त्रिपुरा चुनाव को लेकर शंखनाद कर दिया गया है. 16 फरवरी को वोट पड़ने वाले हैं और 2 मार्च को नतीजे आएंगे. पूर्वोत्तर के इस राज्य में साल 2018 में बीजेपी ने इतिहास रचा था. 25 साल के लाल किले को एक प्रचंड बहुमत के साथ ध्वस्त कर दिया था. उस चुनाव में 60 विधानसभा सीटों में से बीजेपी और उसके सहयोगी दल ने साथ मिलकर 43 सीटें जीत ली थीं. वहीं सीपीएम को 16 सीटों से संतुष्ट करना पड़ा था. अब एक बार फिर चुनाव आ गए हैं, भाजपा के सामने सत्ता वापसी की चुनौती है, सीपीएम ने कांग्रेस के साथ हाथ मिलाया है और ममता बनर्जी की टीएमसी भी किस्मत आजमाने जा रही है.
त्रिपुरा का सियासी समीकरण, कौन कहां खड़ा?
त्रिपुरा में कुल 60 विधानसभा सीटें आती हैं. यहां बहुमत का आंकड़ा 31 रहता है. इस राज्य में दो तरह के वोटर सक्रिय रहते हैं. एक आदिवासी समाज का वोट है तो दूसरा बांग्लादेश से आया बड़ी संख्या में शरणार्थियों वाला वोट है. अब कहने को त्रिपुरा में हमेशा से ही आदिवासी समुदाय का वर्चस्व रहा है, उन्हीं की राजनीति चलती रही है, लेकिन पिछले कुछ सालों में पूर्वोत्तर के इस राज्य में बांग्लादेश से कई शरणार्थी आ गए हैं. उनकी एंट्री से त्रिपुरा में बांग्ला भाषी का एक अलग वोटबैंक तैयार हो गया है. अब इन तमाम फैक्टरों के बीच 2018 में बीजेपी ने पहली बार इस राज्य में बड़ी जीत दर्ज की थी. इस जीत में आदिवासी वोटबैंक अहम रहा, पश्चिमी त्रिपुरा जहां से 14 सीटें आती हैं, वहां तो कमल ने क्लीन स्वीप करते हुए 12 सीट जीत ली थीं. अब बीजेपी ने जो कमाल 2018 में किया था, लेफ्ट ने लगातार 25 साल तक उस प्रदर्शन को दोहराया था. इसी वजह से लंबे समय तक त्रिपुरा लेफ्ट का गढ़ रहा था.
क्यों कहते थे त्रिपुरा को लेफ्ट का गढ़?
चुनावी आंकड़े बताते हैं कि 1978 के बाद से त्रिपुरा में लेफ्ट का डंका बजा है. सिर्फ 1988-93 वाला समय छोड़ दिया जाए तो कोई भी पार्टी सीपीएम को त्रिपुरा से अलग नहीं कर सकी. 1978 वाले चुनाव में तो 60 में से 56 सीटें जीतकर लेफ्ट ने अलग ही करिश्मा कर दिखाया था. इसके बाद वाले चुनावों में सीट का आंकड़ा कुछ गिरा, लेकिन जीत हर बार उन्हीं की हुई. उस दौरान कांग्रेस सिर्फ कमजोर होती गई. त्रिपुरा में हर चुनाव के साथ कांग्रेस का वोट शेयर भी गिरा और सीटें भीं. 2013 विधानसभा चुनाव की बात करें तो राज्य की कुल 60 सीटों में से वाममोर्चा ने 50 सीटें जीती थी, जिनमें से CPM को 49 और CPI को 1 सीट. जबकि कांग्रेस को 10 सीटों के साथ संतोष करना पड़ा था. लेकिन तीन साल के बाद 2016 में कांग्रेस के 6 विधायकों ने ममता बनर्जी की पार्टी टीएमसी ज्वाइन कर ली थी और बाद में वो 6 विधायक भाजपा में चले गए.
लेफ्ट को कांग्रेस का साथ, बीजेपी का भी दांव
पिछले चुनाव में तो कांग्रेस का प्रदर्शन और ज्यादा निराशाजनक रहा था. वो पूर्वोत्तर के इस राज्य में अपना खाता भी नहीं खोल सकी और कई सीटों पर उसकी जमानत जब्त हुई. लेकिन अब इस बार हो रहे त्रिपुरा चुनाव में एक बड़ा एक्सपेरिमेंट हुआ है. कुछ राज्यों में एक दूसरे के विरोध ही लड़ने वाले लेफ्ट और कांग्रेस बीजेपी को हराने के लिए साथ आ गए हैं. इस बार त्रिपुरा में बीजेपी को सीपीएम-कांग्रेस के गठबंधन का सामना करना होगा. वैसे बीजेपी ने भी बड़ा दांव चलते हुए क्षेत्रीय आदिवासी संगठन इंडिजिनस पीपुल्स फ्रंट ऑफ त्रिपुरा (IPFT) से पहले ही गठबंधन का ऐलान कर दिया है. वहीं ममता बनर्जी की टीएमसी अकेले ही चुनाव लड़ने जा रही है. ऐसे में ये मुकाबला त्रिकोणीय बन सकता है अगर टीएमसी मजबूत लड़ाई दे.
बीजेपी का उत्तराखंड वाला फॉर्मूला
बीजेपी के लिए इस बार त्रिपुरा में बड़ी चुनौती इसलिए भी है क्योंकि उसने यहां एक बड़ा एक्सपेरिमेंट किया है. जिस दांव के दम पर उसने उत्तराखंड में रिवाज बदलने का काम किया था, वो ही तरीका त्रिपुरा में भी अपनाया गया है. पार्टी ने यहां पर 2018 में बिप्लव देव को मुख्यमंत्री बनाया था. लेकिन 2023 के चुनाव से पहले राज्य की कमान माणिक साहा को सौंप दी गई. इसके अलावा जमीन पर आदिवासी अधिकार पार्टी इस समय बीजेपी के खिलाफ माहौल बनाने में लगी है. कई नेता पार्टी छोड़ भी जा रहे हैं. सबसे बड़ा नाम तो हंगशा कुमार रहा है जिन्होंने पिछले साल 6,000 आदिवासी समर्थकों के साथ टिपरा मोथा का दामन थाम लिया था. ऐसे में बीजेपी को फिर सत्ता वापसी में आने की कोशिश करनी है, सीपीएम को अपने खोए हुए गढ़ को फिर फतेह करना है और टीएमसी को बंगाल की तरह इस राज्य में भी खेला करने की उम्मीद है.