तमिलनाडु की राजनीति के पितामह एम करुणानिधि का मंगलवार को चेन्नई में निधन हो गया. अपने प्रशंसकों में कलाईन्यर के रूप में मशहूर करुणानिधि जातीय भेदभाव की दीवार को तोड़ने और सामाजिक बदलाव के आंदोलन से जुड़े थे और सत्ता में आने के बाद वह दलितों-वंचितों के मसीहा बन गए.
करुणानिधि करीब 19 साल तक तमिलनाडु के सीएम रहे और उनकी राजनीति में जाति, अफर्मेटिव एक्शन, पंथ निरपेक्षता, क्षेत्रीय पहचान जैसे विचारों का गहरा असर था.
करुणानिधि का जन्म एक पिछड़ी जाति के परिवार में हुआ था. अपनी किशोरावस्था में ही वह पेरियार ई.वी. रामासामी के सामाजिक न्याय आंदोलन में शामिल हो गए थे. बीसवीं सदी के पहले पचास वर्षों में पेरियार के जाति विरोधी उग्र विचारों ने तत्कालीन मद्रास प्रेसिडेंसी के तमिल भाषी इलाकों में राजनीतिक उबाल पैदा कर दिया था.
इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक उन्होंने जातिगत विभेद और ऊंच-नीच को मानने से इंकार करते हुए द्रविण पहचान को आगे बढ़ाते हुए तमिल भाषा, संस्कृति के गौरव पर जोर दिया. उन्होंने समाज में सबको बराबर मानने की व्यवस्था की बात की. वे तो यहां तक मानते थे कि आजादी मिल भी गई तो दक्षिण भारत पर ब्राह्मणों के प्रभुत्व वाले कांग्रेस का ही शासन होगा.
पेरियार के इन क्रांतिकारी विचारों ने पूरे तमिल इलाके के सामाजिक संबंधों में हलचल मचा दिया था. पेरियार करुणानिधि के गुरु थे. पेरियार के युवा अनुयायी और डीएमके के संस्थापक और तमिलनाडु के पहले सीएम सीएन अन्नादुरई के सहयोगी के रूप में करुणानिधि की राजनीतिक समझ और कद बढ़ता गया.
पेरियार भारत की आजादी से सहमत नहीं थे और इसका विरोध कर रहे थे. लेकिन अन्नादुरई उनसे अलग राय रखते हुए आजादी के बाद देश की राजनीति में शामिल हुए. करुणानिधि भी अन्नादुरई के साथ डीएमके के संस्थापकों में से थे.
पूरा द्रविण आंदोलन जाति विरोधी था. अन्नादुरई का नारा था 'ऑन्द्रे कुलम, ओरुवने देवन' (एक मानवता, एक ईश्वर). अपने सीएम रहने के दौरान करुणानिधि ने अपने गुरु से मिले द्रविण आंदोलन के विचार को अमली जामा पहनाना शुरू किया. देश में सबसे पहले जातिगत आरक्षण लागू करने वाले राज्यों में मद्रास प्रेसिडेंसी था. असल में डीएमके की स्थापना जस्टिस पार्टी और पेरियार के आत्मसम्मान आंदोलन की विरासत पर हुई थी. इसलिए डीएमके ने सदियों तक वंचित रहे समुदाय को आरक्षण के द्वारा सशक्त बनाने का प्रयास किया.
करुणानिधि ने प्रशासन में हर स्तर पर समाज के हर वर्ग का प्रतिनिधित्व रखने का प्रयास किया. हालांकि उनके आलोचक यह आरोप लगाते रहे हैं कि उन्होंने जाति को वोट बैंक की राजनीति में बदल दिया. कुछ आलोचक यह आरोप भी लगाते हैं कि पेरियार और द्रविण आंदोलन का ज्यादा फायदा ओबीसी वर्ग को मिल गया.