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दलितों पर देर से आई लेकिन क्या दुरुस्त आई मोदी सरकार?

2019 लोकसभा चुनाव को देखते हुए नरेंद्र मोदी सरकार दलित समुदाय का दिल जीतने की कवायद में जुट गई है. जानिए मोदी सरकार एससी/एसटी एक्ट में संशोधन करके दलितों की नाराजगी को क्या दूर कर पाएगी?

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भारत बंद के दौरान दलित समुदाय सड़क पर (फाइल फोटो)
भारत बंद के दौरान दलित समुदाय सड़क पर (फाइल फोटो)

2019 के लोकसभा चुनाव की राजनीतिक बिसात दलित मतों के सहारे बिछाई जाने लगी है. नरेंद्र मोदी सरकार ने लोकसभा चुनाव से आठ महीने पहले दलित मुद्दे पर बड़ा कदम उठाया है. सरकार SC/ST एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटकर उसके पुराने मूल स्वरूप में बहाल करने के लिए संशोधन विधेयक लाने का फैसला किया है.

मोदी सरकार का ये फैसला दलित विरोधी छवि को तोड़ने और उनकी नाराजगी को दूर करने वाला कदम माना जा रहा है. इस कदम से दलित समुदाय का दिल मोदी के लिए कितना पसीजेगा ये तो वक्त ही बताएगा?

दलित राजनीति की ताकत

देश की कुल जनसंख्या में 20.14 करोड़ दलित हैं. देश में कुल 543 लोकसभा सीट हैं. इनमें से 84 सीटें अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं.

2014 के लोकसभा चुनाव में इन 84 सीटों में से बीजेपी ने 41 पर जीत दर्ज की थी. दलित आबादी वाला सबसे बड़ा राज्य पंजाब है. यहां की 31.9 फीसदी आबादी दलित है और 34 सीटें दलितों के लिए आरक्षित हैं.

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उत्तर प्रदेश में करीब 20.7 फीसदी दलित आबादी है. राज्य की 17 लोकसभा और 86 विधानसभा सीटें आरक्षित हैं. बीजेपी ने 17 लोकसभा और 2017 के विधानसभा चुनाव में 76 विधानसभा आरक्षित सीटों पर जीत दर्ज की थी.

हिमाचल में 25.2 फीसदी, हरियाणा में 20.2 दलित आबादी है. एमपी में दलित समुदाय की आबादी 6 फीसदी है जबकि यहां आदिवासियों की आबादी करीब 15 फीसदी है. पश्चिम बंगाल में 10.7, बिहार में 8.2, तमिलनाडु में 7.2, आंध्र प्रदेश में 6.7, महाराष्ट्र में 6.6, कर्नाटक में 5.6, राजस्थान में 6.1 फीसदी आबादी दलित समुदाय की है.

दलितों की अहम भूमिका

2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी की कामयाबी में दलितों की अहम भूमिका रही थी. बीजेपी पसोपेश में है कि कहीं दलितों की नाराजगी 2019 में उसके लिए महंगी न पड़ जाए, वहीं कांग्रेस सहित विपक्षी पार्टियां इस कोशिश में लगी हैं कि दलितों का दिल जीतकर एक बार फिर सत्ता में वापसी कर सके.

दरअसल इसी साल 21 मार्च को सुप्रीम कोर्ट ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम (एससी/एसटी एक्ट 1989) के तहत दर्ज मामलों में तत्काल गिरफ्तारी पर रोक लगा दी थी. इसके अलावा सरकारी कर्मचारियों की गिरफ्तारी सिर्फ सक्षम अथॉरिटी की इजाजत के बाद ही हो सकती है.

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सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ दो अप्रैल को दलित संगठन सड़कों पर उतरे थे. दलित समुदाय ने दो अप्रैल को 'भारत बंद' किया था. केंद्र सरकार को विरोध की आंच में झुलसना पड़ा. देशभर में हुए दलित आंदोलन में कई इलाकों में हिंसा हुई थी, जिसमें एक दर्जन लोगों की मौत हो गई थी.

सुप्रीम कोर्ट के फैसले के लिए मोदी सरकार को जिम्मेदार मानते हुए दलित समाज केंद्र सरकार से अपनी नाराजगी जता रहा था. केंद्र सरकार और बीजेपी को दलित विरोधी बताया जा रहा था. दलित संगठनों ने सरकार को एक बार फिर अल्टीमेटम दे रखा है कि अगर 9 अगस्त तक एससी एसटी एक्ट को पुराने स्वरूप में लाने वाला कानून नहीं बना तो वो बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन करेंगे.

मोदी सरकार का नया दांव

मोदी सरकार ने मौजूदा राजनीतिक समीकरण को देखते हुए SC/ST एक्ट को उसके मूल स्वरूप में लाने का फैसला किया. सरकार इस संशोधन विधयक को लाती है तो वो पास होकर रहेगा. देश में दलित मतों की अहमियत को देखते हुए कोई भी दल इसका विरोध खुलकर नहीं कर सकेंगे. ऐसे में फिर ये कानून अपने मूलस्वरुप में आ जाएगा और सुप्रीम कोर्ट के फेरबदल का कोई मतलब नहीं रह जाएगा.

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इसके साथ ही एक सवाल ये भी है कि क्या इस फैसले के बाद अब मोदी के नेतृत्व वाली बीजेपी के ऊपर दलित विरोधी होने का आरोप लगता है, क्या वो दूर हो पाएगा. अंबेडकर महासभा के अध्यक्ष डॉ. लालजी प्रसाद निर्मल कहते हैं कि SC/ST एक्ट  पर सरकार का फैसला काफी महत्वपूर्ण है. दलित समुदाय के लिए SC/ST एक्ट लाइफलाइन हैं. ये दलितों के हर क्लास के लिए काफी अहमियत रखता है. ऐसे में मोदी सरकार ने बेहतर और साहसिक कदम उठाया है. सरकार के इस फैसले से दलित समुदाय की नाराजगी दूर होगी और चुनाव में इसका फायदा भी मिलेगा.

दलित चिंतक प्रोफेसर सुनील कुमार सुमन कहते हैं कि लोकसभा चुनाव को देखते हुए सरकार ने कदम उठाया है. ऐसे में दलित समुदाय के जागरुक लोग उनके झांसे में नहीं आएंगे. उन्होंने कहा कि सरकार क्या कदम उठा रही है ये महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि उसकी विचाराधारा क्या है ये मायने रखती है. बीजेपी की विचाराधारा दलित आदिवासी विरोधी है. इस बात से सभी वाकिफ हैं.

सुमन कहते हैं कि मोदी सरकार ने पिछले चार साल में दलित आदिवासियों का जितना नुकसान किया है, उतना पचास साल में नहीं हुआ. मोदी सरकार खुशी-खुशी SC/ST एक्ट में संशोधन नहीं करने जा रही है बल्कि दलित समुदाय का उनके ऊपर प्रेशर था, इसलिए ये बिल लेकर आए. जन दवाब में आकर इन्होंने फैसला लिया है.

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हालांकि मोदी सरकार के कदम से एनडीए की सहयोगी दलित पार्टियों को राहत मिली है. एससी एसटी एक्ट में बदलाव के बाद भी सत्ता में भागीदार रहने को लेकर उनकी नीयत पर सवाल उठाए जा रहे थे. रामविलास पासवान, रामदास अठावले और उदित राज जैसे दलित नेतृत्व को अपनी ही सरकार के दलित मुद्दों पर बचाव करना मुश्किल पड़ रहा था.

दलित चिंतक प्रो. रतन लाल कहते हैं कि सरकार के फैसले से दलित समुदाय नहीं बल्कि एनडीए दलित सहयोगियों को खुशी जरूर मिली होगी, जो समाज के बीच जाने से बच रहे थे. अब वे दलित समुदाय के बीच मोदी सरकार के एजेंट के रूप में जाकर सरकार का पक्ष रखेंगे, लेकिन समाज इनसे वाकिफ हो गया है.

वे कहते हैं कि एससी एसटी एक्ट ही नहीं बल्कि आरक्षण को खत्म करने जैसे कई दलितों के मुद्दे हैं, जिन्हें लेकर लोग मोदी सरकार से नाराज हैं. ऐसे में समाज के दबाव में सरकार ने कदम उठाया है. पिछले चार साल में सरकार के रवैये को दलित समाज जान चुका है. ऐसे में इनके बहकावे में नहीं आने वाला.

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