'कवि का कर्तव्य है, उस वाणी को आकर्षित करना जो कि वायुमंडल में अनसुने रूप में विद्यमान है; ऐसे स्वप्न में विश्वास जगाना जो कि अभी अपूर्ण है.' कवि और कविता को लेकर इससे श्रेष्ठ बातें कही जा सकती हैं क्या? 20 मार्च, 1924 को गुरुदेव रबींद्रनाथ टैगोर ने जब यह बात कही थी, वह विश्व साहित्यजगत में स्थापित हो चुके थे. साल 1913 में उन्हें गीतांजली के लिए नोबेल पुरस्कार मिल चुका था.
बहुमुखी प्रतिभा के धनी रबींद्रनाथ ठाकुर, जो गुरुदेव रबींद्रनाथ टैगोर के नाम से भी चर्चित रहे का जन्म 7 मई, 1861 को कलकत्ता के एक बेहद रईस परिवार में हुआ था. उनके पिता देबेन्द्रनाथ ठाकुर ब्रह्म समाज के संस्थापकों में से एक थे. रबींद्रनाथ ठाकुर ने अपनी पहली कविता आठ साल की उम्र में लिखी थी. इतना ही नहीं जब वह केवल सोलह साल के थे, तब सन् 1877 में उनकी प्रथम लघुकथा प्रकाशित हुई थी. टैगोर एक महान कवि, उपन्यासकार, कहानीकार, राष्ट्रवादी, दार्शनिक व शिक्षाविद होने के साथ-साथ एक उत्कृष्ट संगीतकार और पेंटर भी थे. उन्होंने करीब 2,230 गीतों की रचना की. उनके 'रबींद्र संगीत' को बांग्ला संस्कृति के अभिन्न अंग के रूप में प्रतिष्ठा मिली है.
उनकी जीवन दृष्टि अद्भुत थी. 26 मई, 1921 को स्टाकहोम में दिए एक व्याख्यान में टैगोर ने कहा था, ‘मैं यह मानता हूं कि हम आज जो कष्ट उठा रहे हैं, वह विस्मृति, एकांतता के संकट के कारण है, क्योंकि हम मानवता का स्वागत करने के अवसर से तथा विश्व के साथ ऐसी सर्वोत्तम वस्तु को बांटने से चूक गए हैं जो हमारे पास उपलब्ध है, भारत की आत्मा ने सदैव एकात्मता के आदर्श का उद्घोष किया है, एकात्मता का यह आदर्श किसी भी वस्तु को, किसी भी जाति को अथवा किसी भी संस्कृति को अस्वीकार नहीं करता.’
टैगोर ने अपने इन्हीं विचारों को अपनी कविताओं में समग्रता में पिरोया. वह दुनिया भर में बतौर कवि बेहद प्रतिष्ठित रहे, पर एक सवाल वह अकसर उठाते थे, 'मेरी कविताओं को इतनी अधिक स्वीकृति और सम्मान मिलने की क्या वजह हो सकती है?' इसका जवाब उनके पाठक ही दे देते हैं. धरती को इतने प्राण-पण से प्यार करनेवाला कोई दूसरा कवि शायद कभी नहीं हुआ. रबींद्रनाथ की गिनती संसार के श्रेष्ठतम गीति-कवियों में होती है. संवेदनाओं की सचाई और भाव-चित्रों की सजीवता उनके पदों के संगीत से मिलकर एक ऐसे काव्य की सृष्टि करती है कि शब्दों के भूल जाने पर भी पद-संगीत पाठक के मन को विभोर किए रहता है.
आज रबींद्रनाथ टैगोर की जयंती पर 'साहित्य आजतक' के पाठकों के लिए उनकी पांच श्रेष्ठ कविताएं
1.
हो चित्त जहाँ भय-शून्य, माथ हो उन्नत
हो चित्त जहाँ भय-शून्य, माथ हो उन्नत
हो ज्ञान जहाँ पर मुक्त, खुला यह जग हो
घर की दीवारें बने न कोई कारा
हो जहाँ सत्य ही स्रोत सभी शब्दों का
हो लगन ठीक से ही सब कुछ करने की
हों नहीं रूढ़ियाँ रचती कोई मरुथल
पाये न सूखने इस विवेक की धारा
हो सदा विचारों, कर्मों की गति फलती
बातें हों सारी सोची और विचारी
हे पिता मुक्त वह स्वर्ग रचाओ हममें
बस उसी स्वर्ग में जागे देश हमारा ।
2.
धीरे चलो, धीरे बंधु
धीरे चलो, धीरे बंधु,लिए चलो धीरे ।
मंदिर में, अपने विजन में ।
पास में प्रकाश नहीं, पथ मुझको ज्ञात नहीं ।
छाई है कालिमा घनेरी ।।
चरणों की उठती ध्वनि आती बस तेरी
रात है अँधेरी ।।
हवा सौंप जाती है वसनों की वह सुगंधि,
तेरी, बस तेरी ।।
उसी ओर आऊँ मैं, तनिक से इशारे पर,
करूँ नहीं देरी !!
3.
सोने के पिंजरे में नहीं रहे दिन
सोने के पिंजरे में नहीं रहे दिन ।
रंग-रंग के मेरे वे दिन ।।
सह न सके हँसी-रुदन ना कोई बँधन ।
थी मुझको आशा- सीखेंगे वो प्राणों की भाषा ।।
उड़ वे तो गए कहीं नहीं सकल कथा ।
कितने ही रंगों के मेरे वे दिन ।।
देखूँ ये सपना टूटा जो पिंजरा वे उसको घेर ।
घूम रहे हैं लो चारों ओर ।
रंग भरे मेरे वे दिन ।
इतनी जो वेदना हुई क्या वृथा !
क्या हैं वे सब छाया-पाखि !
कुछ भी ना हुआ वहाँ क्या नभ के पार,
कुछ भी वहन !!
4.
यह कौन विरहणी आती
यह कौन विरहणी आती !
केशों को कुछ छितराती ।
वह म्लान नयन दर्शाती ।।
लो आती वह निशि-भोर ।
देती है मुझे झिंझोर ।।
वह चौंका मुझको जाती ।
प्रातः सपनों में आती।
वह मदिर मधुर शयनों में,
कैसी मिठास भर जाती ।।
वह यहाँ कुसुम-कानन में,
है सौंप वासना जाती ।।
5.
चीन्हूँ मैं चीन्हूँ तुम्हें ओ, विदेशिनी !
चीन्हूँ मैं चीन्हूँ तुम्हें ओ, विदेशिनी !
ओ, निवासिनी सिंधु पार की-
देखा है मैंने तुम्हें देखा, शरत प्रात में, माधवी रात में,
खींची है हृदय में मैंने रेखा, विदेशिनी !!
सुने हैं, सुने हैं तेरे गान, नभ से लगाए हुए कान,
सौंपे हैं तुम्हें ये प्राण, विदेशिनी !!
घूमा भुवन भर, आया नए देश,
मिला तेरे द्वार का सहारा विदेशिनी !!
अतिथि हूँ अतिथि, मैं तुम्हारा विदेशिनी !!
- कविता कोश से साभार, चर्चित कवि प्रयाग शुक्ल ने इन कविताओं को बाँग्ला से हिंदी में रूपांतरित किया है.