हिंदी के सुपरिचित गीतकार, आलोचक एवं भाषाकर्मी ओम निश्चल एक संवेदनशील कवि हैं. उनकी कविताओं में प्रकृति और संबंध लहलहाते हैं. उनका मूल नाम ओम कुमार मिश्र है, पर साहित्य और शब्द जगत में उनकी ख्याति डॉ ओम निश्चल के नाम से ही है. उन्होंने अपने काव्यसंग्रह 'शब्द सक्रिय हैं' और 'शब्दों से गपशप', 'भाषा में बह आई फूलमालाएँ: युवा कविता के कुछ रूपाकार' सहित 'साठोत्तरी हिंदी कविता में विचारतत्व', 'कविता का स्थापत्य', 'कविता की अष्टाध्यायी' नामक आलोचनात्मक पुस्तकों से खासी पहचान अर्जित की है.
आलोचना के लिए उप्र हिंदी संस्थान द्वारा आचार्य रामचंद शुक्ल आलोचना पुरस्कार से सम्मानित डॉ ओम निश्चल की यह सबसे नई कविताः
कविता
धरती के होठ जल रहे
मानसून जल्दी आना !
धरती के होठ जल रहे
मानसून जल्दी आना !
सूख रहा मन का आषाढ़ दिनो दिन
बिगड़ रहे घर के हालात दिनो दिन
पानी बिन सूख रही घर की तुलसी
झुलस रहे पुरइन के पात दिनो दिन
हिमनद देखो पिघल रहे
मानसून जल्दी आना !
पानी - बिन अमराई भी लगती प्यासी है
आमों में भी मिठास बिल्कुल ही आधी है
पड़ा नहीं अँगनाई में.... पहला दौंगरा
कोयल की कूकों में इन दिनों उदासी है
सावन के स्वप्न जल रहे
मानसून जल्दी आना !
आंधी है, अंधड़ है, हवा है, बवंडर है
आग के बगूले हैं, हर तरफ प्रभंजन है
मीलों तक हरियाली है जैसे लापता
सूखे सब कुएँ-ताल, हृदय-छंद उन्मन है
झीलों के तल उबल रहे
मानसून जल्दी आना !
इन्हीं दिनों में पहले मोर बहुत आते थे
बारिश की बूँदों में हुलस-हुलस जाते थे
मानसून के पहले अगवानी के बादल
धरती का आँचल भी भिगो-भिगो जाते थे
निंबिया की डार कह रही
मानसून जल्दी आना !
-डॉ. ओम निश्चल
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