अपने व्यक्तिगत गुणों के लिए 80 के दशक में भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति श्री नीलम संजीव रेड्डी के हाथों पद्मश्री से सम्मानित सीताराम पाल आर्थिक बदहाली और सरकार की अनदेखी से परेशान होकर अपना सम्मान अपने साथ ही जलाकर ख़ाक कर देने के लिए बाध्य हो गए हैं.
लगभग 80 साल के सीताराम पाल आंखों से अंधे हैं और अपने अंधे बेटे और उसके परिवार के साथ गाजीपुर जिले से लगभग 50 किलोमीटर दूर भांवरकोल ब्लॉक के शेरपुर कलां गांव के पुश्तैनी खंडहर नुमा मकान में रहने को विवश हैं.
28 मार्च 1981 को बुनकर और हथकरघा कशीदाकारी के लिए भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति श्री नीलम संजीव रेड्डी से दिल्ली में पद्मश्री से विभूषित श्री सीताराम पाल गाजीपुर जिले के साथ-साथ देश के गौरव के रूप में जाने जाते थे. लेकिन पद्मश्री मिलने के कुछ ही सालों के बाद अचानक उनकी आंखों की रोशनी चली जाने के बाद से आजतक वो अपने अंधेपन और शारीरिक अपंगता के चलते अपने अंधे पुत्र श्रवण पाल के पूरे परिवार के साथ एक जर्जर और खंडहर नुमा मकान में गरीबी में रहने को मजबूर हैं.
अपनी आर्थिक बदहाली और मूलभूत आवश्यकताओं के मद्देनज़र पिछले वर्षों में कई बार उन्होंने सरकारी दफ्तरों के चक्कर काटे और अपनी व्यथा सरकार को उनके कर्मियों और अधिकारीयों के माध्यम से सुनाया. लेकिन 100 रु. की विकलांग पेंशन और सन 2004 में तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह द्वारा 50,000 रुपये की मदद के अलावा उन्हें कुछ भी नहीं मिला है. ऐसे में सीताराम पाल के बेटे श्रवण पाल ने कहा की सरकार उनकी अनदेखी कर रही है और पद्मश्री देकर हमें भूल गयी.
सीताराम पाल के बेटे श्रवण पाल ने कहा, 'हमारा पूरा परिवार ब्लाइंड है और सरकार को हमने कई पत्र लिखे. लेकिन सरकार हमें भूल गयी.' सीताराम पाल खुद ये कहते हैं की जब पद्मश्री देकर सरकार ही भूल गयी तो हम भी भूल जायएंगे. इसे मेरे मरने के बाद मेरी चिता पर रख के जला दिया जाय और एक बात सरकार से ये कहना चाहूंगा कि इस तरह का सम्मान देने से पहले उसकी आर्थिक स्थिति जांच कर ही ये सम्मान दे ताकि उसका सम्मान वो रख सकें.
आर्थिक और शारिरीक बदहाली से तंग पूरे परिवार ने कई बार अधिकारीयों और नेताओं को पत्र लिखकर और स्वयं मिलकर अपनी व्यथा सुनाई लेकिन हालत ये है की उनके पास फिलहाल अपना राशन कार्ड तक नहीं है. हां अधिकारियों ने इतनी सुविधा जरुर मुहैया करा दी कि सीताराम को सरकारी सस्ते गल्ले की दूकान से आनाज किसी ऐसे आदमी के नाम पर दे दिया जाता है जिसका नाम राशनकार्ड में तो है लेकिन वो गांव में नहीं रहता.