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'मां ममता का मानसरोवर, घर की कुंडी जैसी मां'

'मां' ही तो है जिससे दुनिया का हर रिश्ता बनता है. इनके प्यार के बिना सब अधुरा है. कई कवियों ने 'मां' को शब्दों में पिरोकर कविता की मालाएं बनाईं हैं, उन्हीं में से पेश हैं ये दो कविताएं...

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'मां'
'मां'

'मां' अपनी ममता लुटाकर हमें प्रेम और स्नेह का एहसास कराती है. ऐसा माना जाता है कि ममता के निश्छल सागर में गोते लगाकर दुनिया की हर परेशानी और दुख से छुटकारा पाया जा सकता है. जगदीश व्योम और निदा फाजली की इन कविताओं में 'मां' के हर रूप को समेटने की कोशिश की गई है. लेकिन आखिर में कवि भी नारी के इस भाव की तुलना करने में अधूरा महसूस कर रहे हैं...


1. मां: जगदीश व्योम

मां कबीर की साखी जैसी,
तुलसी की चौपाई-सी,
मां मीरा की पदावली-सी,
मां है ललित रुबाई-सी.

मां वेदों की मूल चेतना,
मां गीता की वाणी-सी,
मां त्रिपिटिक के सिद्ध सुक्त-सी,
लोकोक्तर कल्याणी-सी.

मां द्वारे की तुलसी जैसी,
मां बरगद की छाया-सी,
मां कविता की सहज वेदना,
महाकाव्य की काया-सी.

मां अषाढ़ की पहली वर्षा,
सावन की पुरवाई-सी,
मां बसन्त की सुरभि सरीखी,
बगिया की अमराई-सी.

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मां यमुना की स्याम लहर-सी,
रेवा की गहराई-सी,
मां गंगा की निर्मल धारा,
गोमुख की ऊंचाई-सी.

मां ममता का मानसरोवर,
हिमगिरि-सा विश्वास है,
मां श्रृद्धा की आदि शक्ति-सी,
कावा है कैलाश है.

मां धरती की हरी दूब-सी,
मां केशर की क्यारी है,
पूरी सृष्टि निछावर जिस पर,
मां की छवि ही न्यारी है.

मां धरती के धैर्य सरीखी,
मां ममता की खान है,
मां की उपमा केवल है,
मां सचमुच भगवान है.

2. बेसन की सोंधी रोटी पर: निदा फाजली

बेसन की सोंधी रोटी पर,
खट्टी चटनी जैसी मां.

याद आती है चौका-बासन,
चिमटा फुकनी जैसी मां.

बांस की खुर्री खाट के ऊपर,
हर आहट पर कान धरे.

आधी सोई आधी जागी,
थकी दोपहरी जैसी मां.

चिड़ियों के चहकार में गूंजे,
राधा-मोहन अली-अली.

मुर्गे की आवाज से खुलती,
घर की कुंडी जैसी मां.

बिवी, बेटी, बहन, पड़ोसन,
थोड़ी थोड़ी सी सब में.

दिन भर इक रस्सी के ऊपर,
चलती नटनी जैसी मां.

बांट के अपना चेहरा, माथा,
आंखें जाने कहां गई.

फटे पुराने इक अलबम में,
चंचल लड़की जैसी मां.

 

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