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कांग्रेस को ऐसे ही खराब हालात से इंदिरा बाहर लाई थीं, राहुल के लिए नामुमकिन

'मेरे पिता एक स्टेट्समैन थे, मैं एक पॉलिटिकल वुमन हूं. मेरे पिता एक संत थे, लेकिन मैं नहीं.' इंदिरा गांधी के ये शब्द उनके साहसी चरित्र को बयां करते हैं, जिसका इस्तेमाल वे अकसर राजनीतिक विरोधियों को पटखनी देने में करती थीं. लेकिन कांग्रेस के ताजा नेतृत्व के मिजाज में वह बात नहीं.

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पराजय के बाद इंदिरा आक्रामक हो गईं, जबकि राहुल आराम के मूड में हैं
पराजय के बाद इंदिरा आक्रामक हो गईं, जबकि राहुल आराम के मूड में हैं

'मेरे पिता एक स्टेट्समैन थे, मैं एक पॉलिटिकल वुमन हूं. मेरे पिता एक संत थे, लेकिन मैं नहीं.' इंदिरा गांधी के ये शब्द उनके साहसी चरित्र को बयां करते हैं, जिसका इस्तेमाल वे अकसर राजनीतिक विरोधियों को पटखनी देने में करती थीं. लेकिन कांग्रेस के ताजा नेतृत्व के मिजाज में वह बात नहीं. राहुल गांधी में हमेशा ही सन्यास का भाव रहता है. लोकसभा और कई राज्यों में हार के बाद कांग्रेस अब दिल्ली में भी सरेंडर करने जा रही है. 1977 वाली कांग्रेस और मौजूदा कांग्रेस की कुछ समानताओं को समझने के बाद जानेंगे कि इंदिरा गांधी ने उस समय क्या गजब कर दिया था, जो अब राहुल गांधी के लिए कर पाना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है?

दस साल तक रही कांग्रेस की दोनों सरकारें अराजक स्थितियों के बाद गईं
1975 में इंदिरा गांधी ने देश में इमरजेंसी लगा दी. कई लोगों को जेल में डाल दिया गया. इसमें ज्यादातर उनके राजनीतिक विरोधी थे. हाल ही में गई यूपीए सरकार के आखिरी तीन वर्षों में एक के बाद एक घोटाले सामने आए और सरकार के सहयोगियों में खींचतान चरम पर पहुंच गई. दोनों ही मौकों पर जनता सबसे ज्यादा आहत महसूस कर रही थी.

तब हार के बावजूद देश के राजनीतिक पटल पर इंदिरा गांधी ही सबसे बड़ी नेता थीं. वे डटी रहीं. उन्हें इमरजेंसी के दौरान हुए अत्याचार के मामले में गिरफ्तार करने पुलिस पहुंची तो वे अपने घर के बाहर ही जमीन पर बैठ गईं. अखबारों में जब वह तस्वीर आई तो एक महिला होने के नाते उनके प्रति लोगों में सहानुभूति जागी. उसके बाद तो इंदिरा हर मुद्दे पर जनता सरकार से लोहा लेने लगीं.

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लेकिन राहुल गांधी का मामला दूसरा है. कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार होने के बावजूद उन्होंने कभी खुद को कांग्रेस नेतृत्व के रूप में आगे नहीं किया. वे कुछ मुद्दों पर बयान देते और कई पर रहस्यमय चुप्पी साध लेते. जनता में हमेशा यह शंका रही कि वे राजनीति में दिलचस्पी रखते भी हैं या नहीं.

इंदिरा में सत्ता जाने पर छटपटाहट थी, राहुल आराम के मूड में हैं
दस साल सरकार चलाने वाली इंदिरा गांधी ने 1977 में सत्ता खोई. लेकिन विपक्ष में रहते हुए उन्होंने जनता सरकार में शामिल नेताओं की महत्वाकांक्षाओं पर नजर बनाए रखी. उसे उभारा ताकि सरकार में अंतरविरोध भड़के. वे सफल रहीं. दो साल में सरकार गिर गई. चुनाव हुए और वे दोबारा सत्ता में लौटीं. लेकिन दस साल रही यूपीए सरकार के जाने के बाद राहुल गांधी आराम के मूड में हैं. धर्मांतरण जैसे कई मुद्दे हैं, लेकिन वे फ्रंट पर नहीं आए हैं. इंदिरा ने जब सत्ता खोई तो उनमें उसकी खीझ साफ दिखाई देती थी. उन्होंने पार्टी को जोड़े रखा और उसे हौंसला दिया कि वे जल्दी ही चुनाव में जाएंगे और फिर सरकार में आएंगे. इसके उलट दस साल की यूपीए सरकार के बाद अब कांग्रेस आराम के मूड में दिख रही है. लोकसभा चुनाव में हार के बाद तो उसका नेतृत्व महाराष्ट्र, हरियाणा, जम्मू-कश्मीर और झारखंड जैसे राज्यों के चुनाव प्रचार से भी लगभग नदारद रहा.

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हार के बावजूद तब कांग्रेस एक रही, अब विपक्ष को एक करने का मौका चूकी
इमरजेंसी के दौरान सरकार के कुछ लोगों और संजय गांधी की भूमिका पर कई सवाल उठे, लेकिन कांग्रेस के भीतर इंदिरा गांधी की अथॉरिटी कायम रही. इस एकता के आगे सरकार में शामिल दलों के बीच बिखराव दिखने लगा, जो बाद में बढ़ता ही गया. मौजूदा दौर में विपक्षी पार्टियों के पास 'मोदी-विरोध' का एजेंडा भी है, लेकिन कांग्रेस उन्हें एक मंच मुहैया कराने में असफल रही है. तब तानाशाही और भ्रष्टाचार के आरोप सहने वाली इंदिरा गांधी ही प्रमुख विपक्ष थीं, जबकि अब राहुल गांधी दूर-दूर तक कहीं नहीं हैं.

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