जब संविधान के रचयिताओं ने उसकी रचना की थी, तो उनेक मन में यह ख्याल था कि कैसे दलितों को आगे बढ़ने का रास्ता दिया जाए. सो उन्होंने उनके लिए थोड़े समय के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था कर दी. उद्देश्य था कि वे अपने पैरों पर खड़े हो जाएं. लेकिन बाद में यह मामला राजनीतिक रंग में रंगता चला गया. सत्ता की सड़क पर चलने के लिए बैसाखी की तरह इसका इस्तेमाल होने लगा और इसकी मूल भावना लुप्त सी हो गई.
कर्पूरी ठाकुर ने इस फॉर्मूले का इस्तेमाल बिहार की राजनीति में अपनी पकड़ बनाने के लिए किया था और उन्हें पिछड़ी जातियों का व्यापक समर्थन भी मिला था, लेकिन यह बात अलग है कि बाद में चुनाव में उन्हें हार का सामना करना पड़ा. उसके बाद विश्वनाथ प्रताप सिंह ने भी मंडल कमीशन को लागू करके इस खेल का स्वाद चखा. हालांकि यह बात भी है कि मंडल कमीशन का गठन इंदिरा गांधी ने अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए ही किया था.
तमिलनाडु ने अधिकतम आरक्षण करने में तो सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए. मतलब हर नेता और पार्टी अपना जनाधार बढ़ाने के लिए इस बैसाखी का इस्तेमाल करते रहते हैं. हालत यह हो गई है कि जाट जैसी धनी और असरदार जाति भी आरक्षण के दायरे में ले आई गई और अब महाराष्ट्र सरकार ने न केवल मुसलमानों, बल्कि मराठाओं के लिए भी नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश के लिए आरक्षण का ऐलान किया है.
यह सभी जानते हैं कि मराठा वहां के योद्धा थे और उनका वहां के कई हिस्सों में शासन भी रहा. वह उच्च वर्ग के लोग हैं, इसलिए उन्हें आरक्षण देने का बात जमती नहीं है. लेकिन सरकार ने यह कहकर कि वे सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े हैं, आरक्षण का चुनावी तोहफा दे डाला. महाराष्ट्र में मराठे कुल जनसंख्या का 32 प्रतिशत हैं. दिलचस्प बात यह है कि मुख्यमंत्री चव्हाण और उपमुख्यमंत्री अजित पवार, दोनों ही मराठा हैं. इस घोषणा के बाद महाराष्ट्र में तो कुल आरक्षण 73 प्रतिशत तक जा पहुंचा है, जो संविधान की व्यवस्था के अनुरूप नहीं है. यह निहायत ही बेतुका और निहित स्वार्थों वाला निर्णय है.
ज़ाहिर है कि गिरती लोकप्रियता को बढ़ाने के लिए वहां की सरकार ने यह कदम उठाया है. महाराष्ट्र में कांग्रेस-एनसीपी की सरकार है, जिस पर न केवल अकर्मण्यता, बल्कि भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगते रहे हैं. वहां बड़े-बड़े घोटाले हुए और कई मुख्यमंत्री बदल गए. अब देखना है कि आरक्षण का जो चुनावी चुग्गा उन्होंने डाला है, उसे वोटर चुगते हैं या नहीं. कम से कम उत्तर प्रदेश में तो ऐसा नहीं हुआ और वहां जाटों को आरक्षण देने की घोषणा के बाद भी राज्य में कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो गया.
आरक्षण किसी भी समस्या को कोई समाधान नहीं है. यह बस एक तात्कालिक समाधान है और राजनीतिज्ञों के लिए एक चुनावी चुग्गा. इसके बूते वे वोटरों को अपने बस में करने की कोशिश करते हैं. लेकिन यह एक किसी जाति या समूह को सशक्त बनाने का फॉर्मूला नहीं है. किसी जाति या समूह के उत्थान के और तरीके हो सकते हैं, लेकिन आरक्षण कतई नहीं है. सत्ता पाने की खोज में लगे नेता ऐसे सस्ते उपायों की तलाश में हमेशा रहते हैं.