जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में 9 फरवरी, 2015 को आतंकी अफजल गुरु के समर्थन में हुए कार्यक्रम को और वहां लगे भारत विरोधी नारों को पूरा एक महीना हो गया. इस महीनेभर में इस घटना से संबंधित कई चीजें हुई, जैस- भारत विरोधी नारे लगाने के आरोप में कईयों को पुलिस ने गिरफ्तार किया. आरोपियों को जेल के बाहर वकीलों द्वारा पीटा गया. जेएनयू के खिलाफ और जेएनयू बचाओ दोनों के पक्ष में जमकर प्रचार हुआ.
पूरे घटनाक्रम के बाद अब जो बात लोगों के बीच चर्चा का विषय बन गई वह है जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार का उभार. कन्हैया ही वह व्यक्ति थे, जिसे पुलिस ने घटना के बाद सबसे पहले गिरफ्तार किया. कन्हैया ही थे, जिसे कोर्ट के बाहर वकीलों ने पीटा. कन्हैया ही थे, जिसे मीडिया ने 'देशद्रोही' कहकर संबोधित किया. वे 21 दिनों तक जेल में रहे और बाद में जमानत पर बाहर आए.
लेकिन इस सबके बीच कुछ ऐसा भी हो रहा था, जो कहीं ना कहीं कन्हैया के पक्ष में जा रहा था, उसे लोकप्रिय बना रहा था. जेल से बाहर आकर जेएनयू कैंपस में 3 मार्च की रात को दिए उसके भाषण ने जैसे महीनेभर से उठ रहे सभी सवालों के जवाब दे दिए और कथाकथित 'देशद्रोही' एकदम से नेता बन गया.
55 मिनट के भाषण ने कन्हैया को रातों-रात हीरो बना दिया. लोग उससे सहमत होने लगे, उसके साथ होने लगे. कन्हैया प्रसिद्ध हो गया. लेकिन इस सबके बीच यह आवश्यक हो जाता है कि वो आगे की चुनौतियों का भी ध्यान रखे और सावधान होकर आगे कदम बढ़ाए.
इन चुनौतियों का रखना होगा ध्यान-
मीडिया पर ना हो निर्भर
कन्हैया के उभार में अगर मीडिया का हाथ माना जाए, तो इससे कतई भी इंकार नहीं किया जा सकता. जेएनयू कैंपस में दिए भाषण को टीवी पर लाइव चलाया गया. ये पहला मौका था, जब किसी छात्र नेता का भाषण इस तरह नेशनल टेलीविजन पर चला हो और उसे पूरे देश ने देखा हो. लेकिन एक बार जब मीडिया का कैमरा उस पर से शिफ्ट हो जाएगा, तो ये चुनौती बन जाएगी कि कैसे लोगों तक अपनी बात पहुंचाई जाए. ध्यान देने वाली बात यह है कि मीडिया कभी किसी एक पर ही नहीं रुक कर रह जाता है.
देने होंगे सवालों के जवाब
जेल से बाहर आकर दिए भाषण में कन्हैया ने विरोधियों पर तो खूब हमला किया, लेकिन जिन आरोप में वो अंदर गए, उस पर बात बहुत कम की. अभी तक स्पष्ट नहीं हैं कि 9 फरवरी को हुई घटना पर कन्हैया का रुख क्या है. अगर वो उसके समर्थन में नहीं हैं तो क्या वे उनका विरोध करेगा, जिन्होंने वो कार्यक्रम आयोजित किया था? अब जेएनयू के रजिस्ट्रार ने दावा किया है कि कन्हैया ने अफजल गुरु की फांसी की बरसी पर प्रोग्राम की मंजूरी कैंसल करने पर नाराजगी जताई थी. कई सवाल हैं, जिनके जवाब कन्हैया के लिए किसी चुनौती से कम नहीं हैं.
सिर्फ मोदी विरोधी राजनीति काफी नहीं
जेएनयू में दिए अपने भाषण में कन्हैया ने सिर्फ और सिर्फ पीएम मोदी और आरएसएस पर हमला किया. इससे भाषण तो हिट हो गया, लेकिन हर बार सिर्फ मोदी विरोधी राजनीति घातक भी हो सकती है. उन्होंने भाषण में जो भी मुद्दे उठाए, वो ऐसा नहीं है कि सिर्फ मोदी सरकार बनने के बाद ही सामने आए हैं.
जेएनयू की साख लौटाना
जेएनयू में देश विरोधी तत्व हैं, इस तरह की बातें हल्के और छोटे रूप में कई बार सामने आती थीं. लेकिन 9 फरवरी को हुई घटना ने इस तरह की बातों को जैसे हवा दे दी और खुलकर देशभर में जेएनयू के खिलाफ माहौल बन गया. जेएनयू विरोधियों को जैसे बैठे-ठाले मुद्दा मिल गया. ऐसे में कन्हैया की ये भी जिम्मेदारी बनती है कि अपने साथ-साथ जेएनयू के प्रति भी लोगों का भरोसा वापस लौटाया जाए. ये विश्व प्रसिद्ध यूनिवर्सिटी है, और किसी व्यक्ति विशेष से बहुत आगे और महत्वपूर्ण है.
वामदल हुए कन्हैया पर निर्भर
कन्हैया की बढ़ती लोकप्रियता ने जैसे वामदलों के लिए किसी संजीवनी का काम किया हो. उन्हें कन्हैया में एक उम्मीद नजर आने लगी है. इसी का परिणाम है कि सीताराम येचुरी ने कह डाला कि वो हमारे लिए बंगाल विधानसभा चुनावों में प्रचार करेगा. अर्से बाद कन्हैया के कारण लेफ्ट की विचारधारा में एक जान सी नजर आ रही है. ऐसे में उन पर अपनी छात्र राजनीति के अलावा लेफ्ट की विचारधारा को भी जीवित करने की चुनौती होगी.