पच्चीस साल की पुनीता के मायके और ससुराल में महिलाएं पहले भी घर की चारदीवारी से बाहर निकलती थीं, लेकिन उनका सफर सिर्फ घर से खेत और खेत से घर तक ही सीमित था. पांच साल पहले शादी के बाद जब पुनीता ने अपना ब्यूटी पार्लर खोलने की बात कही तो घरवालों को जैसे झटका लगा.
पुनीता की सास 68 वर्षीया कमला देवी भडक़ उठीं, ''घर की बहू काम करेगी. गांव में क्या इज्जत रह जाएगी.'' लेकिन इस बीच दुनिया काफी बदल चुकी है. अब जब पुनीता का पार्लर चल निकला है और हर महीने वह तकरीबन 10,000 रु. तक की कमाई कर लेती है तो कमला देवी मुस्कुराकर कहती हैं, ''मुझे बहू पर गर्व है. हर लड़की को काम करना चाहिए.''
वे मुस्कुराकर अपनी भौंहें दिखाती हैं, जिन्हें लाख मना करने के बावजूद हठ में आकर पुनीता ने थ्रेडिंग से संवार दिया है. कमला देवी को इज्जत का डर इसलिए भी ज्यादा सताता था कि सोनीपत जिला मुख्यालय से तकरीबन 40 किलोमीटर दूर जिस गांव मलिकपुर में वे रहती हैं, वहां खाप पंचायत का काफी दबदबा है. खापों के स्त्री विरोधी फरमानों से कोई अनजान नहीं, लेकिन उनके खौफ से बेपरवाह अब इस गांव की लड़कियां और औरतें अपनी भौंहों, बालों और चेहरे को संवार रही हैं.
मलिकपुर की तरह पूर्वी उत्तर प्रदेश के जिला आजमगढ़ से 30 किमी दूर एक गांव कांखबार में तो दस साल पहले किसी ने ब्यूटी पार्लर का नाम तक नहीं सुना था, जब 35 वर्षीया सुषमा सोनी ने पार्लर खोलने की सोची. गांव की औरतें बड़ी हसरत और अचरज से साड़ी का कोर मुंह में दबाए धागे से खींच-खींचकर भौंहों को सुंदर आकार देती सुषमा को देखतीं. एक सफेद रंग की क्रीम से, जिसे सुषमा फेस पैक कहती थीं, चेहरा चमकने लगता था. गांव में तब टीवी भी नहीं आया था. ये सब किसी दूसरे ग्रह की बातें लगती थीं. लेकिन आज चाहे खेतों में काम करने वाली औरत हो, सिर पर बोझ ढोने वाली मजदूर या इंटर कॉलेज में पढ़ रही युवा लड़की, सब सुषमा के ब्यूटी पार्लर में आती हैं.
वे कहती हैं, ''हर कोई खूबसूरत दिखना चाहता है. गांव की औरतें भी एडवांस हो गई हैं.'' पार्लर के साथ सुषमा सिलाई-कढ़ाई का काम भी करती हैं और इससे तकरीबन 5,000-6,000 रु. महीना कमा लेती हैं. शादी के सीजन में कमाई 15,000 रु. तक पहुंच जाती है. उनके लिए भी दस साल का यह सफर कतई आसान नहीं था. घरवालों ने काफी विरोध किया, समाज ने टेढ़ी नजरों से देखा, लेकिन जब अपनी कमाई के चार पैसे हाथ में हों तो सबका मुंह बंद हो ही जाता है.
मनोचिकित्सक सुधीर कक्कड़ कहते हैं, ''आप हमेशा बाजार पर पितृसत्तात्मक होने का आरोप लगाकर उसकी आलोचना नहीं कर सकते. बेशक वहां मर्दों का स्वामित्व है, लेकिन काफी हद तक उसी बाजार ने औरतों को परिवार की सामंती चौहद्दी से बाहर निेकाला है.''
अपनी कमाई से अपनी पहचान बनाकर सबका मुंह बंद किया है आजमगढ़ के कांखबार की 37 वर्षीया नीलमलता श्रीवास्तव ने. मामूली से दिखते एक छोटे-से घर के अंदर दो कमरों में नीलम अपना पार्लर चलाती हैं. लोहे की कुंडी वाले लकड़ी के दरवाजे और टेरीकॉट के मामूली परदे से ढके कमरे के भीतर 30-35 लड़कियां झुंड बनाकर बैठी हैं. यहां हर लड़की कुछ काम कर रही है.
नीलम ने शादी के 18 साल बाद घर से बाहर निकलने का फैसला किया, 34 साल की उम्र में आजमगढ़ जाकर ब्यूटीशियन का कोर्स किया और अब सिर्फ अपना ब्यूटी पार्लर ही नहीं चलातीं, बल्कि महज 25 रु. महीना लेकर मामूली परिवारों व निचली जातियों की लड़कियों को ब्यूटीशियन की ट्रेनिंग भी देती हैं. इनमें से ज्यादातर गरीब, मामूली परिवारों की लड़कियां हैं. कुछ की मांग में सिंदूर भी भरा है, जो ब्याह के बाद गौने का इंतजार करते हुए कुछ सीखने की कोशिश कर रही हैं.
उनके यहां आने वाली 22 साल की एक लड़की नीतू गांव के एक वंचित जाति के परिवार से है. उसके कच्ची फूस के घर में बिजली नहीं है, शौचालय भी नहीं. गांव को शहर से जोड़ने वाली पक्की सड़क भी उसके घर तक नहीं पहुंचती. लेकिन पता नहीं कब, उसके सपनों में एक पक्की सड़क बन गई, जिस पर चलकर वह बहुत दूर निकल आई है. नीतू कहती है, ''कोर्स खत्म करने के बाद मैं खुद का ब्यूटी पार्लर खोलूंगी.'' क्या होगा अगर शादी के बाद ससुराल वालों ने इजाजत नहीं दी? वह कहती है, ''परवाह नहीं. मैं उन्हें समझऊंगी, जरूरत पड़ी तो लड़च्ंगी भी, लेकिन काम करूंगी जरूर.''
पूर्वी उत्तर प्रदेश की एक लड़की में यह हिम्मत कहां से आई? इस समाज की लड़कियां ऐसे नहीं बोला करती थीं. सुषमा अब भले 10,000 रु. कमाने लगी हों, लेकिन बिना घूंघट काढ़े पार्लर के पर्दे से बाहर झंकती भी नहीं. परिवार की बहू जो ठहरीं. लेकिन नई पीढ़ी की लड़कियों का सुर देखकर लगता है कि वे न सिर्फ अपने पैसे कमाएंगी, बल्कि इन बंधनों को भी तोड़ेंगी. नीलम के पार्लर में आने वाली हर लड़की की आंखों में सपना है. उन्हें लगने लगा है कि काम करने, पैसे कमाने की दुनिया चूल्हे-चौके की दुनिया से बेहतर है. ये आत्मविश्वास और सपने उनकी आंखों में पढ़े जा सकते हैं.
सुदूर मामूली गांवों की लड़कियों की जिंदगी में ये सपने कब दबे पांव दाखिल हो गए? पूर्वी उत्तर प्रदेश के ही एक जिले अंबेडकर नगर के पाहितीपुर गांव की कुमकुम पांडेय ने तो ब्यूटी पार्लर का कोर्स करने की जिद में ससुराल ही छोड़ दी. वंचित जातियों की स्त्रियां तो फिर भी खेतों में काम करती रही हैं, लेकिन ब्राह्मण-ठाकुर परिवार की औरतें दिन के उजाले में घर के द्वार पर भी खड़ी नहीं होतीं.
ब्राह्मण परिवार की बहू दुकान चलाएगी, सोचकर ही घरवालों का कलेजा कांप गया. लेकिन कुमकुम ने हार नहीं मानी और ससुराल वालों को झुकना पड़ा. पाहितीपुर की 35 वर्षीया रेखा तिवारी पार्लर से 10,000 रु. तक कमा लेती हैं. वे कहती हैं, ''पैसा कमाने वाली औरतों की घर में इज्जत बढ़ जाती है.'' आखिर बाजारवाद से हर किसी को शिकायत नहीं है!
बिहार के मधुबनी जिले के गांव देवधा में पहला ब्यूटी पार्लर खोला 25 वर्षीया सुप्रिया चौधरी ने. यह विचित्र-सी चीज थी. इसलिए शुरू-शुरू में महिलाओं को आकर्षित करने के लिए सुप्रिया ने एक साल तक फ्री में थ्रेडिंग, फेशियल और हेयर कटिंग की. अब फटाफट घर के जरूरी काम निपटाकर वे बाकी का वक्त पार्लर में ही गुजारती हैं और महीने के 5,000-6,000 रु. तक कमा लेती हैं.
हां, शादी के मौसम में आमदनी बढ़ जाती है. देवधा में ही अपने घर में पार्लर चलाने वाली 30 वर्षीया संगीता देवी को दुख है कि घर के छोटा होने की वजह से पार्लर के लिए उनके पास अलग से कोई कमरा नहीं है. लेकिन वे कहती हैं, ''बिना अलग कमरे के ही पार्लर से महीने में 3,000-4,000 रु. आमदनी हो जाती है और यह पैसा परिवार के लिए बड़ा सहारा है.'' देवधा में महिला सरपंच सीता देवी कहती हैं, ''यह बहुत अच्छी शुरुआत है. अब महिलाएं जागरूक हो रही हैं और पैसे भी कमा रही हैं.''
ब्यूटी पार्लर का शौक मैदानों से चलकर अब पहाड़ों तक भी पहुंच चुका है, जहां सुदूर सीमांत गांवों में भी पार्लर खुलने लगे हैं. पिथौरागढ़ जिले में मंदाकिनी नदी के तट पर चीन की सीमा से लगे हुए मतकोट में सौंदर्य ब्यूटी पार्लर चलाने वाली 32 वर्षीया कमला देवी इस इलाके में किसी सेलिब्रिटी से कम नहीं हैं. घाटी में आसपास के 24-25 गांवों से महिलाएं यहां थ्रेडिंग और हेयरकटिंग के लिए आती हैं. स्कूल-कॉलेज जाने वाली लड़कियों के हाथ में ज्यादा पैसे नहीं होते तो वे दस रुपए की थ्रेडिंग करवाकर ही संतोष कर लेती हैं.
दूर के गांव से महीने की खरीदारी के लिए बाजार आने पर ब्यूटी पार्लर जाना अब जिंदगी का अहम हिस्सा हो गया है. जंगल से लकड़ियां तोड़कर ले जा रही पहाड़ी स्त्री की भौंहें भी थ्रेडिंग की हुई नजर आती हैं.
कमला कहती हैं, ''यहां ज्यादातर महिलाएं थ्रेडिंग करवाने ही आती हैं. वे कुछ खास मौकों पर ही फेशियल या ब्लीच करवाती हैं. गांव की औरतों और स्कूल जाने वाली लड़कियों के हाथ में ज्यादा पैसे नहीं होते.'' लेकिन कमला के हाथ में इस पार्लर से महीने के 5,000-6,000 रु. आ जाते हैं. वे कहती हैं, ''यह आत्मनिर्भरता की ओर मेरा पहला कदम है.''
ग्रामीण महिलाएं थ्रेडिंग और हेयर कटिंग ही करवाती हैं या दुलहन का मेकअप. पैडीक्योर, मैनीक्योर, वैक्सिंग आदि का चलन नहीं है.
पूरी दुनिया में हथियारों के बाद सौंदर्य का बाजार सबसे तेजी से बढ़ता हुआ बाजार है. कन्फेडरेशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्रीज के मुताबिक भारत में सौंदर्य का कुल बाजार 95 करोड़ डॉलर (5,334 करोड़ रु.) का है, जिसमें प्रति वर्ष 15 से 20 फीसदी की बढ़त हो रही है.
सौंदर्य पर एक महत्वपूर्ण पुस्तक द ब्यूटी मिथ लिखने वाली लेखिका नओमी वुल्फ के लिए सौंदर्य कारागार है, लेकिन भारतीय नारीवादी लेखिका उर्वशी बुटालिया ग्रामीण महिलाओं की बढ़ रही सौंदर्य चेतना पर कुछ अलग राय रखती हैं, ''बाजार की दी हुई सौंदर्य की अवधारणा बेशक कारगर है, लेकिन गांव के ब्यूटी पार्लर एक व्यावसायिक उपक्रम है. पिछड़ी, अशिक्षित ग्रामीण औरतों के लिए यह उन्हें बाहरी दुनिया में ले जाने वाली एक खिड़की है.''
ब्रिटिश लेखिका वर्जीनिया वुल्फ के शब्दों में कहें तो यह उन औरतों का ''रूम ऑफ वंस ओन'' है. उनका अपना कमरा, जहां वे अपनी आजादी, अपनी कमाई और अपने सपनों की दुनिया रच रही हैं. लेखिका अनामिका कहती हैं, ''गांव और शहरों के छोटे, पुराने मुहल्लों के लोकल ब्यूटी पार्लर महिलाओं के लिए कमाई का जरिया होने के साथ-साथ बहनापे के नए अड्डे भी हैं, जहां चार औरतें मिलकर अपना रंग-रूप संवारती हैं और सुख-दुख भी साझ करती हैं. घर, पति, बच्चे, सास, रसोई और घरेलू कामकाज से इतर यह उनका अपना नया स्पेस है.''
औरत की हर आजादी की शुरुआत 'अपना कमरा' और 'अपनी कमाई' से होती है. गांव के छोटे-छोटे ब्यूटी पार्लरों ने यहां की औरतों को ये दोनों चीजें दी हैं. आजादी का आसमान अभी छोटा है, लेकिन कुछ इंच ही सही, हर दिन उसका आकार थोड़ा बढ़ता जा रहा है.
-साथ में संतोष कुमार, सुधीर सिंह और प्रवीण भट्ट