scorecardresearch
 

एक तिहाई आबादी को भरपेट भोजन का कानून लाने का रास्ता साफ

2014 में मनमोहन सरकार की चुनावी नैया पार लगाने के खाद्य सुरक्षा बिल के लिए अध्यादेश लाने को मंजूरी दे दी. वैसे अध्यादेश लाकर फूड सिक्यूरिटी बिल को लागू करने पर पहले यूपीए में भी मतभेद थे, एनसीपी जैसी पार्टी को अध्यादेश पर एतराज था.

Advertisement
X
मनमोहन सिंह
मनमोहन सिंह

2014 में मनमोहन सरकार की चुनावी नैया पार लगाने के मकसद से खाद्य सुरक्षा बिल के लिए अध्यादेश लाने को मंजूरी दे दी गई है. वैसे अध्यादेश लाकर फूड सिक्यूरिटी बिल को लागू करने पर पहले यूपीए में भी मतभेद थे, एनसीपी जैसी पार्टी को अध्यादेश पर ऐतराज था.

दरअसल, केंद्रीय मंत्रिमंडल ने बुधवार को खाद्य सुरक्षा अध्यादेश को मंजूरी दे दी. अध्यादेश को 6 महीने के भीतर संसद के दोनों सदनों में पारित होना है. खाद्य सुरक्षा विधेयक का उद्देश्य भारत के 1.2 अरब लोगों में से 67 प्रतिशत को रियायती दर पर खाद्यान्न उपलब्ध कराना है. करीब 80 करोड़ लोगों को रियायती दर पर खाद्यान्न उपलब्ध कराने के लिए सरकार पर करीब 1.3 लाख करोड़ रुपये का भार पड़ेगा.

खाओ पीयो वोट दो!
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने सितंबर 2012 में डीजल की कीमतों में हुई मूल्‍यवृद्धि के फैसले का बचाव करते हुए कहा था कि पैसे पेड़ पर तो उगते नहीं.

देश ने उस वक्‍त पहली बार जाना था कि अपने अनबोल प्रधानमंत्री को वनस्पतियों के विज्ञान का इतना बढ़िया ज्ञान है. लेकिन उनकी पीएचडी पॉलिटिक्स में नहीं इकोनॉमिक्स में है इसलिए उन्हें लगता है कि पैसे पेड़ पर उगें या नहीं लेकिन वोट पेड़ पर ज़रूर उगते हैं. बस पेट भरने की देर है. इसीलिए दो बार दरकिनार करने के बाद कैबिनेट ने भोजन की गारंटी को अध्यादेश में बदल दिया.

Advertisement

नौ साल तक वादों की खेती करने वाले कांग्रेस के खुदाओं में अब खाने के अधिकार पर खलबली मची हुई है. बिना बीज बोए बादशाह को वोट के पके-मीठे फल चाहिए. होशियारियों का ये धंधा खुल गया है इसलिए हाकिमों की धुकधुकी बढ़ी हुई है.

संसदीय परंपराओं की दुहाई देने वाली सोनिया गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस भोजन की गारंटी के बिल पर संसद में बहस से भी भाग खड़ी हुई है. लेकिन सवाल पेट का नहीं, वोट का है इसलिए पिछले दरवाज़े से पाप ढकने की तैयारी है. कानून नहीं तो अध्यादेश ही सही.

सोनिया के सिपाहियों ने तैयार किया फॉर्मूला
खिला-पिलाकर वोट लेने की परंपरा हिंदुस्तान में नई नहीं है. कांग्रेस को भी इसकी कीमत पता है. इसलिए वो अध्यादेश की शक्ल में इस शस्त्र को आजमाना चाहती है.
- 3 रुपया किलो चावल
- 2 रुपया किलो गेहूं
- गर्भवती महिलाओं को 6 हजार रुपये
- 75 फीसदी गांव वाले
- 50 फीसदी शहर वाले
दस साल में दया का ये फॉर्मूला तैयार किया है सोनिया गांधी के सिपाहियों ने. उन्हें यकीन है कि ये वो तिलिस्म है जिसके दम पर उसे तीसरी बार हस्तिनापुर की सत्ता हासिल हो सकती है.

विपक्ष ने भी चढ़ाई आस्‍तीनें
विपक्ष को लगता है कि सरकार भोजन के अधिकार के अध्यादेश को चुनाव में इक्के की तरह आजमाएगी इसलिए उसने भी ठान लिया है कि चाहे जो हो जाए खिला-पिलाकर वोट लेने के लालच को संसद की वैधता के बिना लागू करने नहीं दिया जाएगा.

Advertisement

कोई रूठे और कोई छूटे, सरकार छटपटा रही है. आखिर पापी वोट का सवाल है. कांग्रेस मानकर चल रही है कि चुनाव से चार महीने पहले भारत के लोगों को भरपेट भात खिलाकर वो वोट का भत्ता मांगेगी तो कोई मना नहीं कर पाएगा.

पेट कई तरह के होते हैं. लालच का पेट, लूट का पेट, पिचका हुआ पेट, उभरा हुआ पेट. लेकिन इन सभी पेटों से अलग होता है राजनीति का पेट. इस पेट को भरने के लिए वोट का निवाला चाहिए. और ये निवाला जनता के हाथों में है. इसे छीनने के लिए बिलखती हुई बस्तियों में रिश्वत की रोटी के टुकड़े फेंके जा रहे हैं.

Advertisement
Advertisement