हें आगे लाने की तत्परता चकित जरूर करती है.
मुझे सुखद आश्चर्य होता है, जब किसी पत्रिका में मेरा कोई लेख या रचना देखकर वे मुझे सूचना देते हैं, और साथ ही अपनी राय भी बता देते हैं. मेरे लिए ये क्षण जीवन के सर्वाधिक आनंद के क्षण होते हैं. और सार्थकता के भी. इन्हीं क्षणों में लगता है कि आज जब साहित्य में इतनी आपाधापी और टांगखिंचाई चल रही है, तब रामदरश जी जैसे लेखक भी हैं जो एक व्यक्ति होते हुए भी, एक परंपरा की सदेह उपस्थिति जैसे लगते हैं.
शायद इसी सचेत भाव से जीने ने ही रामदरश जी को एक ऐसा सक्रिय, ऊर्जावान लेखक बनाया है, जो निरंतर खुद को बांटता और देता चल रहा है, लेकिन झुका हरगिज नहीं है.

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यह बात मुझे सुखद विस्मय से भर देती है कि इस अवस्था में भी, जब रामदरश जी सौ का आंकड़ा छूने के काफी निकट आ गए हैं, वे तन-मन से काफी स्वस्थ और सचेत हैं. कभी-कभार आ जाने वाली छोटी-मोटी व्याधियों के अलावा कोई ऐसी चीज नहीं, जो उन्हें काम करने से रोक सके. यहां तक कि उम्र की नवीं दहाई में उन्होंने दो-दो उपन्यास लिख डाले और वे दोनों रस विभोर कर देने वाले उपन्यास हैं. इनमें एक में स्वयं रामदरश जी का बचपन है.
लेकिन इससे भी अचरज भरी चीज इस दौर की उनकी कविताएं हैं. इस दौर में छपी उनकी कविता पुस्तकों 'आम के पत्ते' और 'आग की हंसी' में बड़े ही सहज ढंग से रामदरश जी की कविता एक नया मोड़ लेती है. मुझे सबसे अच्छी बात यह लगी कि उम्र की दहाई तक आते-आते रामदरश जी इस कदर कवि-सिद्धता हासिल कर चुके हैं कि उनकी कविताएं बड़ी सहज और अनौपचारिक हो चली हैं. अपने आसपास का जो जीवन वे डूबकर जीते हैं, वह सहज ही उनके शब्दों की संवेदना में घुल-घुलकर बहता दीख पड़ता है. इतना सहज कि उन्हें कविता लिखने के लिए विषय ढूंढ़ने की दरकार नहीं है. बल्कि उनके आसपास जो कुछ भी है, वह खुद-ब-खुद कविता की ओर खिंचा चला जाता है, और फिर कवितामय होकर हमारी आंखों के आगे आता है तो हम चौंक पड़ते हैं कि अरे, यहां तक आते-आते तो रामदरश जी के लिए मानो सारा जीवन ही कवितामय हो उठा है. जीवन में कुछ भी ऐसा नहीं है, जो उनकी कविता की चौहद्दी से बाहर हो.
यह बात कहते हुए मुझे प्रेमचंद याद आते हैं, जिन्होंने अपनी कहानी और उपन्यासों में उस दौर की परिस्थतियों के साथ-साथ पूरा जीवन ही उतार दिया और उसे कथामय कर दिया. ठीक ऐसे ही रामदरश जी अपनी अपूर्व सिद्धता से जीवन के हर रंग, हर रेशे को कविताई के रंग में ढालते जा रहे हैं. और इसके लिए उन्हें कुछ करना नहीं पड़ता. कविता तो हर समय उनके साथ बहती ही है, और जो कुछ वे देखते हैं, पास से महसूस करते हैं, वह खुद-ब-खुद कवितामय हो उठता है. जैसे अगर आप हरिद्वार या ऋषिकेष जाएं, तो आपको पता चलेगा कि गंगा की धारा के आसपास जो भी जीवन है, वह भी मानो गंगामय है. गंगा तो गंगा है ही, गंगा के चारों ओर जो जीवन बहता है, वह भी गंगा ही है, गंगा की पवित्रता में भीतर तक नहाया हुआ सा है.
तुलसीदास ने 'सियाराममय सब जग जानी' कहा तो यह सिर्फ एक चौपाई ही न थी, बल्कि पूरे संसार को सच ही उन्होंने सियाराममय देखा था. उसी तरह रामदरश जी ने पूरे जग-जीवन को ही कवितामय कर डाला. क्या यह सिद्धता यों ही मिल जाती है...? अगर जीवन में बड़ी संवेदना और हदय विस्तार न हो, तो क्या आप उसे इस तरह सहज हासिल कर सकते हैं?
इस लिहाज से रामदरश मिश्र की मेज, चाकू, चम्मच जैसी रोजमर्रा के इस्तेमाल की चीजों पर लिखी गई कविताएं तो अद्भुत हैं. उनकी 'मेज' कविता पढ़ते हुए हम चकित होकर देखते हैं कि यहां मेज केवल मेज ही नहीं रह जाती, वह पूरी जिंदगी हो जाती है. और एक लेखक के जीवन का तो पूरा इतिहास ही उसमें होकर बहता है. इस मेज के आसपास कितने लोग आकर बैठे. उन सबके सुख-दुख की अपार कहानियां, दर्द और संवेदनाएं, मित्रों और परिवारीजनों के साथ स्नेह-प्रीतिमय संवाद, सब की साक्षी यह मेज ही तो है. फिर एक-एक कर इस मेज पर जमा होती गई पुस्तकें, पत्रिकाएं और उनमें बहती हुई तरल संवेदना की यह गवाह है. इतना ही नहीं, इस मेज पर रखी हुई चिट्ठियां...स्याही के धब्बे, दाग...सभी जैसे जिंदगी के अनथक प्रवाह की कहानी कह रहे हैं. रामदरश जी न सिर्फ अपार धैर्य से उसे सुनते हैं, बल्कि आहिस्ता से कविता में भी पिरो देते हैं.
यों रामदरश जी की कविता में आई मेज सिर्फ मेज नहीं, एक सृजनधर्मी लेखक का पूरा जीवंत इतिहास बन जाती है. वह सुख-दुख की अमिट कहानी के साथ-साथ उन मानवीय उपलब्धियों को भी आंखों के आगे ले आती है, जिससे हमें अपना मनुष्य होना सार्थक लगने लगता है. और ऐसी एक नहीं, दर्जनों कविताएं उनके यहां हैं.
ऐसे ही कुछ अरसा पहले मां पर लिखी गई रामदरश जी की कविता बड़ी मार्मिक और पुरअसर है, जिसमें बचपन की बहुत सी मीठी-तीती स्मृतियां जुड़ गई हैं. सरस्वती जी पर लिखी गई कविता भी एक रम्य किस्म के घरेलूपन की गंध लिए है. यहां तक कि तीसरी पीढ़ी के बच्चों पर लिखी गई रामदरश मिश्र की कविताओं में भी बड़ा रस, आनंद और खुलापन है. खासकर एक छोटे बच्चे उत्तू पर लिखी गई रामदरश जी की कविता तो मैं भुला ही नहीं पाता. हो सकता है, उत्तू अब बड़ा हो गया हो, पर उनकी कविता का उत्तू तो अब भी उसी तरह छोटा और नटखट ही हैं, जो अपनी हँसी और विविध कौतुकपूर्ण छवियों से हमें लुभा लेता है.

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कई बार मैं सोचता हूं, मैंने प्रेमचंद को नहीं देखा, पर रामदरश जी में मैंने जिस प्रेमचंद को देखा, या रामदरश जी के विपुल साहित्य में जिस प्रेमचंद को पुनर्नवा होते हुए देखा और पाया, वह क्या भुलाने की चीज है? प्रेमचंद गांवों के कथाकार थे तो रामदरश मिश्र भी जब गांव की बात करते हैं, तो पूरा गांव एकदम आंखों के आगे आ जाता है. दिल्ली में बरसोंबरस रहते के बावजूद अगर आज भी वे गांव के हैं, गांव की मिट्टी तथा पानियों की गंध और आस्वाद आज भी अगर उनकी कहानी और कविताओं में आता है, तो मन को अपने साथ बहा ले जाता है. प्रेमचंद की कला कलाविहीनता की कला थी. इसी में वह इतनी सुंदर, इतनी विराट भी है, जो अनायास ही मन में उतरती चली जाती है. और ठीक यही बात रामदरश जी के लिए कही जा सकती है.
मुझे कहने दीजिए कि प्रेमचंद और उनके साहित्य ने आजादी से पहले जो काम किया था, आजादी के बाद वही काम साहित्यकार रामदरश जी ने और नए विचारों की संवाहक उनकी कृतियों ने किया. आजाद भारत में उन्होंने गांव की जनता को सच्ची आजादी का मतलब बताया और उसके लिए अपने आप से और व्यवस्था से लड़ने की प्रेरणा दी. अशिक्षा, दैन्य, जातिगत भेदभाव और रूढ़ियों से ग्रस्त ग्राम्य समाज में उनकी कृतियां नई सोच का पैगाम और नया जीवन लेकर पहुंचीं, और उन्होंने जनता को युग-परिवर्तन की राह पर आगे आने के लिए पुकारा. रामदरश जी के साहित्य के माध्यम से रूढ़ियों से मुक्ति की यह कोशिश एक नई आजादी का स्वप्न बनकर गांव-गांव में पहुंची.
सच पूछिए तो रामदरश जी का पूरा साहित्य ही मानो आम आदमी का महाकाव्य या आम आदमी की महागाथा है. उन्होंने न सिर्फ एक मामूली आदमी को नायक के सिंहासन पर बैठाया, बल्कि उसे गरिमा दी, मान-सम्मान दिया. जनता का दुख-दर्द, जनता की बेचैनी और परेशानियां, जनता की आहत पीड़ा उनकी कविता, कहानी, उपन्यास, निबंध, संस्मरण, यात्रा-वृत्तांत समेत हर विधा में अपनी सूची करुणा के साथ बह रही है. वे सिर्फ कहने के लिए अपनी जनता के लेखक नहीं हैं, बल्कि सही मायनों में अपनी जनता से एकाकार हो चुके हैं. इससे बड़ी किसी लेखक की कोई चरितार्थता हो सकती है क्या?
फिर रामदरश जी एक बड़े परिवार के मुखिया की तरह हमेशा उन सबकी परवाह करते नजर आते हैं, जिनसे वे भावनात्मक रूप से करीब से जुड़े हैं. इधर जब भी उनसे मेरी बात होती है, वे हमेशा मेरी कविताओं की चिंता करते नजर आते हैं. वे बार-बार याद दिलाते हैं कि "मनु जी, आपकी कविताओं में एक अलग रंग है, उनमें कुछ अलग बात है. आपने कविता लिखना क्यों छोड़ दिया?" उनकी बात सुनता हूं तो भीतर उथल-पुथल सी मच जाती है. सच ही बहुत तरह के काम मैंने ओढ़ लिए हैं. इनमें कविता, जो शुरू से ही मेरी सहयात्री, बल्कि मेरी पहचान रही है-वह छूटती सी जा रही है. हालांकि कविताएं लिखना बंद नहीं हुआ, पर वे कुछ पीछे तो जरूर छूट गई हैं.
मेरे बहुत से मित्र और आत्मीय जन हैं, जो मुझसे प्यार करते हैं. पर मेरी सहयात्री सुनीता के अलावा, यह बात कहने वाले केवल रामदरश जी हैं, जो बार-बार इस ओर मेरा ध्यान खींचते हैं. वे आपको प्यार करते हैं तो यह भी जानते हैं कि आपका कौन सा ऐसा पक्ष है, जो सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है, या फिर जिसमें आपने सबसे अधिक सशक्त ढंग से खुद को व्यक्त किया है. वे घर भी आए हैं, बड़े प्यार से सुनीता से भी मिले हैं. घर-परिवार के वरिष्ठ सदस्य की तरह वे घर में सभी की चिंता करते हैं.
रामदरश जी मुझसे कोई छब्बीस बरस बड़े हैं. उनमें और मुझमें एक पीढ़ी का फर्क है. फिर भी वे हमेशा प्यार से, बराबरी से मिलते हैं. कभी उन्होंने मुझे लघुता का अहसास नहीं कराया. वे मेरे गुरु हैं, इसके बावजूद उन्होंने हमेशा बराबरी का सम्मान दिया, प्यार दिया. एक लेखक होने का गौरव दिया. और वे मुझसे कितने बड़े हैं, इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि जब उनका गीत संग्रह 'पथ के गीत', जिसकी भूमिका आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने लिखी है, प्रकाशित हुआ, उस समय मैं कोई दो बरस का था. इसी वर्ष उन्होंने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से एम.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी.
यह सब सोचता हूं तो मन में आता है कि कहां रामदरश जी और कहां मैं! अपनी लघुता के बोझ से दबने सा लगता हूं....पर फिर थोड़े ही समय बाद उनका फोन आता है और वे "मनु जी, कल एक पत्रिका में आपका लेख पढ़ा. बहुत अच्छा लिखा है आपने...!" कहकर बात शुरू करते हैं तो बीच के सारे फासले गायब हो जाते हैं. मानो रामदरश जी ने मुझे भी सहारा देकर अपने पास बैठा लिया हो.

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कई बार मुझे लगता है, मुझमें और रामदरश जी में कई समानताएं हैं, जो हमें एक-दूसरे के इतना निकट ले आईं. रामदरश जी बचपन से ही भावुक हैं और उन्हीं के शब्दों में, कुछ-कुछ घरघुसरे भी. मेरी स्थिति भी इस मामले में उनसे कुछ अलग नहीं है. बचपन से ही मेरा हाल यह है कि किसी करुण प्रसंग को सुनते ही आंखों से टप-टप आंसू टपकने लगते हैं. गला रूंध जाता है.
इसी तरह रामदरश जी की तरह मैं दुनियादारी से दूर ही रहा. और मुंह दिखाई तो कभी सीख ही नहीं सका. कहीं बाहर बहुत आना-जाना भी मुझे पसंद नहीं है. बस, लिखने-पढ़ने में ही सुख मिलता है. लगता है, इससे दुर्लभ चीज कुछ और नहीं है. आदमी दुनिया में बाकी सब पा सकता है, पर यह लिखने-पढ़ने का सुख तो एक मानी में ईश्वरीय ही है. अगर भीतर गहरी अंतःप्रेरणा और चेतना है, तभी आप लिखने-पढ़ने में आकंठ डूबे रह सकते हैं. लेकिन अगर संवेदना ही नहीं है, तो फिर कुछ नहीं है. धरती पर अगर कुछ स्वर्गिक या स्वर्गोपम है, तो मैं कहूंगा कि वह यही है, यही है, यही है!
मेरा और रामदरश जी का परिवेश बेशक एक सा नहीं रहा. वे ग्रामीण अंचल के हैं, मैं शहराती बंदा. किशोरावस्था तक मुझे पता ही नहीं कि गांव क्या चीज है. मैं शायद दसवीं में था, जब मेरा एक सहपाठी मुझे अपना गांव दिखाने ले गया. तब गांव को थोड़ा-बहुत जाना. पर गांव में क्या सुंदर है, तब भी नहीं समझ सका था. गांव को सच में जानने की शुरुआत तब हुई, जब मैंने प्रेमचंद के उपन्यासों को दुबारा-तिबारा पढ़ा. ऐसे ही आजादी के बाद के गांवों को मैंने जाना रामदरश जी के उपन्यासों को पढ़कर. इस रूप में उनका ऋणी हूं कि असली हिंदुस्तान और हिंदुस्तानी संस्कति को मैं उनके उपन्यास पढ़कर ही समझ पाया, जिसके बिना शायद मैं अधूरा ही रहता.
पिछले दिनों रामदरश जी को याद कर रहा था, तो अनायास कविता की कुछ पंक्तियां बनीं, और वे मेरे शब्दों में उतरते चले गए. वे पंक्तियां तो कुछ खास नहीं, पर उनमें रामदरश जी हैं, यही खास है. शायद आप भी उनका आनंद लेना चाहें. तो लीजिए, आप भी उन्हें पढ़ लीजिए. कविता की शुरुआत इन पंक्तियों से होती है-
मेरे अंदर रामदरश जी, मेरे बाहर रामदरश जी,
आगे चलते रामदरश जी, पीछे दिखते रामदरश जी.
सुख में, दुख में, फाकामस्ती में भी हँसते और हँसाते-
अंदर-बाहर, बाहर-अंदर रामदरश जी, रामदरश जी.

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जब से आए रामदरश जी, मन में कितना हुआ उजीता,
कहती बड़की, कहती छुटकी, कहती चुप-चुप यही सुनीता.
खुले द्वार, खुल गईं खिड़कियां, जब से आए रामदरश जी,
टूट गईं सारी हथकड़ियां, जब से आए रामदरश जी.

चह-चह करतीं घर में चिड़ियां, जब से आए रामदरश जी.
बिन दीवाली के फुलझड़ियां, जब से आए रामदरश जी.
एक रोशनी का कतरा था, बढ़ते-बढ़ते वह खूब बढ़ा,
छोटा सा था मेरा आंगन, लेकिन खुद ही हुआ बड़ा.
अब कविता की आखिरी पंक्तियां लिख देता हूं, जिनमें एक विरल सा गुरु-शिष्य संवाद है, जो शायद पाठकों को अच्छा लगे-
शिष्य आपका, पाठक भी हूं, चाहे थोड़ा अटपट सा हूं,
ढाई आखर पढ़े प्यार के, तब से थोड़ा लटपट सा हूं.
थोड़ा झक्की, थोड़ा खब्ती, थोड़ा-थोड़ा प्यारा भी हूं,
इसी प्यार से जीता भी हूं, इसी प्यार से हारा भी हूं.

एक खुशी है मगर, आपने खुले हृदय से अपनाया है,
कुछ गड़बड़ गर लगा, प्यार से उसको भी समझाया है.
यह उदारता, यही बड़प्पन भूल न पाता रामदरश जी,
विह्वल मन ले, इसीलिए चुप सा हो जाता रामदरश जी.

जो कुछ सीखा, जो कुछ पाया, वह कविता में ढाल लिया है,
एक दीप उजली निर्मलता का अंतस में बाल लिया है.
चाहे आंधी आए, मन का दीप नहीं यह बुझ पाएगा,
अंगड़-बंगड़ छूटेगा, पर उजियारा तो रह जाएगा.

अंतर्मन में दीप जला तो कहां अँधेरा रह पाएगा,
यहां उजाला, वहां उजाला, अंदर-बाहर छा जाएगा.
आप साथ हैं तो जैसे यह सारी धरती अपनी है,
इस मन-आंगन में भी कोई गंगा अब तो बहनी है!
पता नहीं कि मैं अपने मन की बात कितनी कह पाया हूं, कितनी नहीं. पर इन पंक्तियों को लिखने के बाद जो सुकून मिला, और मन कुछ हलका सा हो गया, वह अहसास शायद मैं कभी भूल न पाऊंगा.

6.
यहीं प्रसंगवश इस बात की चर्चा की जा सकती है कि रामदरश जी की किताबों के नाम बहुत सुंदर और सुरुचिपूर्ण हैं. लीक से हटकर भी. लेखक रामदरश ऊपर से चाहे जितने सादा लगते हों, पर उनके भीतर कितनी गहरी कलादृष्टि और सौंदर्य चेतना है, इसे उनकी पुस्तकों के नामों से ही जाना जा सकता है. उनके उपन्यासों की बात की जाए तो 'पानी के प्राचीर', 'जल टूटता हुआ' और 'अपने लोग' बहुत खूबसूरत नाम हैं. ऐसे ही उनकी कहानियों के नाम 'बसंत का एक दिन', 'आज का दिन भी' और 'फिर कब आएंगे' मुझे बहुत आकर्षक लगते हैं. और कविता-संकलनों के नामों की तो बात ही क्या की जाए. 'पथ के गीत', 'बैरंग-बेनाम चिट्ठियां', 'पक गई है धूप', 'कंधे पर सूरज', 'दिन एक नदी बन गया', 'जुलूस कहां जा रहा है', 'बारिश में भीगते बच्चे', 'ऐसे में जब कभी', 'आम के पत्ते' ये सभी एक से एक सुंदर और मानीखेज नाम हैं.
ऐसे ही एक लेखक, एक बड़े साहित्यकार के रूप में रामदरश मिश्र का जीवन बहुत सुंदर है. हमारी आदरणीया भाभी सरस्वती जी सही मायने में उनकी सहधर्मिणी हैं. उनके सुख-दुख और संघर्षों की हमसफर भी. पत्नी को जितना मान-सम्मान रामदरश जी ने दिया है, वैसा आदर देने वाले कितने साहित्यकार हमारे समय में हैं? यहां रामदरश जी का कद मुझे बहुत ऊंचा लगता है. हमारे दौर में शायद ही कोई साहित्यकार हो, जिसे उनकी बराबरी पर रखा जा सके.
आज के दौर में भी रामदरश जी का परिवार एक भरा-पूरा सामूहिक परिवार है. उनके बेटे-बेटियां, बहुएं, बच्चे सभी इस घर-परिवार को आनंद से भरते हैं. रामदरश जी ने सिर्फ अच्छा लिखा ही नहीं है, बल्कि एक सुंदर घर भी बनाया है, जिसमें सादगी के साथ-साथ हिंदुस्तानियत की गंध है. और इसीलिए वह घर बार-बार हमें बुलाता है. पुकार-पुकारकर बुलाता है. वहां जाकर हमें एक अलग तरह की शांति और शीतलता मिलती है, इसलिए कि वह सच ही में एक साहित्यकार का घर है.
और इसके साथ ही वे घर में मिलने आने-जाने वालों से, फिर चाहे वे एकदम उदीयमान लेखक ही क्यों न हों, बड़े प्रेम से मिलते हैं और उन पर अपनी विद्वत्ता और बड़प्पन का कोई बोझ नहीं डालते. इसके बजाय जो भी मिला, उससे सुख-दुख का हाल वे लेते हैं, दुख में सीझते, सुख में खुश होते हैं, और हर किसी को आगे बढ़ने और अच्छा लिखने के लिए प्रोत्साहित करते हैं.
इसके साथ-साथ उनकी कलम भी निरंतर चलती रहती है. जो भी मन में आया, वह रामदरश जी पूरे मन से लिखते हैं. कुछ और नहीं तो डायरी लेखन और संस्मरण, ये दो आत्मीयता भरा विधाएं तो हैं ही, जिनमें उनका मन आजकल बहुत बहता है. चाहे थोड़ा लिखें या अधिक, पर कुछ न कुछ लिखना रामदरश जी को प्रिय है. डायरी लेखन और संस्मरण अपेक्षाकृत खुली विधाएं हैं, जिन्हें साधने में विशेष प्रयत्न नहीं करना पड़ता. इसलिए इन दो विधाओं में वे निरंतर ही कुछ न कुछ लिखते हैं.
इसी सिलसिले में रामदरश जी की एक गजल याद आती है. इस गजल में रामदरश जी ने बड़ी खूबसूरती से अपने मन की कुछ बातें कही हैं. बहुतों को इस बात पर हैरानी होती है कि भला इस वय में भी रामदरश जी निरंतर कैसे लिख पाते हैं. इसका उत्तर भी उन्होंने इस गजल में गूँथ दिया है. असल में, मन में कुछ कहने के लिए हो, तो फिर राह भी निकल ही आती है. पर मन में संवेदना ही न हो, दूसरों के सुख-दुख के साथ कोई भावनात्मक लगाव न हो, तो आप न लिखने के कारण पर बहसें भले ही करते रहें, पर जब लिखने की बारी आती है, तो आईना आपको बता देता है कि आप कहां खड़े हैं. खुद रामदरश जी की यह गजल भी ऐसे लोगों को आईना दिखाने का काम करती है-
चाहता हूं कुछ लिखूं, पर कुछ निकलता ही नहीं है,
दोस्त, भीतर आपके कोई विकलता ही नहीं है!
तब लिखेंगे आप जब भीतर कहीं जीवन बजेगा,
दूसरों के सुख-दुखों से आपका होना सजेगा.
टूट जाते एक साबुत रोशनी की खोज में जो,
जानते हैं जिंदगी केवल सफलता ही नहीं है!....
बगैर कठोर शब्दों का इस्तेमाल किए, इतनी सीधी और खरी बात कैसे कही जा सकती है, यह हमें रामदरश मिश्र से सीखना चाहिए.

7.
रामदरश मिश्र मेरे गुरु हैं. उन्होंने कभी पढ़ाया नहीं, पर मेरे वे ऐसे गुरु हैं, जिन्होंने मेरे अंतःकरण को प्रकाशित किया है, और मैं अपने समूचे व्यक्तित्व पर उनकी अनुराग भरी छाया महसूस करता हूं.
आज इस अवस्था में भी, वे गुरु की तरह मेरे पथ को प्रकाशित करते, और जहां कहीं झाड़-झंखाड़ है, वहां भी रास्ता बनाते नजर आते हैं. कभी-कभी मैं सोचता हूं, अगर संयोगवश दिल्ली आते ही रामदरश जी के बड़प्पन की स्नेह छाया को मैंने करीब से महसूस न किया होता, और उनके इतने निकट न आया होता, तो यकीनन मैं ऐसा न होता, जैसा आज हूं. मुझे बनाने में जिन्होंने अपना बहुत कुछ खर्च किया, उनमें रामदरश जी भी हैं. अपने स्नेह से मांज-मांजकर उन्होंने मुझे उजला किया है. तब शायद इतना न समझ सका होऊं, पर आज मैं अच्छी तरह जानता हूं कि उनके निकट आने पर मेरी फालतू अहम् की बहुत सारी केंचुलें छूटती गई हैं, और मैंने महसूस किया है, कि भीतर-बाहर से सरल होने का सुख क्या होता. इसके आगे दुनिया के सारे सुख और बड़ी से बड़ी सफलताएं भी पोच हैं.
इस समय जब रामदरश जी अपनी उम्र के आखिरी चरण में हैं, और अब भी अपनी धुन में जी रहे हैं, लिख और पढ़ रहे हैं, मैं कई बार उन्हें टटोलने की कोशिश करता हूं. उन्हें बहुत देर से वे चीजें मिलीं, जो बहुतों को शुरू-शुरू में और अनायास ही मिल गई थीं, तो क्या उन्हें साहित्य जगत से इस बात की शिकायत है?
पर मेरे लिए यह एक सुखद आश्चर्य की बात है कि रामदरश जी इस सबसे बहुत ऊपर उठ चुके हैं. हां, जो उनके निकट हैं, उनमें कोई कितना ही मामूली आदमी क्यों न हो, उसके प्रति एक भावनात्मक लगाव उन्हें हर वक्त तरंगित करता है. इस मैत्री और अपनत्व के सुख को वे अंदर तक महसूस करते हैं. और यहां तक कि अपने निकटस्थ मित्रों और आत्मीय जनों के लिए वे कृतज्ञता से भरे हुए जान पड़ते हैं. उनकी एक प्रगीतात्मक कविता उनकी इस भावस्थिति को बड़ी सुंदरता से अभिव्यक्त करती है. जरा आप भी पढ़ें इस कविता की ये पंक्तियां-
आभारी हूं बहुत दोस्तो, मुझे तुम्हारा प्यार मिला,
सुख में, दुख में, हार-जीत में एक नहीं सौ बार मिला!

इतना लंबा सफर रहा, थे मोड़ भयानक राहों में,
ठोकर लगी, लड़खड़ाया, फिर गिरा तुम्हारी बांहों में,
तुम थे तो मेरे पाँवों को छिन-छिनकर आधार मिला!

आया नहीं फरिश्ता कोई, मुझको कभी दुआ देने,
मैंने भी कब चाहा, दूँ इनको अपनी नौका खेने,
बहे हवा-से तुम, साँसों को सुंदर बंदनवार मिला!

हर पल लगता रहा कि तुम हो पास कहीं दाएं-बाएं,
तुम हो साथ सदा तो आवारा सुख-दुख आए-जाए,
मृत्यु-गंध से भरे समय में जीवन का स्वीकार मिला!
ये ऐसी पंक्तियां हैं, जिनमें हृदय की संवेदना छल-छल कर रही है. इसलिए इन्हें पढ़ते हुए कभी आंखें भीगती हैं तो कभी अनायास अपने समय के इस बड़े कवि के लिए आदर से भरकर, दोनों हाथ जुड़ जाते हैं, और मैं थोड़ी देर के लिए एकदम चुप और निःशब्द खड़ा रह जाता हूं....

8.
हम सबके अपने और ऐसे प्यारे रामदरश जी ने निश्चय ही दिल्ली में एक लंबा और समृद्ध जीवन जिया है और गांव के आदमी के ठाट और स्वाभिमान के साथ दिल्ली को जिया है. लिहाजा उनके पास अनुभवों की कोई कमी नहीं है. इस पकी हुई उम्र में भी, वे जिस विधा को हाथ लगाते हैं, उसमें कुछ न कुछ नयापन ले आते हैं.
कोई भी बड़ी और समर्थ प्रतिभा अपने स्पर्श से चीजों को नया कर देती है. रामदरश जी के बारे में भी यह काफी हद तक सही है. वे जीवन के कवि-कथाकार हैं, इसलिए चुके नहीं हैं. चुकते तो वे फैशनपरस्त कलावादी हैं, जो कुछ आगे जाते ही दिशाभ्रम के शिकार हो जाते हैं. इस लिहाज से बड़ी ही गहरी संवेदना से थरथराती रामदरश जी की एक कविता अकसर मुझे याद आती है, 'छोड़ जाऊंगा'. इसे पढ़ें तो पता चलता है कि रामदरश जी जीवन की इस अवस्था में करीब-करीब जीवन-मुक्ति की सी अवस्था में पहुंच गए हैं. इसीलिए भीतर की सारी उथल-पुथल से मुक्ति पाकर, अब वे बड़ी निस्पृहता के साथ कह सकते हैं कि जब वे जाएंगे तो कुछ कविता, कुछ कहानियां, कुछ विचार छोड़ जाएंगे, जिनमें कुछ प्यार के फूल होंगे और कुछ हम सबके दर्द की कथाएं भी. उनके जीवन का सबसे बड़ा खजाना भी यही है-
तुम नम्र होकर इनके पास जाओगे
इनसे बोलोगे, बतियाओगे
तो तुम्हें लगेगा, ये सब तुम्हारे ही हैं
तुम्हीं में धीरे-धीरे उतर रहे हैं
और तुम्हारे अनजाने ही तुम्हें
भीतर से भर रहे हैं.
मेरा क्या….
भर्त्सना हो या जय-जयकार,
कोई मुझ तक नहीं पहुंचेगी...
हालांकि जो सहृदय पाठक केवल शब्दों को ही कविता नहीं मानते, बल्कि शब्द और शब्द तथा पंक्ति और पंक्ति के बीच के खाली स्थान को भी पढ़ना जानते हैं, उनके लिए यह बात अबूझ न होगी कि रामदरश जी की इस निस्पृहता के भीतर बहुत गहरी रागात्मकता की एक नदी बह रही है. वे कितना भी चाहें, उससे मुक्त हो ही नहीं सकते.
रामदरश जी ने पूरी शिद्दत से इस दुनिया को चाहा है, जी भरकर प्यार किया है, और शायद सपने में भी इससे परे जाने की बात नहीं सोच सकते. वे तो इस दुनिया के हैं, इसकी धूल. मिट्टी, खेत, नदी, रेत और कछारों से जुड़े हैं, इसलिए हमेशा-हमेशा इस दुनिया में ही रहेंगे. जिस कवि-कथाकार ने अपने अस्तित्व का कण-कण, रेशा-रेशा इस दुनिया को दे दिया हो, वह भला शतायु होने के दुर्लभ सुख-आनंद के पलों में अपनों से दूर जा भी कहां सकता है? तो रामदरश जी हमेशा से इस दुनिया के थे और इस दुनिया के ही रहेंगे. यही उनकी कविता और सर्जना की चरम सार्थकता भी होगी.
हां, हम सब भी, जो रामदरश जी को इस कदर सक्रिय और कर्मलीन रहते हुए, धीर-गंभीर पदों से शतायु होने के करीब, बहुत करीब जाते देख रहे हैं, कम सौभाग्यशाली नहीं हैं. यह हमारे लिए गौरव ही है कि हमने अपने समय के एक बड़े कवि-कथाकार को धीरे-धीरे कमल की तरह खिलते-खुलते और चतुर्दिक अपनी गंध बिखराते देखा है. और मैं तो अपने आप को इसलिए भी बहुत सौभाग्यशाली मानता हूं कि मैंने उन्हें बहुत निकट से देखा है, उनसे खुलकर बातें की हैं. उनसे बहुत कुछ सीखा और पाया भी है. एक बड़े कद के संवेदनापूरित गुरु की तरह वे मेरे भीतर भी हैं, बाहर भी. यह सुख क्या मैं कभी शब्दों में बांध सकूँगा?
ईश्वर ने चाहा तो रामदरश जी इसी तरह बरसोंबरस तक हमारे बीच रहेंगे, और हम सबके प्रेरणा संबल बने रहेंगे. फिलहाल तो आप और हम यही कामना कर सकते हैं कि वे स्वस्थ रहें, सक्रिय रहें, और जो कुछ भीतर उमड़े, उसे निरंतर लिखते रहें. उनकी सक्रियता से लगता है, हिंदी साहित्य में विद्वेष और नफरत की आंधियों के बीच प्रेम और अपनत्व की धारा एकदम सूख नहीं गई है.
***
संपर्कः प्रकाश मनु, 545 सेक्टर-29, फरीदाबाद (हरियाणा), पिन-121008, मो. 9810602327, ईमेल- prakashmanu333@gmail.com

 

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