मदन कश्यप जितने प्रेम के कवि हैं, उतने ही प्रकृति, जीवन राग व संघर्ष के कवि भी. समाज व परिवार, संवेदना व करुणा उनमें भरपूर है. अपने 'लेकिन उदास है पृथ्वी', 'नीम रोशनी में', 'कुरूज', 'दूर तक चुप्पी' और 'अपना ही देश' नामक काव्य संकलनों से खासी लोकप्रियता हासिल करने वाले मदन कश्यप का नया काव्य-संकलन सेतु प्रकाशन से 'पनसोखा है इंद्रधनुष' नाम से छपकर आया है.
साहित्य आजतक पर पढ़िए 'पनसोखा है इंद्रधनुष' से स्वयं मदन कश्यप द्वारा चुनी गईं उनकी पांच उम्दा कविताएं- बेरोज़गार पिता की बेटी, तब भी प्यार किया, साठ का होना, फिर लोकतन्त्र और भूख का कोरस
1.
बेरोज़गार पिता की बेटी
उसकी आँखों में हमेशा एक उजाड़ होती है
जेठ की गर्मी में झुलसी हुई झाड़ियाँ और खरपतवारों वाली
तपती भूमि जैसी व्याकुल निर्जनता
बाल रूखे-रूखे होते हैं और चेहरे पर झाँइयों की उदासी
वह न जोर से बोलती है
न दूर तक देखती है
पुराना स्कूल ड्रेस मटमैला हो चुका है
जिसे वह शिक्षकों और सहपाठियों की ही नहीं
अपनी नज़रों से भी बचाती रहती है
थैला अपनी चमक और रंग खो चुका है
उसमें जगह-जगह टाँके लग चुके होते हैं
जूतों की बस पाँव में टिके भर होने की हैसियत बची होती है
वह सबके बीच चलती है
सबसे छिपती हुई
उसे दौड़ना और गिरना मना है
ऐसा हुआ तो अनर्थ हो जा सकता है
फट जा सकता है स्कर्ट
टूट जा सकता है थैले का फीता
या जूते का तल्ला
सबसे अलग जाकर खोलती है पुराना टिफिन बॉक्स
कभी-कभी तो ज़रूरी एकान्त के अभाव में अनखुला ही रह जाता है
वह भूख से कहीं ज़्यादा लोगों की नज़रों से डरती है
समय पर फीस नहीं जमा करने के लिए
अक्सर सुनती है झिड़कियाँ
कभी-कभी आ जाती है नाम कटने की भी नौबत
तब समझदार माता-पिता कुछ करते हैं
और उसे झाड़ू-पोंछा के काम में लग जाने से बचा लेते हैं
वह कभी-कभी बगल में बैठी किसी बच्ची से पानी माँगती है
पानी उसके पास होता है तब भी
कातरता उसके चेहरे पर इस तरह छलक रही होती है
कि अक्सर छुपाने के चक्कर में
वह खुद उसमें छुप जाती है
बेरोज़गार पिता की बेटी के जीवन में सबकुछ तदर्थ है
कल का कुछ भी पता नहीं
वर्तमान ही इतना त्रासद है कि भविष्य की ओर क्या देखे
फिर भी कभी-कभी वह सोचती है
कि शायद उसके पिता को मिल जाए कोई काम
और उसके घर में भी आ जाएँ कुछ पैसे
बरसात नहीं तो छींटे ही सही
ऐसा कुछ सोच कर कभी-कभी खुश हो लेती है
बेरोज़गार पिता की बेटी!
-2015
2.
तब भी प्यार किया
मेरे बालों में रूसियाँ थीं
तब भी उसने मुझे प्यार किया
मेरी काँखों से आ रही थी पसीने की बू
तब भी उसने मुझे प्यार किया
मेरी साँसों में थी बस जीवन-गन्ध
तब भी उसने मुझे प्यार किया
मेरे साधारण कपड़े
किसी साधारण डिटर्जेंट से धुले थे
जूतों पर फैली थी सड़क की धूल
मैं पैदल चलकर गया था उसके पास
और उसने मुझे प्यार किया
नज़र के चश्मे का मेरा सस्ता फ्रेम
बेहद पुराना हो गया था
कन्धे पर लटका झोला बदरंग हो गया था
मेरी ज़ेब में था सबसे सस्ता मोबाइल
फिर भी उसने मुझे प्यार किया
एक बाज़ार से गुज़रे
जिसने हमें अपनी दमक में
शामिल करने से इन्कार कर दिया
एक खूबसूरत पार्क में गये
जहाँ मेरे कपड़े और मैले दिखने लगे
हमारे पास खाने का चमकदार पैकेट नहीं था
हमने वहाँ सार्वजनिक नल से पानी पिया
और प्यार किया!
-2017
3.
साठ का होना
तीस साल अपने को सँभालने में
और तीस साल दायित्वों को टालने में कटे
इस तरह साठ का हुआ मैं
आदमी के अलावा शायद ही कोई जिनावर इतना जीता होगा
कद्दावर हाथी भी इतनी उम्र तक नहीं जी पाते
कुत्ते तो बमुश्किल दस-बारह साल जीते होंगे
बैल और घोड़े भी बहुत अधिक नहीं जीते
उन्हें तो काम करते ही देखा है
हल खींचते-खींचते जल्दी ही बूढ़े हो जाते हैं बैल
और असवार के लगाम खींचने पर
दो टाँगों पर खड़े हो जाने वाले गठीले घोड़े
कुछ ही दिनों में खरगीदड़ होकर
ताँगों में जुते दिखते हैं
मनुष्यों के दरवाज़ों पर बहुत नहीं दिखते बूढ़े बैल
जो हल में नहीं जुत सकते
और ऐसे घोड़े तो और भी नहीं
जो ताँगा नहीं खींच सकते
मैंने बैलों और घोड़ों को मरते हुए बहुत कम देखा है
कहाँ चले जाते हैं बैल और घोड़े
जो आदमी का भार उठाने के काबिल नहीं रह जाते
कहाँ चली जाती हैं गायें
जो दूध देना बन्द कर देती हैं
हम उन जानवरों के बारे में काफी कम जानते हैं
जिनसे आदमी के स्वार्थ की पूर्ति नहीं होती
लेकिन उनके बारे में भी कितना कम जानते हैं
जिन्हें जोतते दुहते और दुलराते हैं
आदमी ज़्यादा से ज़्यादा इसलिए जी पाता है
क्योंकि बाकी जानवर कम से कम जीते हैं
और जो कोई लम्बा जीवन जी लेता है
उसे कछुआ होना होता है
कछुआ बनकर ही तो जिया
सिमटा रहा कल्पनाओं और विभ्रमों की खोल में
बेहतर दुनिया के लिए रचने और लड़ने के नाम पर
बदतर दुनिया को टुकुर-टुकुर देखता रहा चुपचाप
तभी तो साठपूर्ति के दिन याद आये मुक्तिबोध
जो साठ तक नहीं जी सके थे
पर सवाल पूछ दिया था :
‘अब तक क्या किया जीवन क्या जिया...’
खुद को बचाने के लिए
देखता रहा चुपचाप देश को मरते हुए
और खुद को भी कहाँ बचा पाया!
-29 मई, 2014
4.
फिर लोकतन्त्र
बिकता सबकुछ है
बस खरीदने का सलीका आना चाहिए
इसी उद्दण्ड विश्वास के साथ
लोकतन्त्र लोकतन्त्र चिल्लाता है अभद्र सौदागर
सबसे पहले और सस्ते
जनता बिकेगी
और जो न बिकी तो चुने हुए बेशर्म प्रतिनिधि बिकेंगे
यदि वे भी नहीं बिके तो नेता सहित पूरी पार्टी बिक जाएगी
सौदा किसी भी स्तर पर हो सकता है
नैतिकता का क्या
उसे तो पहले ही
तड़ीपार किया जा चुका है
फिर भी ज़रूरत पड़ी तो थोड़ा वह भी खरीद लाएँगे बाज़ार से
और शर्मीली ईमानदारी
यह जितनी महँगी है
उतनी ही सस्ती
पाँच साल में तीन सौ प्रतिशत बाप की ईमानदारी बढ़ गयी
बेटे की तो पूछो ही मत
सबसे सस्ता बिकता है धर्म
लेकिन उससे मिलती है इतनी प्रचुर राशि
कि कुछ भी खरीदा जा सकता है
यानी लोकतन्त्र भी।
-2018
5.
भूख का कोरस
जानवर होता
तो भूख को महसूस करते ही निकल पड़ता
पेट भरने की जुगत में
और किसी एक पल पहुँच जाता वहाँ
प्रकृति ने जहाँ रख छोड़ा होता मेरे लिए खाना
लेकिन आदमी हूँ भूखा
और पता नहीं कहाँ है मेरे हिस्से का खाना
आदमी हूँ बीमार
कहाँ है मेरे हिस्से की सेहत
आदमी हूँ लाचार
कहाँ है मेरे हिस्से का जीवन
कुछ भी तो तय नहीं है
बिना किसी नियम के चल रहा है जीवन का युद्ध
चालाकी करूँ
तो दूसरों के हिस्से का खाना भी खा सकता हूँ
पर बिना होशियारी के तो
अपना खाना पाना और बचाना भी सम्भव नहीं
पेट भरने के संघर्ष से जो शुरू हुई थी सभ्यता की यात्रा
कुछ लोगों के लिए वह बदल चुकी है घर भरने की क्रूर हवस में
बढ़ रहा है बदहजमी की दवाओं का बाज़ार
और वंचितों की थालियों में कम होती जा रही हैं रोटियाँ
ऐसे में कहाँ जाए भूखा ‘रामदास’
जो माँगना नहीं जानता और हार चुका है जीवन के सारे दाँव
ठण्डे और कठोर दरवाज़ों वाले बर्बर इमारतों के इस शहर में
भूख बढ़ती जा रही है सैलाब की तरह
और उसमें डूबते चले जा रहे हैं
भोजन पाने के लिए ज्ञात-अज्ञात रास्ते!
-2015
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पुस्तकः पनसोखा है इंद्रधनुष
लेखकः मदन कश्यप
विधाः कविता
प्रकाशकः सेतु प्रकाशन
मूल्यः रुपए 105/ पेपर बैक, रुपए 205 हार्ड बाउंड
पृष्ठ संख्याः 108