नेताओं में सबसे ज्यादा शालीनता चुनाव नतीजों के बाद ही दिखाई देती है. जो जीत जाता है उसमें तो शालीनता आना स्वाभाविक ही है, और जो हार गया, उसके पास तो और कोई विकल्प ही नहीं बचता.
चार राज्यों, और खास तौर पर दिल्ली में, कांग्रेस का सूपड़ा साफ होने के बाद शहजादे राहुल गांधी ने इसी शालीनता का परिचय देते हुए आम आदमी पार्टी से सीखने का ऐलान कर दिया. संजय झा और दिग्विजय सिंह ने उनके इस ऐतिहासिक ऐलान के बाद अभी तक ट्विटर पर इसकी तारीफ में बड़े-बड़े पुल नहीं बांधे हैं, जो फिर से एक ऐतिहासिक बात है. लेकिन राहुल बाबा का आम आदमी पार्टी से सीखने का बयान महान और शालीन बनने की कोशिश के अलावा और कुछ नहीं है.
ब्लैक एंड वाइट
समय रंगीन टीवी का है, लेकिन राजनीति में सफेद धन से ज्यादा काले धन का युग आज भी शबाब पर है. आम आदमी पार्टी का सीना ठोक कर दावा है कि उन्होंने चुनाव प्रचार में सिर्फ सफेद पैसे का प्रयोग किया, और हर छोटी-बड़ी डोनेशन के लिए उन्होंने रसीदें काटी हैं. क्या राहुल गांधी और कांग्रेस इस बात का प्रण ले सकते हैं कि वे भी चुनाव में सिर्फ सफेद धन का इस्तेमाल करेंगे, और पार्टी को मिलने वाले सारे चंदे का हिसाब वेबसाइट पर डालेंगे?
सफाई बहुत जरूरी है
केजरीवाल दिल्ली की सफाई से पहले झाड़ू से अपनी पार्टी में सफाई करने की बात करते हैं, बिंदास होकर बोलते हैं कि चुनाव से एक भी दिन पहले यदि किसी उम्मीदवार के खिलाफ भ्रष्टाचार का एक भी सुबूत मिलेगा तो उम्मीदवार को मैदान से हटा लेंगे. उन्होंने राजौरी गार्डन में ऐसा करके भी दिखाया. वहीं कांग्रेस समेत तकरीबन बाकी सभी पार्टियों के लिए सबसे बड़ी बात होती है 'सीट निकालने वाले' उम्मीदवार की पहचान करना. लोक सभा और लगभग हर विधान सभा में उनके दागियों की संख्या देखते हुए क्या आपको लगता है कि राहुल गांधी सिर्फ साफ-सुथरे उम्मीदवारों को ही टिकट देंगे?
परिवारवाद
अब इस मुद्दे पर तो राहुल गांधी केजरीवाल से शायद रत्ती भर भी न सीख पाएं. आम आदमी पार्टी के संविधान में लिखा है कि एक ही परिवार के दो लोगों को कभी भी चुनावी टिकट नहीं मिलेगा. राहुल बाबा को तो अब तक वोट मांगने के लिए अपनी स्वर्गीय दादी और दिवंगत पिता की याद आ रही है. तो यदि राहुल गांधी AAP से कुछ सीखते हैं तो सबसे पहले तो उन्हें खुद ही पार्टी छोड़नी होगी. छोड़ेंगे क्या?
बेसिक्स
दोनों पार्टियों में सबसे बड़ा अंतर ही विचारधारा का है. अभी तक AAP का ट्रैक रिकॉर्ड देखें तो उसमें लोगों की समस्याओं, देश की उन्नति इत्यादि जैसे 'बोरिंग' किस्म के मुद्दे छाए हुए हैं, और शायद सबको ये विश्वास भी है कि यह पार्टी अपने वायदों पर खरी भी उतरेगी. वहीं 'जीजाजी' से लेकर घोटालों की लम्बी लिस्ट लेकर बैठी कांग्रेस के बारे में क्या यह माहौल आज देश में है?
आम आदमी
आम आदमी पार्टी बनते ही कांग्रेस का प्रियतम नारा 'कांग्रेस का हाथ, आम आदमी के साथ' उनसे छिन गया. आपको आज के समय में ऐसे कितने कांग्रेसी सांसद या विधायक याद आते हैं जिनमें से कोई एक झुग्गी में रहने वाली पूर्व पत्रकार हो, कोई एक पूर्व NSG कमांडो हो, कोई एक इंश्योरेंस एजेंट हो या महज़ कुछ हजार के बैंक बैलेंस वाला एक छात्र हो! यदि राहुल गांधी को केजरीवाल से वाकई में कुछ सीखना है तो देखते हैं कि अगले चुनावों में वो कितने 'आम आदमियों' को टिकट देते हैं?
जरूरी नहीं है कि किसी गरीब की झोंपड़ी में रात गुजार कर आप रातों-रात उनके मसीहा बन जाएंगे, जरूरी नहीं कि रैली में आस्तीन चढ़ाकर आप नए एंग्री-यंग मैन का खिताब ले लेंगे, ये भी जरूरी नहीं कि अपनी ही सरकार की कैबिनेट का विरोध करके आप जनता के हीरो बन जाएंगे.
भाई साहब, यदि सिर्फ कुछ महीने पुरानी पार्टी आपकी 'मज़बूत और विकास करने वाली' मुख्यमंत्री को चारों खाने चित्त कर सकती है, और दिल्ली के आपके सारे विधायकों को एक ही SUV में फिट करने लायक बना सकती है तो आप को बेहद गंभीर आत्म-मंथन करने की जरूरत है, जो आप करेंगे नहीं. पता है क्यों? क्योंकि आप खास आदमी पार्टी के वो खासमखास नेता हैं, जिन्हें सत्ता का सिंहासन विरासत में मिला है, मेहनत से नहीं, और आपके इर्द-गिर्द चापलूसों की पूरी फौज तैयार है. लेकिन अब सावधान! भले ही साथ में चाणक्य हो न हो, लेकिन आपके सिंहासन को कंपाने के लिए एक चन्द्रगुप्त ने कमर कस ली है.