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RTI के दायरे में क्‍यों नहीं आना चाहती राजनीतिक पार्टियां?

विविधता में एकता देखनी हो, तो भारत देश एक बेजोड़ नमूना है. हमारे देश की राजनीतिक पार्टियां हर रंग और विचारधारा को ढोने का दावा करती हैं. ये स्पेक्ट्रम भगवा से शुरू होकर हरे तक जाता है और बीच में सफेद रंग तो है ही. मगर ये माजरा सिर्फ राष्ट्रीय दलों तक ही सिमटा हुआ नहीं है. अपने-अपने इलाकों के हितों की रक्षा करने का दावा करती क्षेत्रीय पार्टियां भी इसमें शामिल हैं. जब भी नजर संसद या विधानसभाओं पर जाती है, हमें कुत्तों की तरह झगड़ते राजनीतिक दलों के चुने हुए प्रतिनिधि नजर आते हैं.

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बीजेपी
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विविधता में एकता देखनी हो, तो भारत देश एक बेजोड़ नमूना है. हमारे देश की राजनीतिक पार्टियां हर रंग और विचारधारा को ढोने का दावा करती हैं. ये स्पेक्ट्रम भगवा से शुरू होकर हरे तक जाता है और बीच में सफेद रंग तो है ही. मगर ये माजरा सिर्फ राष्ट्रीय दलों तक ही सिमटा हुआ नहीं है. अपने-अपने इलाकों के हितों की रक्षा करने का दावा करती क्षेत्रीय पार्टियां भी इसमें शामिल हैं. जब भी नजर संसद या विधानसभाओं पर जाती है, हमें कुत्तों की तरह झगड़ते राजनीतिक दलों के चुने हुए प्रतिनिधि नजर आते हैं. भला ऐसा और कहां देखने को मिलेगा कि एक जगह जो वाद विवाद और संवाद के लिए तय की गई है, वहां माइक्रोफोन और कुर्सियों का इस्तेमाल मिसाइल की तरह विरोधियों पर हमला करने के लिए हो. यहां जूते अपनी स्वाभाविक जगह पैरों को छोड़कर हाथों में नजर आते हैं और दूसरे के सिर को निशाना बना अपना अस्वाभाविक सफर तय करते हैं.

मगर ये सब सोचकर अगर हम ये खुशफहमी पाल लें कि राजनीति विभाजनकारी है, तो यह गलतफहमी ही होगी. हमारे राजनीतिक दल भले ही सहमति के मुद्दों पर भी बहस का माद्दा रखते हों, मगर जब राजनीति की दिशा और दशा तय करने वाले अहम फैसलों की बात आती है, तो सब एक ही छाते तले गोलबंद नजर आते हैं. अगर फौरी मसले की बात करें तो ये सभी राजनैतिक दल, चाहे वे किसी भी रंग और विचार के हों, यह नहीं चाहते कि भारत की जनता जिसके प्रतिनिधि होने का वह स्वांग करते हैं, यह जाने कि दल अपने दलदल में कैसे डूबते उतराते हैं. सपाट लहजे में कहें तो इन दलों के कामकाज का ढर्रा क्या है. राजनीतिक दल चाहते हैं कि पारदर्शी गिलास में भरे धूसर द्रव्य की तरह वह दिखकर भी धुंधले ही रहें.

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इन दिनों देश पर हुकूमत कर रहे बहुरंगी गठबंधन यूपीए का नेतृत्व कांग्रेस पार्टी कर रही है.यह बार-बार अपनी राजनीतिक उपलब्धियों में सूचना का अधिकार एक्ट को गिनवाती है. ये आरटीआई एक्ट एक आम आदमी को सूचना का अधिकार हासिल करने का हक देता है. उसे बस किसी भी सरकारी दफ्तर में एक अर्जी दाखिल करनी है और इसके जरिए वह खर्च होने वाली एक एक पाई का हिसाब पूछ सकता है. एक्ट के मूल स्वरूप में इस खर्च के तौर तरीके तय करने वाली चर्चाओं को जनता के जानने के अधिकार क्षेत्र से बाहर रखा गया. लेकिन इस पर भी लगातार सवाल उठाए जा रहे हैं. अब वही आरटीआई का ढोल टांगे घूमने वाली कांग्रेसी पार्टी एक विधेयक ला रही है, जिससे यह तय हो सके कि राजनीतिक दलों की आर्थिक गतिविधियां जनता की जानकारी में न आने पाएं.

विपक्ष का मोर्चा संभाले हैं एनडीए की सिरमौर भारतीय जनता पार्टी. पिछले कुछ बरसों की गतिविधियां देखें तो बीजेपी ने हर उस प्रस्ताव का विरोध करने की ठानी है, जिसे सत्तारूढ़ यूपीए पेश करता है. यह विपक्ष का पवित्र कर्तव्य भी है और बीजेपी जब तक गला फाड़ती है, ताकि लोगों को शासन करने वाले गठबंधन के कुकर्मों का पता चल सके. मगर जैसे ही बात आई भारतीय जनता के राजनैतिक दलों का गल्ला खंगालने की बात, उनका फटा गला फाड़ा सुर फुस्स हो गया. वे नहीं चाहते कि लोग जानें कि भारी भरकम रैलियों में कितना खर्चा और कहां से आता है.

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इस हमाम में अपनी गरीबी का मुजाहरा करने वाले कम्युनिस्ट भी खड़े हैं.वह भी चाहते हैं कि उनका गरीब अर्थ तंत्र आरटीआई के दायरे से बाहर रहे और जनता की उस पर नजर न पड़े. क्षेत्रीय पार्टियां भी हमाम के दरवाजे पर मजबूती से पहरेदारी कर रही हैं, ताकि कोई झांक न ले और उनकी नंगी सच्चाई न सामने आ जाए.

राजनीतिक दलों के आर्थिक क्रियाकलापों को आरटीआई के दायरे में लाने की पैरवी करने वालों का तर्क है कि राजनीति में भ्रष्टाचार की जड़ राजनीति को धन मुहैया कराने के मौजूदा रंग ढंग हैं. अभी 24 घंटे भी नहीं बीते बीजेपी के वरिष्ठ नेता गोपीनाथ मुंडे को यह स्वीकार किए कि चुनाव आयोग जो करना चाहे कर ले, मगर सच यही है कि लाखों रुपये की उसकी सीमा में चुनाव नहीं लड़े जा सकते और खुद मुंडे ने नियमों को ठेंगा दिखाते हुए चुनावों में करोड़ों स्वाहा किए हैं. मगर यह तो सिर्फ एक नेता या कहें कि प्रत्याशी का सच है.

पूरा सच तो यही है कि हर राजनीतिक दल को अपनी हैसियत जताने के लिए अरबों रुपये की दरकार है और उसकी झोली में इतना रोकड़ा रहता भी है. बस हमें ये पता नहीं चल पाता कि ये पैसा देता कौन है. मगर इतना तो जाहिर है कि जो भी इन राजनीतिक दलों को पैसा देते हैं, वे अपने निवेश के बदले मोटा मुनाफा भी कमाते होंगे और असल तो वापस आता ही होगा. इसीलिए हर चुनाव के पहले इस कॉरपोरेट फंडिंग के नाम पर खजाने खोल दिए जाते हैं.

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यह सूचना का युग है. बताया जाता है कि हम सूचनाओं की भरमार वाले एक हाईवे पर सफर कर रहे हैं. मगर जब हम रास्ते से होकर राजनीतिक पार्टियों के दरवाजों पर दस्तक देते हैं, तो ये दरवाजे दीवार, बेहद मजबूत, कभी न दरकने वाली दीवार में तब्दील हो जाते हैं. सच यह है कि सरकार हमसे जुड़ी हर सूचना जानना चाहती है. जनता खुद ही लपलपा कर अपने सारे राज सूचना के रूप में उड़ेल दे, इसके लिए आधार योजना जैसी बाजीगरी रची जाती हैं. उसी जनता के लिए राजनीतिक दलों की सूचना जानने का एक जरिया आरटीआई हो सकता था. मगर नहीं, ये राजनीतिक दल बस इतना ही चाहते हैं कि आपके चाहे अनचाहे वे घरों में दस्तक दिए बिना हर पांच साल में घुसे वोट मांगने के लिए.इन्हें बस आपका वोट चाहिए, आपकी वो ताकत चाहिए, जिसके जरिए इनकी सत्ता को लगातार खुराक और वैधता मिलती रहे. बस आप उनसे बदले में उनके घर में घुसने का या वहां की हरकतें जानने का अधिकार न मांगें. ऐसी मांग सामने आते ही ये बहरूपिए खुद को एक निजी संगठन बताने लगते हैं, जो सूचना के अधिकार के दायरे से बाहर की चीज है. मगर सच यही है कि भारत का भाग्य और भविष्य सरकार नहीं इसे चलाने वाले और इसके लिए होड़ करने वाले राजनीतिक दल तय करते हैं. और जब तक ये राजनीतिक दल प्राइवेट पार्टी की तरह एक्ट करते रहेंगे, देश को मुट्ठी भर लोग अपने ढंग से हांकते रहेंगे. वो गुजरे जमाने की बात है जब हमारी किस्मत कुछ राजाओं, रईसों और जमींदारों के हाथ होती थी. पर क्या वाकई वो जमाना गुजर गया?

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