कोरोना संकट और लॉकडाउन के बीच केंद्र की मोदी सरकार 2.0 का एक साल पूरा हो गया है. ये साल देश के लिए ऐतिहासिक रहा है. केंद्र में मोदी सरकार पिछले छह साल से है लेकिन पिछले एक साल के कार्यकाल पर नजर डालें तो कहा जा सकता है कि ये नए तेवर और तरीके वाली सरकार है, जिसमें बड़े और कड़े फैसले तुरंत किए जा रहे हैं. किसी राजनीतिक हिचक का अभाव है. फैसले केंद्रीयकृत हैं. दोनों सदनों में सरकार आत्मविश्वास से लबरेज है और विपक्ष हाशिये पर है.
बीजेपी को सालों से कवर करते रहे वरिष्ठ पत्रकार केजी सुरेश कहते हैं कि मोदी सरकार के पहले पांच साल का पूरा फोकस विकास पर था जबकि दूसरे कार्यकाल के पहले साल को देखें तो ये फोकस विचार पर ज्यादा शिफ्ट दिखता है. मोदी सरकार 2.0 के जम्मू कश्मीर से अनुच्छेद-370 खत्म करने, नागरिकता संशोधन कानून, तीन तलाक कानून या फिर यूएपीए कानून जैसे कदम इसके सबूत हैं.
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सुरेश कहते हैं कि भले ही अयोध्या का फैसला सुप्रीम कोर्ट का हो, लेकिन कोर्ट में इस मामले की सुनवाई में तेजी लाने में मोदी सरकार का अहम योगदान रहा है, अगर दूसरी सरकार होती तो इतनी जल्दी मामले का फैसला आना आसान नहीं होता. इसके बाद अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए सरकारी चुस्ती से साफ है कि बीजेपी का वो कोर और मूल एजेंडा जो लंबे समय से ठंडे बस्ते में रखा गया था, उसे मोदी सरकार ने पूरा करने की ठान ली है.
मोदी सरकार 2.0 के तेवर को लेकर केजी सुरेश कहते हैं कि लोकसभा चुनाव में जिस तरह से बीजेपी के पक्ष में नतीजे आए सहयोगी दलों पर से उसकी निर्भरता खत्म हो गई है. राज्यसभा में भी पार्टी की ताकत बढ़ गई है, उससे निश्चित रूप से पार्टी के हौसले बुलंद हुए हैं. मोदी सरकार ने 5 साल में जो काम किए, उस पर जनता ने भरपूर मुहर लगाई है. इसलिए कोर एजेंडे पर लौटने का ये उसके लिए सबसे मुफीद समय है. पिछली सरकार के मुकाबले मोदी 2.0 में निर्णय और केंद्रीयकृत हुए हैं. पिछली सरकार में अमित शाह नहीं थे और इस बार मोदी सरकार में वे अहम हिस्सा हैं. इससे भी पीएम मोदी के लिए कड़े और बड़े फैसले लेना आसान हुआ है.
पीएम नरेंद्र मोदी और अमित शाह
दिल्ली को समझने में गुजरे 5 साल
गुजरात के मुख्यमंत्री पद को इस्तीफा देकर 2014 में नरेंद्र मोदी दिल्ली आए और प्रधानमंत्री बने. वे दिल्ली के लिए नए थे. दिल्ली की सियासत को समझने में भी पांच साल गुजर गए. बीजेपी का जो स्वरूप अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, सुषमा स्वराज और अरुण जेटली के दौर में था, पार्टी अब उससे आगे बढ़ी है. नई सरकार में नई लीडरशिप का असर फैसले लेने के तेवर और तरीकों में भी दिख रहा है.
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मोदी-शाह की सियासत की शैली पुराने बीजेपी नेताओं जैसी नहीं है. अब तुरंत फैसले लिए जा रहे हैं. विपक्ष इतना मजबूत नहीं बचा है. इसलिए उसे भरोसे में लेने या उससे सलाह मशवरा करने की जरूरत भी उतनी नहीं समझी जा रही. संसदीय राजनीति का इतिहास गवाह है कि सत्तारूढ़ दल अपना आधा कार्यकाल बीतने के बाद ऐसे मुद्दों पर हाथ डालता है, जिनसे उनके प्रति जनता में सकारात्मक धारणा मजबूत हो, लेकिन मोदी सरकार अपनी विचारधारा को अमलीजामा पहनाने के लिए पहले दिन से ही एक्टिव मोड में है और एक साल बीतने के बाद उसे भलीभांति महसूस किया जा सकता है.